गायत्रीपुरश्चरण

लघु साधन और पूर्ण पुरश्चरण

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जिनके पास समयाभाव है, स्वल्प श्रद्धा है, उन आरम्भिक साधकों के लिए दिन में २४ हजार का लघु अनुष्ठान बताया गया है। थोड़ी अधिक श्रद्धा बल है, जिनको कुछ अधिक समय लगाने में भी संकोच नहीं है उन मध्यम स्थिति उपासकों को ४० दिन का सवा लक्ष अनुष्ठान कराया जाता है। पर पूर्ण पुरश्चरण २४ लक्ष का होता है। इस महामंत्र की शक्ति परीक्षा करनी है तो कम से कम २४ लक्ष का एक पूर्ण पुरश्चरण करना चाहिए। इस सम्बन्ध में शास्त्रों का निर्देश इस प्रकार है-

भूयस्त्वक्षर लक्षं गायत्रीं संयतात्मको जप्तवा ।।
-प्रपंच सार

गायत्री के एक- एक अक्षर का एक- एक लाख के कारण चौबीस लक्ष जप मनोनिग्रह पूर्वक करें। 
  
लभतेऽभियतां सिद्धिं चतुर्विंशति लक्षतः ।।
-याज्ञवल्क्य स्मृति

अर्थात्- चौबीस लाख जप का महापुरश्चरण करने से गायत्री की सिद्धि मिलती है।

साधना ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख है कि सतयुग में जबकि वायुमण्डल शुद्ध था और साधकों के शरीर तथा मन सतोगुण से परिपूर्ण थे उस समय २४ लक्ष का पुरश्चरण पूर्ण माना जाता था। पर अब स्थिति बदल गई है। व्यक्तियों के शरीरों में तथा वातावरण में तमोगुण और रजोगुण व्याप्त है। स्थिति की शुद्धता अशुद्धता में सैकड़ों गुना अन्तर आ गया है इसलिए साधना की मात्रा में भी उसी हिसाब से परिवर्तन करना उचित है। मामूली बुखार दो चार दिन दवा खाने से ही ठीक हो जाता है। यदि जीर्ण ज्वार हो तो बहुत दिनों तक दवा लेनी पड़ती है। इसी प्रकार मन कम अशुद्ध हो तो थोड़ी साधना से ही आत्म शक्ति निखर आती है पर दूषणों की अधिकता होने पर देर तक प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है। 
 
इसी सिद्धान्त के अनुसार सतयुग में २४ लक्ष पुरश्चरण पूर्ण माना जाता था तो अब इस युग की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए चौगुना प्रयत्न करना उचित ही है। इसलिए ऐसा उल्लेख है कि २४ लक्ष का पुरश्चरण करना एक पूर्ण पुरश्चरण माना जाय।

कल्पोक्तैव कृते संख्या त्रेतायां द्विगुणा भवेत् ।।
द्वापरे त्रिगुणा प्रोक्ता कलौ संख्या चतुर्गुणा॥

-वैशम्पायन

अर्थात्- जो जप संख्या शास्त्रों में कही गई है वह सतयुग के विचार से हैं। त्रेता में उससे दूना, द्वापर में तीन गुना और कलियुग में चार गुना जप करना चाहिए। 

षठवति लक्ष संख्य जपं कलौ पुरश्चरणम् ।।
-गायत्री पुरश्चरण पद्धति  

कलियुग में ९६ लाख जप संख्या करने पर एक एक गायत्री महापुरश्चरण होता है।

लौचतुर्गुणं प्रोक्तं मंत्रनुष्ठान माचरेत् ।।

कलियुग में मंत्रानुष्ठान चार गुना करना चाहिये। यदि २४ लक्ष के अनुष्ठान किये जा सकें तो सर्वोत्तम अन्यथा गायत्री शक्ति का प्रत्यक्ष स्वरूप देखने के इच्छुकों को कम से कम एक २४ लक्ष पुरश्चरण विधिपूर्वक करना चाहिये। यों तो जिससे जितना बन पड़े उतना ही उत्तम है। सवालक्ष और चौबीस हजार के माध्यम तथा लघु अनुष्ठानों का भी अपना- अपना महत्त्व है। ये भी कल्याणकारी ही है।   
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