आध्यात्मिक जगत में गुरू का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। जन्म देने वाली माता और पालन करने वाले पिता के पश्चात् सुसंस्कृत बनाने वाले गुरू का ही स्थान है। भारतीय समाज में ‘‘निगुरा’’ एक गाली समझी जाती है। जिसका गुरू नहीं उसे असंस्कृत, अविकसित माना जाता है। कारण यह है कि गुरू के बिना मनोभूमि का ठीक प्रकार निर्माण नहीं हो पाता। माता- पिता कितने ही सुशिक्षित क्यों न हों, पर वे अपने बालकों का उचित निर्माण करने में समर्थ नहीं होते। उन्हें अपने बालकों के प्रति स्वाभाविक मोह, पक्षपात, स्नेह होता है, इस अति के कारण बालक के प्रति उनकी निष्पक्षदृष्टि नहीं रहती, वे उसे ठीक प्रकार समझ नहीं पाते, या समझने की स्थिति में नहीं होते। बच्चा तुतला कर बोल रहा हो तो माता- पिता को बड़ा अच्छा लगता है, वे स्वयं भी उसके साथ वैसी ही तोतली बोली में बात करने लगते हैं और चाहते हैं कि बालक बार- बार उसी प्रकार की तोतली बोली बोले। अपने बालक को इस प्रकार बोलते देख कर उन्हें बड़ा आनन्द आता है।
ऐसे अवसरों पर गुरू का दृष्टिकोण दूसरा होता है। वह देखता है इस प्रकार बोलने से बालक की आदत पड़ सकती है और वह आगे के लिए तुतलेपन की बीमारी से ग्रस्त हो सकता है। अतएव गुरू उस प्रकार के मोह ग्रस्त लाड़चाव के कारण, दुलार, स्नेह और असाधारण प्रेम के कारण माता- पिता न तो बालकों पर नियंत्रण कर सकते हैं और न उनकी आन्तरिक स्थिति की वास्तविकता को समझ पाते हैं, ऐसी दशा में उनके हाथ से बच्चों का अच्छा निर्माण नहीं हो पाता, इस कार्य को तो निष्पक्ष, निस्वार्थ, मोह- ममता से रहित, दूरदर्शी, सच्चा, स्थायी हित चाहने वाले ज्ञानवृद्ध गुरू ही कर सकते हैं। यही कारण है कि भारतीय अपने बालकों को थोड़ा सा समर्थ होते ही गुरूकुलों में भेज देते थे और वहाँ उनका निर्माण होता था।
ज्ञान के दो अंग हैं एक- सिद्धान्त (थ्योरी) दूसरा अनुभव (प्रैक्टिस)। केवल सिद्धान्त समझने मात्र से कोई ज्ञान पूर्ण नहीं हो सकता। चिकित्सा, शिल्प, रसायन, संगीत, चित्रकारी, शविद्या, यंत्र- संचालन, विज्ञान आदि की शिक्षा यदि केवल पुस्तक रूप से प्राप्त हो, तो निश्चित रूप से अधूरी रहेगी। जिसने कपड़ा बुनने की कला को केवल सिद्धान्त रूप में समझा है, पर करघा, सूत बुनाई आदि का क्रियात्मक रूप से व्यवहार नहीं किया है, वह कपड़ा नहीं बुन सकता। इसी प्रकार जीवन की अगणित समस्याएँ, जिनका ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है, केवल स्कूल कॉलेजों की तोता रटंत से न तो समझी जा सकती है और न उनका हल मालूम होता है। इसलिए किसी भी विषय की शिक्षा प्राप्त करनी होती है, तो उस विषय के अनुभवी द्वारा उस विषय का क्रियात्मक ज्ञान प्राप्त किया जात है, तभी सर्वांगपूर्ण शिक्षा मिल पाती है।
