गायत्री उपासना का एक नाम ‘‘संध्या योग’’ भी है- ‘‘त्रिकाल संध्या’’
का तात्पर्य ही उस गायत्री उपासना से है जो प्रातःकाल सूर्योदय
के समय, सायंकाल जब सूर्य अपनी किरणें समेट कर प्रस्थान कर रहे
हों और मध्यान्ह अर्थात् सूर्य भगवान मेरूदण्ड के ठीक ऊपर आकाश में हों। इन तीन समयों के अतिरिक्त उपासना कभी भी की तो जा सकती है किन्तु वह संख्या नहीं कहलायेगी
अर्थात् गायत्री उपासना के मान्य सिद्धान्तों से पृथक् मानी
जायेगी ।। उस उपासना का लाभ न हो यह बात तो नहीं कही जा सकती
किन्तु रात और दिन की इन संधिवेलाओं
में गायत्री उपासना का जितना महत्त्व है उतना अन्य समय नहीं
।। गायत्री उपासना का संध्या नाम इसी तथ्य का बोध कराता है ।।
शरद काल की वृष्टि उछल- कूद वाली होती है, कभी यहाँ बरस गई,
कभी सौ मील दूर जाकर, किन्तु वर्षा ऋतु में समस्त भूमण्डल बादलों
से आच्छादित हो उठता है ।। उस समय की वृष्टि इतनी व्यापक होती
है कि स्वल्प श्रम से ही कोई भी व्यक्ति प्रचुर मात्रा में
जल एकत्र कर सकता है ।। वनस्पति विज्ञान का निष्कर्ष यह है कि
हर वनस्पति के फलने- फूलने का सुनिश्चित समय होता है वह इन्हीं
दिनों में फलती- फूलती है और वह ऋतु समाप्त होती है, तो उसका
फलना- फूलना बन्द हो जाता है। आम, आडू,
लीची, गर्मियों में ही फलते और वर्षा ऋतु में पकते हैं, किन्तु
ज्वार का समय क्वार- कार्तिक ही होता है। गेहूँ, जौ, चने का
उत्पादन शीतकाल में नहीं हो सकता, उस समय तो उनका बीजारोपण हो
सकता है पर वह पक कर तैयार माघ- फाल्गुन में ही होता है। गेहूँ
माघ- फाल्गुन में बोकर क्वार- कार्तिक में काटने की बात सोची
जाये तो सम्भव है किसी तरह पौधे उग आयें, वातावरण प्रदान कर कुछ
उत्पादन भी सम्भव है पर भरपूर फसल का लाभ लेना हो तो ऋतु
विज्ञान की कभी भी उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रत्येक
पदार्थ की एक सुनिश्चत तात्विक
संरचना होती है। प्रकृति में अनुकूल तत्व उपलब्ध होने की स्थिति
में ही प्राणी और पदार्थ बढ़ते और विकसित होते हैं। फूल- पौधे
यों वर्षा में भी रोपे जाते हैं वे फूल देते भी हैं किन्तु
बसन्त ऋतु में वे जिस गति से बढ़ते और पुष्पित, पल्लवित होते
हैं, उसे देखकर दर्शक का मन भी हर्षोल्लसित हो उठता है ।। ऋतुओं का सीधा सम्बन्ध तत्वों के उतार- चढ़ाव से है और तत्वों का न्यूनाधिक ही प्राणियों को प्रभावित करता है।
गायत्री उपासना को ‘‘ प्राण साधना’’ भी कहते हैं ।। ‘‘प्राणी और अग्नि’’ एक ही तत्व है। प्राण विज्ञान कुंडलिनी साधना को पंचाग्नि विद्या भी कहते हैं। प्रश्नोपनिषद में इसी तथ्य का प्रतिपादन इस प्रकार किया गया है-
स एष वैश्वानरो विश्वरूपः प्राणाऽग्नि रूदयते ।। तदेतदृचाभयुक्तम् ।।
अर्थात् - वह प्राण रूप सूर्य अपने तेज से सारे संसार को
प्राणवान् बनाता है। जीवन और अग्नि हो कर उदय होता है ।।
‘‘एषोऽग्निस्तपत्येस सूर्य’’
अर्थात् -यह प्राण ही अग्नि बनकर तप रहा है वही सूर्य है इन
सूक्तों में प्राण और अग्नि की एकरूपता प्रतिपादित की गई है ।।
प्रातःकाल, मध्यान्ह
और सायंकाल पृथ्वी पर सूर्य की रक्तवर्ण किरणें प्रचुर मात्रा
में पड़ती हैं ।। लाल रंग अग्नि अर्थात् प्राण का है, गायत्री
उपासना प्राणों की उपासना है। इन किरणों की उपस्थिति के कारण
सम्पूर्ण प्रकृति वनस्पति तथा प्राणि जगत में सर्वत्र व्यापक
उल्लास और उत्क्रान्ति का वातावरण छा जाता है। प्रातःकाल और
