गायत्री महाशक्ति के चित्रों में चित्रित पाँच मुखों का तत्व
दर्शन उपर्युक्त पंक्तियों में समझा जा सकता है। अब दस भुजाओं के
रहस्य पर प्रकाश डाला जाता है।
मानव जीवन के दो पहलू हैं - (१) आत्मिक, (२) भौतिक। यह दोनों पक्ष ही गायत्री के दो पार्श्व हैं। दोनों में पाँच- पाँच भुजायें हैं। अर्थात पाँच- पाँच शक्तियाँ सामर्थ्य और विभूतियाँ। अध्यात्मिक दक्षिण पार्श्व की पाँच भुजायें हैं (१) आत्म ज्ञान, (२) आत्म दर्शन, (३) आत्म अनुभव, (४) आत्म लाभ और (५) आत्म कल्याण। भौतिक वाम पार्श्व की पाँच भुजायें (१) स्वास्थ्य (२) सम्पत्ति (३) विद्या (४) कौशल (५)
मैत्री। गायत्री के सच्चे उपासक को यह दस सिद्धियाँ, दस विभूतियाँ
निश्चित रूप से मिलती हैं इन दसों का संक्षिप्त परिचय इस
प्रकार है -
(१) आत्म- ज्ञान
आत्म- ज्ञान का अर्थ अपने को जान लेना, शरीर और आत्मा की
भिन्नता को भली प्रकार समझ लेना और शारीरिक लाभों को आत्म- लाभ
की तुलना में उतना ही महत्त्व देना जितना दिया जाना उचित है।
आत्म- ज्ञान होने से मनुष्य का 'असंयम' दूर हो जाता है। इन्द्रिय
भोगों की लोलुपता के कारण लोगों की शारीरिक और मानसिक शक्तियों
का अनुचित अनावश्यक व्यय होता है जिसमें शरीर असंयमी, दुर्बल,
रोगी, कुरूप एवं जीर्ण हो जाता है। आत्म- ज्ञानी इन्द्रिय भोगों की
उपयोगिता का निर्णय आत्म- लाभ की दृष्टि से करता है इसलिए वह
स्वभावतः संयमी रहता है और शरीर से सम्बन्ध रखने वाले दुःखों से
बचा रहता है, दुर्बलता, रोग एवं कुरूपता का कष्ट उसे नहीं भोगना
पड़ता। जो कष्ट उसे पूर्व प्रारब्ध कर्मों के अनुसार भोगने होते
हैं, वह भी आसानी से भुगत जाते हैं।
(२) आत्म- दर्शन
'आत्म- दर्शन' का तात्पर्य है अपने स्वरूप का साक्षात्कार करना।
साधना द्वारा आत्मा के प्रकाश का जब साक्षात्कार होता है, तब
प्रीति प्रतीत, श्रद्धा- निष्ठा और विश्वास भावना बढ़ती है। कभी
भौतिकवादी, कभी अध्यात्मवादी होने की डाँवाडोल मनोदशा स्थिर हो
जाती है और ऐसे गुण, कर्म, स्वभाव प्रकट होने लगते हैं जो एक
आत्म दृष्टि वाले व्यक्ति के लिए उचित हैं। इस आत्म दर्शन की
द्वितीय भूमिका में पहुँचने पर दूसरों को जानने, समझने उन्हें
प्रभावित करने की सिद्धि मिल जाती है।
जिसे आत्म- दर्शन हुआ है उसकी आत्मिक सूक्ष्मता अधिक व्यापक हो
जाती है, वह संसार के सब शरीरों में अपने को समाया हुआ देखता
है। जैसे अपने मनोभाव, आचरण गुण, स्वभाव, विचार और उद्देश्य अपने को
मालूम होते हैं, वैसे ही दूसरों के भीतर की सब बातें भी अपने
को मालूम हो जाती हैं। साधारण मनुष्य जिस प्रकार अपने शरीर और
मन से काम लेने में समर्थ होते हैं, वैसे ही आत्म- दर्शन करने
वाला मनुष्य, दूसरों के मन और शरीरों पर अधिकार करके उन्हें
प्रभावित कर सकता है।
(३) आत्म- अनुभव
'आत्म- अनुभव' कहते हैं- अपने वास्तविक स्वरूप का क्रियाशील होना,
अपने अध्यात्म ज्ञान के आधार पर ही भावना का होना। आमतौर ज्ञान
के आधार पर ही भावना का होना। आमतौर से लोग मन में विचार तो
बहुत ऊँचे रखते हैं पर बाह्य जीवन में अनेक कारणों से उन्हें
