भारतीय शास्त्रों में मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के जो अनेक मार्ग बतलाये हैं, उनमें जप का बड़ा महत्त्व है। वैसे धर्म और पुण्य के हेतु अनेक प्रकार के साधन पाये जाते हैं, पर उनमें से अधिकांश ऐसे हैं कि जिनमें द्रव्य की कुछ न कुछ आवश्यकता पड़ती है। बड़े- बड़े यज्ञ, धार्मिक अनुष्ठान, तीर्थ- यात्रा, ब्रह्मभोज आदि सभी व्यय- साध्य होते हैं। ऐसे कार्यों में पुण्य के साथ ही मनुष्य के मन में द्रव्य का संयोग होने से कुछ विचार करता है कि मैंने इस कार्य में इतना व्यय किया, इतना दान दिया, इतनी अन्य लोगों की भलाई की ।। इससे अहंकार की उत्पत्ति होनी स्वाभाविक होती है, जिससे कर्मों का बन्धन भी उत्पन्न होता है।
पर जप का मार्ग भिन्न है। उसमें मुख्यतया आत्म- चिन्तन की ही होती है। उससे चित्त स्थिर और शुद्ध होकर आत्मा में उच्च भाव उत्पन्न होते हैं। यही कारण है कि गीता में भगवान ने स्वयं कहा है -‘‘यज्ञानां जपयज्ञोस्मि’’ -अर्थात् ‘‘यज्ञों में जप- यज्ञ में हूँ ।। ’’ इसमें जप- यज्ञ को अन्य यज्ञों से श्रेष्ठ बतलाया है इसका कारण यही है कि आध्यात्मिक उन्नति के लिये जिस चित्त- शुद्धि की परम आवश्यकता है, वह प्रधानता जप द्वारा ही प्राप्त होती है।
इसमें विशेष द्रव्य या श्रम की भी आवश्यकता नहीं पड़ती केवल दृढ़
श्रद्धा एक और निष्ठा से निष्काम उपासना करनी पड़ती है। इसलिये गरीब अमीर,
शक्तिशाली और दुर्बल पंडित और सामान्य बुद्धि वाला सभी इसको इंकार कर सकते हैं। जो व्यक्ति सकाम भावना से कोई विशेष उद्देश्य सामने रखकर जप करते हैं उनको वैसे फल की प्राप्ति होती है और जो निष्काम भाव से करते हैं उनकी आत्म- शुद्धि होकर मोक्ष- मार्ग में प्रगति होती है।
अब प्रश्न होता है कि यदि जप करना श्रेष्ठ है तो कौन सा जप किया जाय? अन्य धर्मों की बात छोड़ दें तो हिन्दू शास्त्रों में ही सैकड़ों प्रकार के मंत्रों के जप का विधान बतलाया गया है। इनमें अधिकांश मंत्र किसी एक देव या देवी से सम्बन्ध रखते हैं और उनके द्वारा प्रायः एक ही वस्तु की प्राप्ति होती है। ऐसे मन्त्रों का जप करने वालों का उद्देश्य प्रायः भौतिक पदार्थ या सांसारिक होता है। पर एक तो समस्त भौतिक पदार्थ नाशवान् होते हैं, कुछ समय बाद उनका अन्त हो जाना अवश्यम्भावी है। दूसरे वे एक नियत सीमा के भीतर ही होते हैं, इसलिये अगर माँगने वालों की संख्या अधिक हो तो वे इच्छानुसार परिमाण में मिल सकने भी कठिन होते हैं।
पर मनुष्य का वास्तविक हित तो आत्म- कल्याण में ही है। आत्मा सूक्ष्म है, इसलिये उस पर स्थूल पदार्थों के बजाय सूक्ष्म तत्वों का ही विशेष प्रभाव पड़ सकता है। इस बात को समझ कर भारतीय ऋषि- मुनियों ने हजारों वर्ष तक योगाभ्यास तथा तपश्चर्या द्वारा ऐसी विधि का आविष्कार किया है जिससे सांसारिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के उद्देश्यों की पूर्ति हो सके। इन विधियों में गायत्री जप सबसे अधिक लाभदायक और प्रभावशाली है। यह मन्त्र पूर्ण रूप से सार्थक है और समझदार जप करने वाला इसके अर्थ को ध्यान रखते हुए इच्छानुसार प्रगति कर सकता है। इस सम्बन्ध में एक विद्वान ने लिखा है-
