गायत्री सर्वतोन्मुखी समर्थता की अधिष्ठात्री

आचार्य का वरण

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साधनायै तु गायत्र्याःनिश्छलेन हि चेतसा ।।
वरणीयः सदाचार्यः साधकेन सुभजनः ॥

(गायत्र्या) गायत्री की (साधनायै) साधना के लिए (तु) तो (साधकेन) साधक को चाहिए कि वह (निश्छलेन चेतसा) छल रहित चित्त से (सुभाजनः) योग्य (सदाचार्यः) श्रेष्ठ आचार्य का (वरणीयः) वरण करें ।।

सत्पात्रों यदि वाचार्यो न स्वात्संस्थापवेत्तदा ।।
नारिकेलं क्षुचं कृत्वाचार्य भावेन चासने ॥

(यदि) अगर (सत्पात्र) श्रेष्ठ एवं योग्य (आचार्यः) आचार्य (न स्यात्) न प्राप्त हो (तदा) तो (शुचं) पवित्रं (नारिकेलं) नारियल को (आचार्य भावेन कृत्त्वा) आचार्य भाव से वरण करके (आसने च) आसन पर (संस्थापयेत्) स्थापित करे ।।

बहुत सी शिक्षायें जानकारियाँ, ऐसी होती है जो पुस्तकें पढ़ने मात्र से प्राप्त हो जाती हैं, साधारण रीति से सुनकर, देखकर या पूछ कर जिन्हें समझ लिया जाता है पर कुछ बातें ऐसी हैं जिनके लिए शिक्षक के अधिक सान्निध्य की आवश्यकता पड़ती है। शरीर की चीड़ फाड़ करने की शिक्षा प्राप्त करने के लिए कुशल सिविल सर्जनों के साथ रहना होता है, इसी प्रकार तरह- तरह की कारीगरी, चित्रकला, रसायन, संगीत, वस्तु निर्माण, शिल्प आदि के लिए शिक्षक की समीपता आवश्यक है। कोई आदमी सफल सुनार, हलवाई, लुहार, बढ़ई, जुलहा, चित्रकार तब तक नहीं बन सकता, जब तक कि वह इन सब बातों के लिए किसी अनुभवी का साथ करे। आगे चलकर पुस्तकों द्वारा कोई मनुष्य स्वयमेव कितना ही ज्ञान प्राप्त कर ले, पर आरम्भ में उसे भाषा विज्ञान के लिए, बोलना और लिखना- पढ़ना सीखने के लिए दूसरों की क्रियात्मक शिक्षा की आवश्यकता होती है।

जिन कार्यों के लिए शिक्षक की समीपता की आवश्यकता है, उनमें से एक महत्त्वपूर्ण कार्य ‘साधना’ भी है। आध्यात्मिक ज्ञान और साधना के सम्बन्ध में बहुत भारी लाभ उठाया जाता है, परन्तु जो साधना के मर्मस्थल हैं, उनके लिए अनुभवी शिक्षक की क्रियात्मक सहायता ही चाहिए। डाक्टरी विज्ञान पर बड़े- बड़े ग्रन्थ मौजूद हैं, यह सभी ग्रन्थ अत्यन्त आवश्यक हैं और डॉक्टरी शिक्षा के विद्यार्थी को उन्हें पढ़ना जरूरी है। क्योंकि इतना विस्तृत बिना समझे कोई छात्र अच्छा यह कहे कि पुस्तकें निरर्थक हैं यह सब ज्ञान तो मैं गुरूमुख से ही प्राप्त करूँगा तो यह असम्भव है। विचारा शिक्षक कहाँ तक उस महाविज्ञान को कहेगा। यह कार्य तो पुस्तकों द्वारा ही हो सकता, परन्तु हां, सर्जरी का, चीड़फाड़ का कार्य अवश्य ही ऐसा है जिसका व्यवहारिक ज्ञान गुरू के सम्मुख ही प्राप्त हो सकता है। आध्यात्मिक महा विज्ञान में साधना भी ऐसा ही मर्मस्थल है जिसके लिए अनुभवी गुरू की आवश्यकता है।

गायत्री के साधक को चाहिए कि अपनी साधना के लिए कोई शिक्षक- आचार्य का वरण करे। जिससे साधना सम्बन्धी शंकाओं तथा समय- समय पर उठने वाले प्रश्नों का, विघ्नों का समाधान उसके द्वारा होता रहे। बीच- बीच में ऐसी परिस्थितियाँ आती रहती हैं, ऐसे अनुभव होते रहते हैं जिनके कारण चित्त विचलित हो जाता है, मन में संकल्प उठने लगते हैं, उन विक्षेपों का समाधान न हो, तो साधना में मन नहीं लगता है, संदेहों की वृद्धि से श्रद्धा और विश्वास में न्यूनता आ जाती है। इस प्रकार के विघ्नों को टालने के लिए ऐसे शिक्षक की आवश्यकता है, जो उसकी मानसिक स्वस्थता की रक्षा कर सके।