सायंकाल जब सूर्योदय और सूर्यास्त की लालिमा आकाश में छाई रहती
है, तब उतने समय सारे वातावरण में प्राणियों की चहचहाहट, उछल- कूद
का मनोरंजक वातावरण छा जाता है ।। पक्षियों का चहचहाना इसी समय
होता है। इन दोनों समय कोई भी पक्षी काम नहीं करते वरन् क्रीड़ा
मग्न हो उठतें हैं। उनके छोटे- छोटे बच्चे यद्यपि उड़ नहीं सकते तो भी वे कोटरों से झांक- झांक
कर अभिभावक पक्षियों की उछल कूद देख- देख कर प्रसन्न होते हैं।
जलाशयों की मछलियाँ इसी अवधि में उछल- कूद मचाती हैं, सारे
वातावरण में कलरव और चारूता छा जाती है। इस अवधि में सोते हुए प्राणी और मनुष्य बहुत ही कम मिलते हैं, जो मिलते हैं वे अत्यधिक तम- साच्छन्न,
बीमार रोगी, चिड़चिड़े, नपुंसक स्वभाव के ही मिलेंगे ।। प्राणों की
सक्रियता, जीवन की सरसता और सक्रियता के रूप में परिलक्षित होना
स्वाभाविक ही है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर विद्यालयों में
बच्चों के खेल- कूद का समय भी प्रातः- सायंकाल रखा गया होता है,
तो उसे ऋतु विज्ञान वेत्ताओं की सूझ- बूझ ही मानना चाहिए। उभरती
हुई शक्ति को यदि उल्लास या उत्क्रांति प्रयोजन में न लगाया जाय तो यही समय होता है, जब उसका बहाव ध्वंस या पतनोन्मुख प्रवृतियों में हो सकता है ।।
वनस्पति शास्त्रियों ने पेड़- पौधों के जो आंकड़े
प्रस्तुत किये हैं, उनसे भी यही पता चलता है कि पौधों का
सर्वाधिक विकास प्रातःकाल अथवा सायंकाल ही होता है। इससे यह
स्पष्ट होता है कि न केवल प्राणी अपितु प्रकृति भी इन ‘सन्धि स्थलों’
में अधिकतम बिखरी प्राण ऊर्जा का लाभ लेने में जुट जाती है।
यही समय मनुष्य के लिए भी प्राण अभिवर्द्धन के लिए सर्वाधिक
उपयुक्त हो सकता है। मनीषियों ने तत्वदर्शन की इस गहराई को भली- भांति समझा था ।। इसी कारण गायत्री उपासना का नाम संध्या और उसे दिन रात के इन संधि अवसरों, प्रातः सायं और मध्यान्ह करने का उपयुक्तता और महत्ता प्रतिपादित की थी ।।
स्पष्ट है कि जिस समय पृथ्वी पर प्राण शक्ति प्रचुर मात्रा
में विद्यमान हो, और उस कारण ही अन्तः चेतना की ग्रहणशीलता सजग
हो रही हो उस समय अवधारण का अधिक से अधिक लाभ लिया जा सकता
है। इसके बाद तो प्रातःकाल पार्थिव तत्वों
की प्रचुरता हो जाने और रात्रि में आकाश तत्व की अधिकता हो
जाने के कारण स्वभावतः आग्नेय या प्राण स्फुल्लिंग दब जाते हैं
।। अतएव उस स्थित में प्राण साधना का उतना लाभ नहीं लिया जा
सकता है।
वर्षा ऋतु प्रारम्भ होते ही भारतीय संस्कृति में पूजा, उपासना के अधिक अंश
कृत्य समाप्त कर दिये जाते हैं क्योंकि तब देवताओं के सो जाने
की आलंकारिक कथा प्रचलित है। यह स्थिति शरद ऋतु के आते ही
देवोत्थान एकादशी तक रहती है। ऐसे तत्वों
की सूक्ष्म जानकारी के आधार पर ही है इस अवधि में पृथ्वी और
उसकी तन्मात्राएँ प्रभाव में रहती हैं। अतएव स्वभावतः लोगों के
मन चंचल रहते हैं ।। मन स्थिर न होने से उपासना निरर्थक रहती
है, इसीलिए अलंकारिक रूप में देवताओं के सो जाने का प्रतिबन्ध और
देवताओं के जाग उठने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया प्रारम्भ की गई
।।
गायत्री उपासना का प्रात- सायं अधिक महत्व इसी दृष्टि
से है ।। इस अवधि में पृथ्वी में प्राण तत्व की सक्रियता और
इन्द्रियों की उछल- कूद शान्त होने के कारण यह उपासना के लिए
सर्वाधिक उपयुक्त समय होता है ।। इसीलिए गायत्री उपासना को
सन्ध्या कह कर उसे इन अवसरों पर ही करने की आवश्यकता से जोड़
दिया गया है ।।