सृष्टि का आरम्भ करते हुए परमात्मा ने अपने भीतर बसे शक्ति तत्व प्रादुर्भूत किया और सृष्टि संचालन की सारी व्यवस्था उसे सौंप कर स्वयं निश्चिन्त हो गया। इस प्रकार वह ब्रह्म निर्लिप्त, निरघिष्ट, निरवद्य एवं अव्यय बना रहा और संसार का सारा कार्य उस प्रादुर्भूत तत्व के द्वारा संचालित होने लगता है। इस रहस्य का उद्घाटन निम्न प्रमाणों से मिलता है।
देवीह्येकाऽग्र आसीत् ।। सैव जगदण्डमसृजत ......तस्या एव ब्रह्मा अजोजनत् ।। विष्णुरजी जनत्...... सर्वमजी जनत् ........ सेषा पराशक्तिः ।।
सृष्टि के आरम्भ में वह एक ही देवी शक्ति थी। उसी ने ब्रह्माण्ड बनाया। उसी से ब्रह्मा उपजे। उसी ने विष्णु, रूद्र उत्पन्न किये । सब कुछ उसी से उत्पन्न हुआ। ऐसी है वह पराशक्ति।
निर्दोषो निरधिष्ठेयो निरवद्यसनातनः ।।
सर्वकार्यकरी साहं विष्णोरव्यय विरूपिणः ॥
-लक्ष्मी तन्त्र
वह ब्रह्म तो निर्दोष, निरधिष्ठ, निरवद्य, सनातन अव्यय है। उनकी सर्वकारिणी शक्ति तो मैं ही हूँ।
इस महाशक्ति की सर्वव्यापकता का, सभी पदार्थों का, अधिष्ठात्री विभूति एवं सभी हलचल की मूल प्रेरिका होने का वर्णन अनेक ग्रन्थों में मिलता है। देखिये-
त्वं भूमि सर्व भूतानां प्राणः प्राणवतां तथा ।।
धीः श्रीः कान्तिः क्षमा शान्ति श्रद्धा मेधा धृतिः स्मृतिः
त्वं मुद्गीथेऽर्धं मात्रासि गायत्री व्याहृति स्तथा ।।
-देवी० भा० १- ५
तुम्हीं सब प्राणियों को धारण करने वाली भूमि हो। प्राणवानों में प्राण हो। तुम्हीं धी, श्री, कान्ति, क्षमा, शान्ति, श्रद्धा, मेधा, धृति, स्मृति हो। तुम ही ओंकार की अर्धयात्रा उद्गीथ हो, तुम ही गायत्री व्याहृति हो।
पूषार्यमा मरूत्वंश्च ऋषयोऽपि मुनीश्वराः ।।
पितरोनागयक्षश्च गनधर्वाप्सरसा गणाः ॥
ऋग्यजु सामवेदाश्च अथर्वाङि गरसानि च ।।
त्वमेव पञ्च भूतानि तत्त्वानि जगदीश्वरि ।।
ब्राह्मी सरस्वती सन्ध्या तुरीया त्वं महेश्वरी ।।
त्वमेव सर्वं शास्त्राणि त्वमेव सर्वं संहिता ।।
पुराणानि च तन्त्राणि महगम मतानि च ॥
तस्मद् ब्रह्म स्वरूपा त्वं किञ्चत्सद सदात्मिका ।।
परात्परेशी गायत्री नमस्ते मातराम्बिके ॥
-वशिष्ठ संहिता
पूषा, अर्यमा,मरूत, ऋषि, मुनीश्वर, पितर, नाग, यक्ष, गन्धर्व, अप्सरा, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, अंगिरस, पंचभूत, ब्राह्मी, सरस्वती एवं सन्ध्या, हे महेश्वरि तुम ही हो। सर्वशास्त्र, संहिता, पुराण, तन्त्र, आगम, निगम, तथा और भी जो कुछ इस संसार में है, सो हे ब्रह्मरूपिणी, पराशक्ति गायत्री ।। तुम ही हो ।। हे माता! तुम्हें प्रणाम है ।।
आदित्य देवा गन्धर्वा मनुष्याः पितरो सुराः तेषां सर्व भूतानां माता मेदिनी माता मही सावित्री गायत्रीजगत्युर्वी बहुला विद्या भूता।
-नारायणोपनिषद्
अर्थात्- देव, गन्धर्व, मनुष्य, पितर, असुर, इनका मूल कारण अदिति अविनाशी तत्व है। वह अदिति सब भूतों की माता मेदिनी और माता मही है। उसी विशाल गायत्री के गर्भ में विश्व के सम्पूर्ण प्राणी निवास करते हैं।
परमात्मास्तु या लोके ब्रह्मशक्ति विराजते ।।
सूक्ष्मा च सात्विकी चैव गायत्री त्यमिधीयते ॥
अर्थात् सब लोकों में विद्यमान जो सर्वव्यापक परमात्मा की शक्ति है, वह अत्यन्त सूक्ष्म एवं सतोगुणी प्रकृति में निवास करती है। यह चेतन शक्ति गायत्री ही है।
अहं रूद्रेभिर्वभिञ्चराम्यहमादित्यरूत विश्वेदेवैः ।।
अहं मित्रावरूणोभाविभिर्ग्य हिमिन्द्राग्नी अहिमश्वि नोभा ।।
-ऋग्वेद ८/७/११
मैं ही रूद्र, वसु, आदित्य और विश्वेदेवताओं में विचरण करती हूँ। मैं भी मित्र, वरूण, इन्द्र, अग्नि और अश्विनी कुमारों का रूप धारण करती हूँ।
मया से अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ई श्रृणो त्युक्म्। अमन्त वो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रम श्रद्धि व ते वदामि ।।
यह विश्व मुझसे ही जीवित है। मेरे द्वारा ही उसे अन्न मिलता है। मेरी शक्ति से ही वह बोलता और सुनता है। जो मेरी उपेक्षा करता है, वह नष्ट हो जाता है। श्रद्धावानों, सुनो! यह सब मैं तुम्हारे कल्याण के लिए कहती हूँ।