आजकल ‘गुरूडम’ काफी बदनाम हो चुका है। धूर्त, अर्थ- लोलुप, मूर्ख, भ्रष्टचरित्र, स्वार्थी एवं ब्रह्मत्त्व से रहित गुरूओं की बाढ़ सी आई हुई है। शिष्य का कानफूँक कर कुछ उलटा सीधा मंत्र बता देना और फिर सदा उनसे दक्षिणा की याचना करते रहना, यही गुरूओं का कार्य रह गया है। इसके अतिरिक्त कभी- कभी तो इन लोगों द्वारा शिष्यों के साथ भयंकर विश्वासघात- अपहरण भ्रम में डाल देना, चरित्र नाश आदि अनेक कुकर्म भी होते देखे जाते हैं, ऐसी दशा में इन गुरूनाम धारियों के प्रति अविश्वास घृणा एवं तिरस्कार के भाव जन साधारण के मन में फैलना स्वाभाविक है। इतना होते हुए भी शिक्षक की आवश्यकता कम नहीं हो जाती है। वनस्पति घी दुकानों में पटा पड़ा है, गांवों की झोपड़ियों तक उसका प्रवेश हो गया है तो भी असली घी के महत्त्व में कुछ कमी नहीं आई है। नकली सोने के जेवर और नकली जवाहरात प्रचुर परिमाण में बाजार में मौजूद हैं इस पर भी असली सोने और असली जवाहरात का गौरव तनिक भी नहीं घटता। आज का घृणित गुरूडम सर्वथा तिरस्कार का पात्र है, इस पर भी आत्मोन्नति के लिए सच्चे शिक्षकों की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता। उनकी जैसी आवश्यकता प्राचीन काल में थी वैसी ही आज भी है।

एक आत्मा की शक्ति से दूसरी आत्मा को आत्मबल प्राप्त होता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए गायत्री के साधकों को अपनी पीठ पर एक बलवान रक्षक और सामर्थ्यवान पोषक की नियुक्ति करनी होती है ।। यह दृढ़पुरूष अथवा शिक्षक कहलाता है। इसे नियुक्त करने से पूर्व उसके ज्ञान आचरण और व्यक्ति गत अनुभव को देख लेना आवश्यक है। जिसमें यह तीनों बातें उचित मात्रा में हों उसे ‘आचार्य’ कहते हैं। परीक्षा करके सन्तोष प्राप्त कर लेने के उपरान्त इस आचार्य को निष्कपट भाव से श्रद्धा और विश्वासपूर्वक अपना पथ प्रदर्शक मान लेना चाहिए। यदि वह गलत पथ प्रदर्शन करता हो तो भी साधना विषय में उसी की बात को प्रामाणिक मानना चाहिए। गलत पथ प्रदर्शन का दोष और दुष्परिणाम उस शिक्षक पर ही पड़ता है, शिष्य पर नहीं।

श्रद्धा और विश्वास के आधार पर अध्यात्म विज्ञान का सारा महल खड़ा हुआ है। यदि इन दो आधार शिलाओं को हटा दिया जाय तो यह सारी इमारत गिर पड़ेगी। इन दोनों महातत्वों को सुदृढ़ बनाकर ही किसी महान कार्य में लगााया जा सकता है और उसके द्वारा अलौकिक लाभों को प्राप्त किया जा सकता है। इस श्रद्धा और विश्वास की स्थापना और परिपुष्टि का प्रारम्भिक अभ्यास ‘गुरू’ नामधारी व्यक्ति से किया जाता है, क्योंकि अप्रत्यक्ष तत्वों  पर श्रद्धारोपण करने की अपेक्षा प्रत्यक्ष व्यक्तियों पर भक्तिभाव सुगम है। इस पहली सीढ़ी पर मजबूती से पैर जमा लेने के उपरान्त ऊपर की सीढ़ियों पर चढ़ना अधिक सुगम होता है। जितनी अधिक आत्मीयता, श्रद्धा, निष्कपटता, भक्ति भावना, इस ‘शिक्षक’ के प्रति साधक की होती है, उतना ही उसका कार्य अधिक सरल हो जाता है। गुरू के ऊपर फेंकी हुई श्रद्धा उसी तरह लौट कर शिष्य के पास आ जाती है, जिस प्रकार सामने की दीवार पर रबड़ की गेंद जितने जोर से खींच कर मारी जाती है, उतने ही प्रतिघात के साथ लौटकर वापिस आती है। इस श्रद्धा से गुरू को कितना लाभ होता है, इस का हिसाब रखना आसान है, पर शिष्य को अपार लाभ होता है उसकी गणना नहीं हो सकती।