‘‘संसार में पापों के नाश और आत्मोद्धार के लिए गायत्री के जप और पुरश्चरण के समान अन्य कोई विधि नहीं है। गायत्री का जप, तीर्थ, व्रत, तप और दान से भी बढ़ कर है। इसलिए विशुद्ध और एकान्त स्थान में निवास करते हुये श्रद्धा भक्ति पूर्वक निष्काम भाव से अधिक से अधिक गायत्री का जप करना चाहिए गायत्री का जप यदि मानसिक किया जाय तो वह और भी विशेष लाभप्रद है। श्री मनु महाराज कहते हैं ।।
विधियज्ञाञ्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुेणैः ।।
उपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्रो मानसः स्मृतः ॥
अर्थात्- ‘‘दशपौर्ण मासादि विधि यज्ञों से साधारण जपयज्ञ दस गुना श्रेष्ठ है ।’’
एवम् जो केवल भगवत्प्रप्ति के उद्देश्य से श्रद्धा प्रेम और निष्काम भाव पूर्वक किया जाय, उसका फल तो अनन्त गुना श्रेष्ठ है, उसकी तो कोई सीमा ही नहीं है। गायत्री मन्त्र में परमात्मा की स्तुति ध्यान और प्रार्थना है। इस प्रकार एक ही मन्त्र में उक्त तीनों बातों का समावेश बहुत ही कम मिलता है।
विज्ञान की दृष्टि से भी गायत्री- जप मनुष्य के लिये बहुत हितकारी सिद्ध हुआ है। अब विज्ञान वेत्ता भी यह स्वीकार कर चुके हैं कि मनुष्य के दिमाग य बुद्धि का मूल स्रोत प्रकृति के सामूहिक दिमाग या मन में स्थित है जिससे हम ‘इलेक्ट्रोन’ के रूप में शक्ति प्राप्त करते रहते हैं। सर जेम्स ने इस सम्बन्ध में एक स्थान पर कहा है-
‘‘ समय के प्रवाह के साथ ज्ञान का प्रवाह अध्यात्मवाद की तरफ मुड़ जाता है। अब हमको यह ब्रह्माण्ड एक बड़ी भारी मशीन के बजाय एक बड़ी भारी विचार (थाट) के रूप में दिखलाई पड़ता है। अब यह कल्पना मिटती जा रही है कि हमारा मन या विचार शक्ति भौतिक पदार्थ में अकस्मात् उत्पन्न हो गई है। अब हम यह अनुमान करने लगे हैं कि पदार्थ का बनाने वाला और उसकी व्यवस्था चलाने वाला ‘मन’ ही होता है ।। इसका आशय यह नहीं कि मेरा ‘मन’ या तुम्हारा ‘मन’ इस कार्य को करता है। वरन् इसका अर्थ यह है कि प्रकृति में ‘मन’ नामा का जो तत्व है उसी के अणुओं से मेरा और तुम्हारा ‘मन’ उत्पन्न होता है।’’
इस प्रकृति में रहने वाले ‘मन’ का ही गायत्री मन्त्र में ‘भर्ग’ के रूप में वर्णन किया गया है और उसी का ध्यान करके सद्बुद्धि की कामना की जाती है। अगर हम ध्यान अथवा जप को विधिपूर्वक करें और अपने मन को विश्व- मन के साथ एकाग्र करने का प्रयत्न करें तो निस्सन्देह हम कल्याण- मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं ।।