अध्यात्म साधना के लिए तो अनुभव पूर्ण शिक्षा की अत्यधिक आवश्यकता है। क्योंकि प्रत्येक साधक की मनोभूमि, स्वास्थ्य, एवं परिस्थतियों में भिन्नता होती है। इस भिन्नता के कारण उनकी साधनाओं में अन्तर करने की आवश्यकता पड़ती है। किसी के लिए कोई विधि व्यवस्था उपयोगी बैठती है, तो किसी के लिए उसमें हेर- फेर करना जरूरी होता है। इन बातों की साधक स्वयं नहीं जान सकता । स्कूल में जाने वाले बच्चे यह निर्णय करने में समर्थ नहीं होते कि हमें कौन पुस्तकें, किस क्रम में पढ़नी चाहिए यदि वे अपने आप, अपनी इच्छा से, मन मर्जी का पाठ्यक्रम चुनें और स्वयं अपनी शिक्षा- विधि निर्धारित करें, तो उनके लिए सफलता प्राप्त करना कठिन होगा, वे समय और शक्ति का दुरुपयोग करेंगे और उस लाभ से वंचित रहेंगे जो गुरू की मर्जी के अनुसार पढ़ने से उन्हें प्राप्त हो सकता था।
साधना- काल में कई बार कुछ विक्षेप उत्पन्न हो जाते हैं, उन विक्षेपों के भूलों के सुधार के लिए उपाय जानने की आवश्यकता होती है, कई बार विचित्र अनुभव आते हैं, उनका कारण समझने की जरूरत पड़ती है, बीच बीच में परीक्षा करने की आवश्यकता अनुभव होती है जिससे यह मालूम पड़ता रहे कि साधना की प्रगति किस दिशा में किस गति से हो रही है। यों कोई भी रोगी किसी चिकित्सा पुस्तक को लेकर अपनी दवा- दारू कर सकता है, पर इस उपाय से अभीष्ट लाभ प्राप्त होगा ही, यह नहीं कहा जा सकता। इसलिए किसी चतुर वैद्य के हाथ में चिकित्सा का उत्तरदायित्व सौंपना होता है। वैद्य देखता है कि रोगी को क्या रोग है, उसके लिए क्या चिकित्सा अच्छी पड़ेगी, इस निर्णय के लिए वह अपने चिर अनुभव को काम में लाता है और औषधि व्यवस्था करता है, फिर देखता है कि औषधि का क्या असर हो रहा है, उसके अनुसार हेर- फेर करता है। मूत्र परीक्षा, जिह्वा परीक्षा, नाड़ी परीक्षा, वजन, थर्मामीटर, स्टेस्थेस्कोप आदि द्वारा यह जाँचता है कि कितनी प्रगति हो रही है, उस प्रगति को सन्तुलित रखने के लिए वह रोगी को आवश्यक सलाह, पथ्य, परिचर्या आदि का आदेश करता रहता है। आध्यात्मिक साधना में साधक के लिए गुरू वही कार्य करता है जो रोगी के लिए वैद्य करता है।
आध्यात्मिक मार्ग में आगे बढ़ने के लिए सब से प्रथम श्रद्धा और विश्वास को दृढ़ करने की आवश्यकता होती है। जैसे यात्रा के लिए दो पैरों का ठीक होना आवश्यक है, तैरने के लिए हाथों की जरूरत है, वैसे ही योग- मार्ग के लिए श्रद्धा और विश्वास दो मूलभूत तत्व हैं। इनके बिना इस मार्ग पर एक इंच भी प्रगति नहीं हो सकती। इन दोनों तत्वों को सबल बनाने के लिए उनका अभ्यास किसी ऐसे आधार पर करना होता है जो श्रेष्ठ हो, लाभदायक हो, प्राज्ञ हो, तथा प्रत्युत्तर देता हो। ऐसा आधार गुरू ही हो सकता है। सूक्ष्म, निराकार, अप्रत्यक्ष, ईश्वर या उसकी शक्तियों पर दृढ़ आस्था आरोपित करने से पूर्व श्रद्धा विश्वास को स्थूल आधार पर आरोपित करके उन्हें पुष्ट बनाया जाता है। गुरू के ऊपर आरोपित की हुई श्रद्धा- थोड़े ही समय में परिपक्व होकर ईश्वरीय निष्ठा के रूप में परिवर्तित हो जाती है। जैसे छोटी तीर- कमान पर अभ्यास करते- करते योद्धा लोग प्रचंड धनुष बाणों का प्रयोग करने में समर्थ हो जाते हैं, वैसे ही गुरूभक्ति का अभ्यास, स्वल्प काल में ईश्वर भक्ति के रूप में परिणत हो जाता है।
