गायत्री सर्वतोन्मुखी समर्थता की अधिष्ठात्री

इन साधनाओं में अनिष्ट का कोई भय नहीं

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मन्त्रों की साधना की एक विशेष विधि व्यवस्था होती है। नित्य साधना- पद्धति से निर्धारित कर्मकाण्ड के अनुसार मन्त्रों का अनुष्ठान, साधन, पुरश्चरण करना होता है। आमतौर से अविधिपूर्वक किया हुआ अनुष्ठान, साधक के लिए हानिकारक सिद्ध होता है और लाभ के स्थान पर उससे अनिष्ट की सम्भावना रहती है।

ऐसे कितने ही उदाहरण मिलते हैं कि किसी व्यक्ति ने किसी मन्त्र की या देवता की साधना की अथवा कोई योगाभ्यास या तांत्रिक अनुष्ठान किया। साधना की नियत रीति में कोई भूल हो गई या किसी प्रकार अनुष्ठान खण्डित हो गया तो उसके कारण साधक को भारी विपत्ति में पड़ना पड़ता है, कई आदमी तो पागल तक होते देखे गये हैं। कई को रोग, मृत्यु, धन- नाश आदि का अनिष्ट सहना पड़ा है। ऐसे प्रमाण इतिहास पुराणों में भी हैं। वृत्त और इन्द्र की कथा इसी प्रकार की है, वेद मन्त्रों का अशुद्ध उच्चारण करने पर उन्हें घातक संकट सहना पड़ा था ।।

अन्य वेदमन्त्रों की भांति गायत्री का भी शुद्ध सस्वर उच्चारण होना और विधि पूर्वक साधन होना उचित है। विधि पूर्वक किये हुए साधन सदा शीघ्र सिद्ध होते हैं और उत्तम परिणाम उपस्थित करते हैं, इतना होते हुए भी वेदमाता गायत्री में एक विशेषता है कि कोई भूल होने पर उसका हानिकारक फल नहीं होता। जिस प्रकार दयालु, स्वस्थ और बुद्धिमान माता अपने बालकों को सदा हित चिन्तना ही करती है, उसी प्रकार गायत्री शक्ति द्वारा भी साधक का हित ही सम्पादन होता है। माता के प्रत बालक गलतियाँ भी करते रहते हैं, उसके सम्मान एवं पूज्य भाव में बालक से त्रुटि भी रह जाती है और कई बार तो वे उल्टा आचरण कर बैठते हैं, इतने पर भी माता न तो उनके प्रति दुर्भाव मन में लाती है और न उन्हें किसी प्रकार की हानि पहुँचाती है। जब साधारण माताएँ इतनी दयालुता और क्षमा प्रदर्शित करती हैं तो जगत् जननी, वेदमाता, सतोगुण, की दिव्य सुरसरी, गायत्री से तो और भी अधिक आशा रखी जा सकती है वह अपने बालकों की अपने प्रति श्रद्धा भावना को देखकर प्रभावित हो जाती है, बालक की भक्ति- भावना को देखकर माता का हृदय उमड़ पड़ता है। उसके वात्सल्य की अमृत निर्झरिणी फूट पड़ती है, जिसके दिव्य प्रवाह में साधना की छोटी- मोटी भूलें कर्मकाण्ड में अज्ञानवश हुई त्रुटियाँ तिनके के समान बह जाती हैं।


सतोगुणी साधन का विपरीत फल न होने का विश्वास भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में दिखाया है-
‘‘नैहाभिक्रम नाशोस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतोभयात ॥’’

अर्थात्- सत् कार्य के आरम्भ का नाश नहीं होता- वह गिरता- पड़ता आगे ही बढ़ता चलता है। उससे उल्टा फल कभी नहीं निकलता। ऐसा कभी नहीं होता कि सत् इच्छा से किया हुआ कार्य असत् हो जाय और उसका अशुभ परिणाम निकले। थोड़ा सा भी धर्म- कार्य, बड़े भयों से रक्षा करता है।