कई बार ऐसी कठिनाई, सामने आती है कि ऐसे श्रेष्ठ, ज्ञान, आचरण और अनुभव से युक्त आचार्य हर स्थान पर नहीं होते, साधक का उनके पास सुदूर स्थानों में जाकर रहना कठिन होता है। ऐसी स्थिति में क्या किया जाय? क्या उन्हीं लठ, गवार, धूर्तराजों से कान फुँकवा कर काम चलाया जाय? नहीं ! ऐसी अनुपयुक्त विलक्षणता को गले में बांध लेने से कुछ लाभ न होगा। ऐसी स्थिति के लिए एक दूसरा मार्ग ‘आपत्ति धर्म’ की तरह शास्त्राकारों ने बताया है वह यह कि नारियल के पवित्र फल को वरण करके आचार्य के आसन पर, स्थान पर- स्थापित करे। अपनी श्रद्धा ही प्रधान है। इस श्रद्धा का आरोपण जिस वस्तु पर किया जाता है वह सजीव जैसा फल प्राप्त करने वाली बन जाती है।

एकलव्य भील की कथा प्रसिद्ध है। वन में शिकार के लिए पाण्डव गये, तो उनके कुत्ते के होठों को किसी अज्ञात व्यक्ति न वाणों से सी दिया। कुत्ता पाण्डवों के पास लौटा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि हमसे भी अधिक ऐसा कौन वाणविद्या का ज्ञाता है, जिसने इस प्रकार से तीर चलाना सीखा है केवल होठों को ही सी दिया जाय मुँह में अन्यत्र चोट न लगे। पाण्डव रक्त की बूँदों के टपकने की खोज पर उस व्यक्ति के पास जा पहुँचे। वह भील था। उससे पूछा गया तुमने ऐसी शस्त्र विद्या किससे सीखी। उसने बताया, द्रोणाचार्य से। पाण्डव अपने गुरू द्रोणाचार्य पर बड़े कुपित हुए कि उनने उन्हें ऐसी विद्या न सिखा कर एक भील को सिखाई, द्रोणाचार्य को स्वयं बड़ा आश्चर्य हुआ, वे वहाँ गये और एकलव्य से पूछा, भाई तू कैसा हमारा शिष्य ? हमने तो तुझे देखा तक नहीं । उसने उत्तर दिया- भगवान् आपकी मिट्टी की प्रतिमा बनाकर उसी को मैंने गुरू माना और उसी की संरक्षकता में स्वयमेव बाण विद्या सीखी। पांडवों के आग्रह पर द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरूदक्षिणा में दाहिने हाथ का अंगूठा मांगा जो उसने खुशी- खुशी काट कर दे दिया।

यह कथा बताती है कि मिट्टी के बनाये हुए गुरू इतनी अधिक शिक्षा दे सकते हैं, जितने सचमुच के गुरू नहीं दे सकते। स्वामी रामानंद के अनेकों शिष्यों में से इतना ज्ञानी कोई नही हुआ था जितने की- कबीर। कबीर जुलाहे थे जुलाहे को शिष्य बनाने के लिए रामानंद जी तैयार न हुए। एक दिन कबीर उस रास्ते पर जा लेटे, जहाँ होकर रामानंदजी गंगास्नान को प्रातःकाल जाया करते थे। स्वामी जी का पैर कबीर की छाती पर पड़ा, वे ‘राम राम’ कहते हुए पीछे हट गये। कबीर ने उस चरण- स्पर्श को दीक्षा और राम- राम की गुरू- मंत्र मान लिया और इतने मात्र से उन्होंने वह लाभ उठाया, जो अन्य किसी शिष्य को न मिला। महर्षि दत्तात्रेय के २४ गुरू थे। यह सब पशु- पक्षी थे, कौआ, कुत्ता, चील, मकड़ी, चींटी आदि से स्वयमेव शिक्षा- ग्रहण करके उन्हें अपना गुरू माना था और इतना बड़ा ज्ञान भंडार एकत्रित किया था, जितना कि बड़े- बड़े ब्रह्मज्ञानी, वेदशास्त्रों का पाठ करके भी एकत्रित नहीं कर पाते।