चरितार्थ नहीं कर पाते। उनका व्यावहारिक जीवन गिरी हुई श्रेणी का
होता है किन्तु जिन्हें आत्मानुभव होता है वे भीतर बाहर से एक
होते हैं। उनके विचार और कार्यों में तनिक भी अन्तर नहीं होता।
जो कारण, उच्च जीवन बिताने में सामान्य लोगों को पर्वत के समान
दुर्गम मालूम पड़ते हैं, उन्हें वे एक ठोकर में तोड़ देते है।
उनका जीवन ऋषि जीवन बन जाता है।
आत्म- अनुभव से सूक्ष्म प्रकृति की गतिविधि मालूम करने कि
सिद्धि मिलती है। किसका क्या भविष्य बन रहा है? भूतकाल में कौन
क्या कर रहा था? किस कार्य में दैवी प्रेरणा क्या है? क्या
उपद्रव उत्पन्न होने वाले हैं? लोक- लोकान्तरों में क्या हो रहा
है? कब कहाँ क्या वस्तु उत्पन्न और नष्ट होने साधारण लोग नहीं
जानते उन्हें आत्मानुभव की भूमिका में पहुँचा हुआ व्यक्ति भली
प्रकार जानता है। आरम्भ में उसे ये अनुभव कुछ धुँधले होते हैं,
पर जैसे- जैसे उसकी दिव्य दृष्टि निर्मल होती जाती है सब कुछ चित्रवत् दिखाई देने लगता है।
(४) अत्म- लाभ
'आत्म- लाभ' का अभिप्राय है अपने में पूर्ण आत्म तत्व की
प्रतिष्ठा। जैसे भट्ठी में पड़ा हुआ लोहा तप कर अग्नि वर्ण का
लाल हो जाता है वैसे ही इस भूमिका में पहुँचा हुआ सिद्ध पुरुष
दैवी तेजपुंज
से परिपूर्ण हो जाता है, वह सत की प्रत्यक्ष मूर्ति होती है।
जैसे अंगीठी के निकट बैठने से गर्मी अनुभव होती है वैसे ही ऐसे
महापुरुषों के आस- पास ऐसा सतोगुणी वातावरण छाया रहता है
जिसमें प्रवेश करने वाले साधारण मनुष्य भी शान्ति अनुभव करते
हैं। जैसे वृक्ष की सघन शीतल छाया में, ग्रीष्म की धूप से तपे
हुए लोगों को विश्राम मिलता है उसी प्रकार आत्म- लाभ से
लाभान्वित महापुरुष अनेकों को शान्ति प्रदान करते रहते हैं।
आत्म- लाभ के साथ- साथ आत्मा की, परमात्मा की अनेक दिव्य-
शक्तियों से सम्बन्ध हो जाता है। परमात्मा की एक- एक शक्ति का
प्रतीक एक- एक देवता है। यह देवता अनेक ऋद्धि सिद्धियों का अधिपति
है। यह देवता जैसे विश्व ब्रह्माण्ड में व्यापक है वैसे ही एक
छोटा सा रूप यह पिण्ड देह है। इस पिण्ड देह में जो दैवी
शक्तियों के गुह्य संस्थान हैं वे आत्म- लाभ करने वाले साधक के
लिए प्रकट एवं प्रत्यक्ष हो जाते हैं और उन दैवी शक्तियों से
इच्छानुकूल कार्य ले सकता है।
(५) आत्म- कल्याण
'आत्म- कल्याण' का अर्थ है- जीवन मुक्ति, सहज समाधि, कैवल्य अक्षय आनन्द, ब्रह्म- निर्माण, स्थिति प्रज्ञावस्था,
परमहंस गति ईश्वर प्राप्ति। इस पंचम भूमिका में पहुँचा हुआ साधक
ब्राह्मी भूत होता है। पंचम भूमि में पहुँची हुई आत्मायें
ईश्वर की मानव प्रतिमूर्ति होती हैं। उन्हें देवदूत, अवतार,
पैगम्बर, युग निर्माता, प्रकाश स्तम्भ आदि नामों से पुकारते हैं
उन्हें क्या सिद्धि मिलती है उसके उत्तर में यही कहा जा सकता
है कि कोई चीज ऐसी नहीं जिसके आनन्द के वे स्वामी नहीं होते।
ब्रह्मानन्द, परमानन्द एवं आत्मानन्द से बड़ा और कोई सुख इस
त्रिगुणात्मक प्रकृति में सम्भव नहीं, यही सर्वोच्च लाभ आत्म-
कल्याण की भूमिका में पहुँचे हुए को प्राप्त हो जाता है।