गायत्री साधना ऐसा ही सात्विक सत्कर्म है। जिसे एक बार आरम्भ कर दिया जाय तो मन की प्रवृत्तियाँ उस ओर अवश्य ही आकर्षित होती हैं और बीच में किसी प्रकार छूट जाय तो फिर भी समय २ पर बार- बार उस साधन को पुनः आरम्भ करने की इच्छा उठती रहती है। किसी स्वादिष्ट पदार्थ का एक बार स्वाद मिल जाता है, तो बार- बार उसे प्राप्त करने की इच्छा हुआ करती है। गायत्री ऐसा ही अमृतोपम स्वादिष्ट आध्यात्मिक आहार है, जिसे प्राप्त करने के लिये आत्मा बार- बार मचलती है, बार- बार चीख पुकार करती है। उसकी साधना में कोई भूल रह जाय तो भी उल्टा परिणाम नहीं निकलता, किसी विपत्ति, संकट या अनिष्ट का सामना नहीं करना पड़ता। भूलों की त्रुटियों का परिणाम यह हो सकता है कि आशा से कम फल मिले या अधिक से अधिक यह कि वह निष्फल चला जाय। इस साधना को किसी भी थोड़े से भी रूप में आरम्भ कर देने से उसका फल हर दृष्टि से उत्तम होता है।

उस फल के कारण भयों से मुक्ति मिल जाती है, जो अन्य उपायों से बड़ी कठिनाई से हटाई जा सकती है।इन सब बातों पर विचार करते हुए साधकों को निर्भय, मन, झिझक, आशंका एवं भय को छोड़कर गायत्री की उपासना करनी चाहिए। यह साधारण मन्त्र नहीं है, जिसके लिए नियम भूमिका बाँधे बिना काम न चले। मनुष्य यदि किन्हीं छुट्टल, बनचारी जीवों को पकड़ना चाहें तो इसके लिये चतुरता पूर्ण उपायों की आवश्यकता पड़ती है, परन्तु बछड़ा अपनी माँ को पकड़ना चाहे तो उसे मातृ- भावना से ‘मां’ पुकार देना मात्र काफी होता है, गौ माता खड़ी हो जाती है, वात्सल्य के साथ बछड़े को चाटने लगती है और उस अपने पयोधरों से दुग्धपान करने लगती है। आइये, हम भी वेदमाता को सच्चे अन्तःकरण से भक्ति- भावना के साथ पुकारें और इसके अन्तराल से निकला हुआ अमृत रस पान करें ।।

हमें शास्त्रीय साधना- पद्धति से उसकी साधना करने का शक्ति भर प्रयत्न करना चाहिए। अकारण भूल करने से क्या प्रयोजन? अपनी माता अनुचित व्यवहार को भी क्षमा कर देती है, पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि इनके प्रति श्रद्धा, भक्ति में कुछ ढील या उपेक्षा की जाय। जहाँ तक बन पड़े पूरी- पूरी सावधानी के साथ साधना करनी चाहिए, पर साथ ही इस आशंका को मन से निकाल देना चाहिए कि किंचित मात्र भूल हो गई तो बुरा होगा ।’ इस भय के कारण गायत्री साधना से वंचित रहने की आवश्यकता नहीं है। स्पष्ट ही है कि वेद माता अपने भक्तों की भक्ति- भावना का प्रधान रूप से ध्यान रखती है और अज्ञानवश हुई छोटी- मोटी भूल को क्षमा करती है।

हमारे व्यक्तिगत संरक्षण और मार्ग- दर्शन में लाखों उपासको ने अनेक गायत्री साधनाएँ और अनुष्ठान सम्पन्न किये हैं, उनसे कई बार ऐसी भूलें हुई कि वे अनिष्ट की सम्भावना से बहुत व्याकुल हो उठे, किन्तु अन्ततः उनकी साधनाओं का कुछ न कुछ लाभ ही मिला है और उससे हमारा विश्वास दृढ़ हो गया है कि गायत्री उपासनाओं से कभी किसी उपासक का अनिष्ट नहीं हो सकता भले ही अभीष्ट फल कुछ विलम्ब से मिले ।।

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