काष्ठ और पाषाण की मूर्तियाँ अपने भक्तों के लिए ईश्वर बन जाती हैं। ईश्वर के समान फल देती हैं, फिर कोई कारण नहीं कि आचार्य भाव से वरण किया हुआ नारियल आचार्य का फल प्रदान न करे। श्रद्धा ही प्रधान है। श्रद्धा की प्राण प्रतिष्ठा कर देने से निर्जीव वस्तुऐं सजीव हो सकती हैं। आचार्य के अभाव में नारियल को मरूभाव से वरण किया जा सकता है पर उसमें किसी चैतन्य दिव्य आत्मा की भावना करनी आवश्यक है। किसी ऐसे व्यक्ति को मन में गुरू- भाव से स्वीकार किया सकता है जो समीप न हो किन्तु उसके ज्ञान, आचरण और अनुभव में अपना विश्वास हो उसका प्रतीक इस नारियल को उसी प्रकार बनाया जा सकता है, जैसे कि भगवान का प्रतीक मूर्ति को बना लिया जाता है। फलों में नारियल का फल अधिक सात्विक, अधिक सजीव, अधिक प्राणयुक्त है। मनुष्य की खोपड़ी से बहुत कुछ सूक्ष्म समता उसमें होने से उसे खोपड़ा या खोपरा कहकर भी पुकारते हैं। हमारे सिर पर जैसे बाल है उसके ऊपर भी जटायें होती हैं। जटा के नीचे आंखों के छेद और नासिका का चिन्ह मिलता है। खोपड़ी के बाहरी अस्थि आवरण के भीतर जैसे भूरा कोमल, स्निग्ध मस्तिष्क रहता है वैसे ही उसके भीतर भी गिरी रहती है। यश में, बलिदान में, दान में, भेंट में, हर पुनीत कार्य में नारियल का फल श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि वह वृक्ष जगत में एक सर्व श्रेष्ठ, चैतन्य एवं सात्विक फल है, उसकी बहुत कुछ समता हमारे मस्तिष्क से है। वह सूक्ष्म भावनाओं को अपने में धारण करने की अद्भुत क्षमता रखता है। जैसी भावनाओं से ओत- प्रोत उसे किया जाता है, वह उन्हें आसानी से अपने में धारण कर लेता है। अपनी कोई भावना किसी को भेंट करनी होती है, तो उसे नारियल के साथ अभिमंत्रित करके भेंट करते हैं। वह भावना नारियल के साथ- साथ बहुत समय तक बनी रहती है। इस सब बातों को देखते हुए गुरूभाव से वरण करने के लिए नारियल का फल ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

जिस आचार्य को गुरू वरण किया जाय, उसका प्रतीक नारियल को बनाकर उत्तम आसन पर स्थापित कर लेना चाहिए। यह नारियल सड़ा- घुना न हो नया, चैतन्य और बड़ा हो। उसे शुद्ध जल में स्नान कराके, कलावा- शुद्ध सूत- चारों ओर लपेट कर वरण करना चाहिए और भक्ति भाव से प्रणाम करके उसे उत्तम, पूजा योग्य स्थान पर स्थापित कर देना चाहिए। यदि उस निर्धारित गुरू का चित्र मिल सके, तो वह भी नारियल के साथ स्थापित करना चाहिए। उस पर नित्य अक्षत, पुष्प, धूप, चंदन आदि मांगलिक द्रव्य चढ़ाकर अपनी भक्ति भावना जाग्रत करनी चाहिए। कोई बात गुरू से पूछनी हो, तो चित्त को स्वस्थ और शान्त करके ध्यानावस्थित हो और निर्धारित गुरू की सूक्ष्म प्रतिमा का दिव्य नेत्रों से चिह्नांकित करें। अपने प्रश्न को उनके सामने रखकर चित्त को बिलकुल खाली कर दें। कुछ समय में अपने आप अन्दर एक उत्तर सूझ पड़ेगा। यह स्फूरणा गुरू का मानकर तदनुसार कार्य करना चाहिए। साधक को अपनी सफलता के लिए आचार्य का वरण आवश्यक है । यदि ऐसा श्रेष्ठ व्यक्ति समीप में न मिले तो किसी दूरस्थ सत्पुरूष को नारियल के माध्यम से गुरू वरण किया जा सकता है। पहले गुरू दीक्षा ली जा चुकी है या नहीं, इससे साधन- दीक्षा का कोई सम्बन्ध नहीं। एक व्यक्ति के कई गुरू हो सकते हैं। दत्तात्रेय के २४ गुरू थे। अब भी दीक्षागुरू, तीर्थगुरू, शिक्षागुरू, संगीत गुरू, शिल्प गुरू, कुलगुरू, आदि अनेक गुरू होते हैं। यदि कान फूँकने की रस्म अदा कराई जा चुकी हो, तो भी आत्म साधना के लिए गायत्री उपासना के लिए एक ‘‘साधना गुरू’’ का प्रथक् से वरण किया जा सकता है। इस वरण से साधना की सफलता में बड़ी सहायता मिलती है।


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