भौतिक पक्ष की पाँच सिद्धियाँ गायत्री माता की पाँच भुजायें भौतिक जीवन की दृष्टि से कम महत्त्व की हैं।
(६) निरोगता
गायत्री उपासक का आहार- विहार संयमित रहता है इसलिए उसे
बीमारी का कष्ट नहीं भोगना पड़ता। नियमितता, निरालस्यता एवं
श्रमशीलता का अभ्यस्त रहने के कारण उसके सारे अवयव क्रियाशील
रहते हैं। किसी अंग या इन्द्रिय का दुरुपयोग करने के स्वभाव होने
का कारण उन सबकी शक्ति चिरकाल तक स्थिर रहती है। रोग, पीड़ा
अकाल मृत्यु का कारण असंयम ही तो है। अध्यात्मिक दृष्टिकोण अपनाने
वाला जब संयम की रीति -नीति अपनावेगा तो फिर उसके शरीर को कष्टों से ग्रसित होने का अवसर ही न आएगा। प्रारब्ध आए तो भी वह अधिक समय ठहरेगा नहीं।
गायत्री उपासना का अपना विशेष सत्परिणाम भी है। रोगग्रस्त शरीर
पीड़ा से व्यथित, असाध्य और कष्टसाध्य व्यथाओं से ग्रसित व्यक्ति
गायत्री उपासना का अवलम्बन ग्रहण करने पर अपने कष्टों से छुटकारा
पाते प्रत्यक्ष देखे जाते हैं।
(७) समृद्धि
गायत्री उपासना में जिन सद्गुणों का विकास होता है उनमें
परिश्रमशीलता, तत्परता, सतर्कता, मधुरता, सादगी एवं मितव्ययता प्रमुख
हैं। यह सद्गुण जहाँ भी होंगे वहाँ सदा समृद्धि बनी रहेगी।
दरिद्रता का निवास वहाँ हो ही नहीं सकता। जो परिश्रम और सावधानी
के साथ उद्योग रत रहेगा, दूसरों से मनुष्यता एवं मधुरता भरा
व्यवहार करेगा उसको अर्थ उपार्जन के अनेक अवसर स्वतः ही प्राप्त
होते रहेंगे कमाए हुए पैसे को ठीक तरह खर्च करने की बुद्धि
आमतौर से लोगों को नहीं होती। अस्तु अपव्यय के कारण उन्हें
दरिद्रता घेरे रहती है। सादगी और शालीनता की नीति अपनाकर खर्च
करने वाला व्यक्ति न दरिद्र रहेगा, न अभाव ग्रस्त, न ऋणी। जो
दुर्गुण मनुष्य के व्यक्तित्व को अस्त- व्यस्त करते हैं वे ही
वस्तुतः दरिद्रता के कारण होते हैं। गायत्री की शिक्षा एवं
प्रेरणा साधक को व्यवस्थित बनाने की है। सच्चा साधक उसे हृदयंगम
भी करता हैं, फलस्वरूप उसे दरिद्रता का मुख नहीं देखना पड़ता।
कई बार अर्थ संकट की चिन्ता भरी घड़ियों में गायत्री उपासना
आश्चर्यजनक प्रकाश उत्पन्न करती है। आय के स्त्रोत अवरुद्ध हो गये
थे वे खुल जाते हैं। मार्ग के अवरोध हटते हैं और ऐसे अवसर
उत्पन्न होते हैं जिनके कारण समृद्धि की सम्भावनायें
अनायास ही बढ़ जाती हैं। इस प्रकार के अवसर कितनों को ही आए
दिन मिलते रहते हैं और वे अनुभव करते हैं कि गायत्री माता का
अनुग्रह मनुष्य की दरिद्रता एवं विपन्नता को भी दूर करता है।
(८) विद्या
गायत्री बुद्धि की देवी है। उसके साधक की अभिरुचि स्वभावतः
ज्ञान अभिवर्धन में होती है। स्वाध्याय और सत्संग द्वारा प्राप्त
वह आत्मिक ज्ञान बढ़ता है वहाँ सांसारिक स्थिति को समझने के लिए
अपनी शिक्षा भी जारी रखता है। अध्ययन तो उसका प्रधान व्यसन
होता है। जिसे पढ़ने में रुचि है वह अपने ज्ञान कोश को धीरे-
धीरे संचित करता रहे तो क्रमशः विद्यावान
बनता चला जाता है। विद्या ही संसार का सबसे बड़ा धन है, यह
बात उसके मन में बैठ जाती है तो जिस प्रकार सामान्य लोगों को
धन कमाने की धुन रहती है, उसी तरह उसे विद्यावान
