गुरू मुख से दीक्षा पूर्वक ग्रहण करने पर ही गायत्री की
‘मंत्र’
संज्ञा होती है। इसके बिना वह साधारण प्रार्थना कही जाती है।
जिस प्रकार अपनी दैनिक भाषा में कोई प्रार्थना कहना एक सामान्य
बात है उसी प्रकार बिना दीक्षा की गायत्री भी एक साधारण पूजा
प्रक्रिया है। गायत्री को मंत्र रूप में ग्रहण करके उसकी साधना
द्वारा आध्यात्म मार्ग पर बढ़ते हुए सच्चे ज्ञान विज्ञान को
प्राप्त करना चाहिये। ऐसे मंत्र योग से ही सिद्धि प्राप्त होती
है।
मंत्रभ्यास योगेन ज्ञानं ज्ञानाय कल्पते ।।
न योगेन बिना मंत्रे न मंत्रेण विनाहिसः ॥
द्वयोरभ्यास संयोगो ब्रह्म संसिद्धि कारणम् ।।
मंत्राभ्यास
और योग साधना से ही ज्ञान, ज्ञान कहा जाता है। न मंत्र के
बिना योग हो सकता है न बिना योग के मंत्र साधना हो सकती है
।। दोनों के सम्मिश्रण से ही सिद्धि प्राप्त होती है।
साधना की सफलता के लिए निम्न सोलह बातों का ध्यान रखना होता
है। यह सभी बातें नियमित रूप से विधिपूर्वक चलने से सफलता का
मार्ग प्रशस्त होगा। इन सभी बातों पर अगले किसी अङ्क में विस्तृत
प्रकाश डालेंगे। १६ स्मरणीय नियम इस प्रकार हैं-
भवन्ति मंत्र योगस्य षोडशांगनि निश्चितम् ।।
यथा सुधांशोजयिन्ते कलाः षोडश शोभनाः ॥
भक्तिः शुद्धिश्चासनंच पञ्चांग स्यापि सेवनम् ।।
आचार धारणे दिव्य देशसेवनमित्यापि ॥
प्राण क्रिया तथा मुद्रा तर्पणं हवनं वलिः।
यागो जयरतथा ध्यानं समाधिश्चोति षोडश॥
चन्द्रमा की सोलह कलाओं की ही तरह मंत्र योग के भी सोलह सोपान हैं।
(१) भक्ति, (२) शुद्धि, (३) आसन, (४) पंचांग सेवन, (५) आचार, (६) धारणा, (७) दिव्य देश सेवन, (८) प्राण क्रिया, (९) मुद्रा, (१०) तर्पण, (११) हवन, (१२) बलि, (१३) त्याग, (१४) जप, (१५) ध्यान, (१६) समाधि ।।
इन सभी के सम्बन्ध में सतर्कता रखी जानी चाहिए पर आहार शुद्धि
एवं इष्ट देव का निरन्तर ध्यान यह दो बातें तो अनिवार्य ही
हैं। साधक अभक्ष
कुधान्य से वैसे ही बचे जैसे विष से बचा जाता है। सोते- जागते,
चलते- फिरते हर समय से माता का ध्यान रखना ही शीघ्र सफल बनाने
का अमोघ साधन है।
आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः ।।
सत्व शुद्धौ धवा स्मृतिः ॥
स्मृतिलाभे सर्व ग्रन्थीनां विप्र मोक्षः ।।
-उपनिषद
अर्थात्- शुद्ध आहार ग्रहण करने से अन्तःकरण शुद्ध होता है।
शुद्ध अन्तःकरण से स्मृति (ध्यान) निश्चित होता है और निश्चित
ध्यान लगाने से सिद्धि प्राप्त होती है।