गुरू स्थापना के प्रत्यक्ष लाभ तो स्पष्ट हैं ही। यह एक प्रकार का आध्यात्मिक विवाह है। जिसमें दो व्यक्ति एक पवित्र उत्तरदायित्व को ओढ़ते हैं। गुरू अपने ऊपर उत्तरदायित्व लेता है कि शिष्य की आत्मा को ऊँचा उठाने में कोई कसर न रखूंगा। शिष्य अपने ऊपर उत्तरदायित्व लेता है, कि गुरू के प्रति अगाध श्रद्धा रखता हुआ उनके आदेश को शिरोधार्य करूंगा। विवाह और दीक्षा में यद्यपि भौतिक दृष्टि से बहुत अन्तर है पर आध्यात्मिक दृष्टि से उसमें विशेष अन्तर नहीं है। दो आत्माएँ जीवन भर के लिए पूरी ईमानदारी से एक दूसरे की उन्नति और सहायता का व्रत लेती हैं, यही दीक्षा कहलाती है। पति- पत्नी की इस प्रतिज्ञा को विवाह, और गुरू शिष्य की प्रतिज्ञा को दीक्षा, मित्र- मित्र की प्रतिज्ञा को मैत्री या ‘‘पगड़ी पलटना’’ कहते हैं ।। इस प्रकार के व्रत बन्ध के पश्चात् अधिक जिम्मेदारी से कर्तव्य पालन के भाव दृढ़ होते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि शिष्य के पाप का दसवाँ भाग, गुरू को भी मिलता है। कारण स्पष्ट है कि शिष्य के निर्माण में गुरू का भारी उत्तरदायित्व उन कार्यों में उसे भागीदार बना देता है।
गायत्री साधना के लिए गुरू की आवश्यकता होती है। इस कार्य के लिए ब्रह्मनिष्ठ आत्मदर्शी, का वरण करना चाहिए। कोई श्रेष्ठ, अनुभवी, आत्मिकदृष्टि वाले सदाचारी व्यक्ति अपने समीप न हों तो दूरस्थ व्यक्तियों से भी यह हो सकता है। शरीर दूर- दूर रहते हुए भी आत्माओं के लिए दूरी का कोई प्रश्न नहीं। दूरस्थ आत्माएँ उसी प्रकार एक दूसरे की समीपता कर सकती हैं जिस प्रकार पास- पास रहते हुए दो व्यक्ति आपस में निकटता अनुभव करते हैं। यदि ऐसी, दूरस्थ गुरू की भी व्यवस्था न हो सके, तो किसी स्वर्गीय महापुरुष की, आत्मा को गुरू वरण किया जा सकता है। एकलव्य, कबीर आदि ने दूरस्थ व्यक्तियों को गुरुवरण करके अपने आप दीक्षा ले ली थी। इस प्रकार के दूरस्थ या स्वर्गस्थ गुरुओं के बारे में शिष्य को ऐसा भाव मन मंष धारण करना पड़ता है, कि वे अपने समीप हैं, प्रसन्न हैं और गुरू के समस्त उत्तरदायित्वों को पूरा कर रहे हैं।
दीक्षा के समय गुरू- शिष्य को एक प्रधान विचार देते हैं। यह विचार- मंत्र कहलाता है। मंत्रों में सर्वश्रेष्ठ सर्वोपरि मंत्र गायत्री है, क्योंकि इसमें ज्ञान, सांसारिक ज्ञान, विज्ञान, आध्यात्मिक ज्ञान इस प्रकार भरा हुआ है, जैसे बिन्दु में सिन्धु ।। जल की एक बूंद में वे सब तत्व मौजूद होते हैं, जो समुद्र की विशाल जल राशि में होते हैं। बीज में वृक्ष का सम्पूर्ण आधार छिपा होता है, वीर्य की एक बूंद में सारे शरीर का ढांचा सन्निहित रहता है। गायत्री मंत्र २४ अक्षर का है, पर इसके गर्भ में ज्ञान- विज्ञान के अनन्त भाण्डागार छिपे पड़े हैं। इससे बड़ा कोई मंत्र नहीं, इसलिए इस वेदमाता को गुरुमंत्र के रूप में अन्तराल में धारण करना अधिक मंगल मय होता है। दीक्षा और गुरू मंत्र ग्रहण करने की विधि के साथ आरम्भ की हुई गायत्री उपासना विशेष फलवती होती है, ऐसा शास्त्र का मत है।