बनने की आकांक्षा निरन्तर बनी रहती है। फलस्वरूप अध्ययन के
मार्ग में जो व्यवधान थे वे दूर होते रहते हैं। ये परिस्थिति तो
उत्पन्न होती रहती है जिसके आधार पर वह ज्ञानवान और विद्वान
बन सके। गायत्री उपासक अशिक्षित, मूढ़ एवं शिक्षा की उपेक्षा करने
वाला हो ही नहीं सकता।
कई बार इस उपासना के फलस्वरूप दुर्बल मस्तिष्क वालों की
प्रतिभा भी अप्रत्याशित रूप में प्रखर होती देखी गई। मन्दबुद्धि,
भुलक्कड़, मूर्ख, अदूरदर्शी, सनकी, जिद्दी, अर्ध विक्षिप्त मस्तिष्क
वालों को बुद्धिमान, दूरदर्शी, तीव्र बुद्धि, विवेकवान बनते देखा गया
है। गायत्री उपासना करने वाले छात्रों को परीक्षा में अच्छी
सफलता प्राप्त करते देखा गया है।
(९) कौशल
बात पर ठीक तरह से सोचना, स्थिति को सही रूप से समझना और
कार्य को ठीक तरह करना, यह कौशल कहलाता है। कौन गुत्थी किस
स्थिति में किस प्रकार सुलझ सकती है, इसका सही तरीके से निर्णय
कर सकने की क्षमता का नाम ही चातुर्य है। चतुर और क्रिया- कुशल
व्यक्तियों के सामने सफलतायें हाथ बाँधे खड़ी रहती हैं। विभिन्न
दिशा में विस्तृतजानकारी
सुलझे हुए विचार और सही अवसर पर सही कदम उठाने की सूझ बूझ
कुशलता के चिन्ह हैं। ऐसे कुशल व्यक्ति हर क्षेत्र में आगे
रहते हैं और सफलताओं पर सफलता प्राप्त करते हुए आगे बढ़ते चलते
हैं।
उलटी तरह सोचने वाले दीर्घसूत्री और भोंदू बुद्धि कहलाने वाले
व्यक्ति गायत्री उपासना का अवलम्बन लेकर कलाकार, नेता, शिल्पी,
विजयी, सरस्वती वरद पुत्र प्रतिभाशाली एवं यशस्वी होते देखे गये
हैं। मस्तिष्क पर दुर्भावों का अनावश्यक दबाव न रहने से
व्यक्तित्व में ऐसी प्रखरता आना स्वाभाविक है।
(१०) मैत्री :-
सद्बुद्धि की देवी गायत्री अपने सच्चे उपासक को प्रधानतया
सद्गुणों का वरदान प्रदान करती है। उससे नम्रता, सौहार्द, सौजन्य,
सेवाभावना, प्रसन्नता, उदारता, दयालुता, निरहंकारिता सज्जनता जैसी विशेषतायें
उत्पन्न होती ही हैं, ऐसे व्यक्तित्व की खिले हुए सुगन्धित कमल
पुष्प से तुलना की जा सकती है, जिसके चारों ओर भौंरे,
मधुमक्खियाँ व तितलियाँ मंडराती रहती हैं। जिसकी दृष्टि उस पर
पड़ती है, वही प्रसन्न होता है। जिसको भी उसकी सुगन्ध मिलती है
वह आकर्षित होता है सज्जनता सम्पन्न व्यक्ति को सच्चे मित्रों की
कभी कमी नहीं रहती। उसके प्रशंसक, सहायक, सहयोगी एवं मित्र दिन-
दिन बढ़ते ही रहते हैं।
जिसकी प्रतिष्ठा जितनी होगी, जिसके जितने सहयोगी एवं मित्र होंगे प्रगति कीसम्भावनायें भी उतनी ही बढ़ी- चढ़ी होंगी। ऐसे व्यक्ति जिधर भी चलते हैं, उधर ही उनके लिए पलक पांवड़े बिछाए जाते हैं और आरती उतारी जाती है।
गायत्री उपासना से तात्कालिक लाभ भी अगणित होते हैं। शत्रुओं के
घातक आक्रमण की सम्भावना समाप्त होती है। द्वेष शान्त होता है
और विध्वंसकारी विरोधियों के हौंसले पस्त हो जाते हैं। जो
प्रतिकूल थे वे अनुकूल बनते हैं और जिनका असहयोग था उनका सहयोग
मिलने लगता है। जहाँ उपेक्षा, असहयोग एवं विरोध की सम्भावना थी
वहाँ अनुकूल वातावरण देख कर कितने ही व्यक्तियों ने गायत्री की
अनुपम शक्ति का चमत्कार देखा है।