गायत्रीपुरश्चरण

साधना की पांच शर्त

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अतः स्वस्थेन चित्तेन श्रद्धया निष्ठयां तथा।
कर्त्तव्याविरतं काले नित्यं गायत्र्युपासना॥

(अतः) इसलिए, (श्रद्धया) श्रद्धा से, (निष्ठया) दृढ़ता से तथा (स्वस्थेन चित्तेन) स्वस्थ चित्त से, (नित्य) प्रतिदिन, (अविरतं) निरन्तर, (काले) समय पर, (गायत्र्युपासना) गायत्री की उपासना करनी चाहिए। 
 
किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए कुछ शर्तें होती हैं जिन्हें पूरा करके ही कोई आदमी निश्चित लक्ष्य तक पहुँच सकता है। यदि शर्तबन्दी न होती तो हर कोई, हर काम में सफल हो जाता। ऐसा इसलिए नहीं होता- क्योंकि परमात्मा हर वस्तु अधिकारी पात्रों को देता है। जो अपनी पात्रता सिद्ध कर देता है यह प्रमाण दे देता है कि मैं इसका अधिकारी हूँ उसे ही वह सफलता प्राप्त होती है। परीक्षक को अपने ज्ञान का प्रमाण दे देने पर ही विद्यार्थी को प्रमाण- पत्र प्राप्त होता है। 
 
गायत्री माता की प्रसन्नता प्राप्त करने और उसकी कृपा की सिद्धि रूपी प्रमाण- पत्र प्राप्त कर लेने के लिए कुछ शर्तें रखी गई हैं, उन शर्तों को पालन करके ही इस साधना में सफलता मिल सकती है। वे शर्तें यह हैं कि () स्थिर चित्त, () श्रद्धा, () दृढ़ता, () निरन्तर, () समय पर साधना करना। अब इनका विवेचन नीचे किया जाता है-

स्थिर चित्त को चारों ओर से समेट कर एकाग्रता पूर्वक साधना में लगा देना चाहिए। बिखरी हुई बारूद को जला देने से वह भक् से जल जाती है और उसकी शक्ति समाप्त हो जाती है किन्तु यदि उसे बन्दूक की एक छोटी नाली में डालकर एक ही दिशा में जलाया जाय तो भयंकर आवाज करती है और जिधर चलाई जाती है उधर प्राणघातक परिणाम उपस्थित करती है। थोड़ी- सी जगह में बिखरी हुई सूर्य किरणें कोई विशेष कार्य नहीं करतीं पर जब उन्हें आतिशी कांच द्वारा एक स्थान पर केन्द्रित कर दिया जाता है तो वे अग्नि उत्पन्न कर देती हैं। इसी प्रकार एकाग्रचित्त से की हुई साधना आशाजनक फल उपस्थित करती हैं, पर यदि अस्थिर मन से किया जाय तो प्रयत्न उतना ही अल्पफलदाता सिद्ध होता है। अतएव स्थिर चित्त होना साधना की पहली शर्त है। 
 
श्रद्धा- किसी वस्तु की महत्ता एवं श्रेष्ठता में विश्वास होना, उसके प्रति मन में भक्ति, प्रीति, प्रतीति एवं समीपता की आकांक्षा होने को श्रद्धा कहते हैं। गायत्री वस्तुतः परमात्मा की ब्राह्मी शक्ति है, उसकी आराधना से निश्चित रूप से दैवी तत्वों का अभिवर्धन होता है। इस अभिवर्धन से प्राणी के आत्मिक और भौतिक आनन्दों का मार्ग अवश्य ही प्रशस्त होता है, ‘‘इस ब्राह्मी शक्ति को मैं निस्संदेह प्राप्त कर सकता हूँ और निश्चय ही वह महत्त्वपूर्ण लाभ मुझे भी मिल कर रहेंगे जो इस साधना के फलस्वरूप असंख्यों साधकों को अब तक मिल चुके हैं। इस प्रकार की भावनाओं का मन में उठते रहना, उनके कल्पना चित्र मस्तिष्क में घूमते रहना तथा उन विचारधाराओं के प्रति अधिकाधिक विश्वास भाव दृढ़ होते जाना, गायत्री साधना की श्रद्धा है। 
 
मनोविज्ञान शास्त्र के जानकार भली प्रकार जानते हैं कि मानव अन्तःकरण में एक उत्पादक प्रचण्ड सजीव विद्युत शक्ति का भण्डार है, जिसके द्वारा सूक्ष्म जगत में ऐसी- ऐसी अद्भुत रचनाएँ होती हैं, जो स्थूल जीवन में आश्चर्यजनक फल उपस्थित करती हैं। तंत्र,मंत्र, देवता, शाम, वरदान, ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ आदि चमत्कारी आत्मिक शक्तियाँ इसी विद्युत शक्ति के द्वारा प्राप्त होती हैं और इनका निर्माण श्रद्धा तथा विश्वास के आधार पर होता है। तुलसीदासजी ने श्रद्धा और विश्वास को भवानी तथा शंकर माना है। ‘‘भवानी शंकरौ बन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।’’ श्रद्धा एक सांचा है जिसमें आन्तरिक शक्तियाँ ढलकर उसी रूप में प्रकट होती हैं, जिससे अभीष्ट दिशा में तेजी से प्रगति और मनोवाञ्छित सफलता प्राप्त होती है। इस दृष्टि से श्रद्धा को साधना की दूसरी आवश्यक शर्त माना है।

 
दृढ़ता- विलम्ब, कठिनाइयाँ तथा निराशा जनक स्थित होते हुए भी एक स्थान पर मजबूती तथा अविचल भाव से अड़े रहने को दृढ़ता कहते हैं। दृढ़ता से बुद्धि निश्चयात्मक हो जाती है, एक ओर लक्ष्य हो जाने से समस्त शक्तियाँ उसी दिशा में लगती हैं और सन्तोषजनक परिणाम उपस्थित करती हैं। अपने कार्य में दृढ़ता हो। उत्साह का आवेग थोड़े ही दिनों में ठण्डा हो जाता हो और उसे छोड़ देने, शिथिल कर देने की इच्छा होने लगती है। इस अनुत्साह से मन उचटने लगता है, उठाया हुआ काम नीरस प्रतीत होता है, ऊबा हुआ मन .......   
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