वृहद्धर्भ पुराण, पूर्व खण्ड अध्याय- २ मे परम गुणमय मातृस्तोत्र का वर्णन है, जिसमें आद्यशक्ति माता भगवती के नामों का उल्लेख करते हुए कहा गया है-
‘माता धरित्री जननी दयाद्रहृदया शिवा .........’
अर्थात् माता धरित्री, जननी, दयाहृदया, शिवा, त्रिभुवन, श्रेष्ठा, देवी, निर्दोषा, सर्वदुःखहा, परम आराधनीया, दया, शांति, क्षमा, धृति, स्वाहा, स्वधा, गौरी, पद्मा, विजया, जया, तथा दुःखहन्त्री, ये माता के ही इक्कीस नाम हैं। जो मनुष्य इन नामों को सुनता और सुनाता है, वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है। बड़े से बड़े दुःखों से पीड़ित होने पर भी भगवती माता का दर्शन करके मनुष्य को जो आनन्द मिलता है, उसे वाणी द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता है। इस संदर्भ में महर्षि अरविन्द का कहना है कि यद्यपि माता एक ही हैं, पर वह हमारे सामने विविध रूपों में आती है, उनकी अनेक शक्तियाँ और व्यक्तियाँ हैं, अनेक स्फुल्लिंग और अनेक विभूतियाँ है जो इस विश्व में उनका कर्म करती हैं। जिनको हम पूजते हैं, वह एक ही है और यही भगवान् की वह दिव्य चैतन्यमयी शक्ति है जो ‘सर्वमिदं’ के ऊपर खड़ी है ।। है एक, पर इतनी अनेक रूप है कि उनकी गति को देखना या समझना तेज- से गति वाले मन और मुक्त- से तथा व्यापक से व्यापक बुद्धि के लिए भी असम्भव है। माता पुरुषोत्तम का चैतन्य है, पुरुषोत्तम की शक्ति है।
वही सारी सृष्टि करने वाली आदि शक्ति है और अपनी इस सारी सृष्टि से बहुत ऊँचे पर रहती है। पर उनकी यह विविध विलक्षण झाँकी देखी जा सकती है, समझी जा सकती है। उन्हीं की प्रतिमाओं, उन्हीं के ऐसे रूपों को देखकर जो अपने स्वभाव और कर्म में मूल रूप से अधिक व्यक्त और मर्यादित होने के कारण अधिक हृदयंगम करने योग्य है और जिनके द्वारा माता अपनी संतानों के सामने प्रकट होने में अनुमत होती है।
माता की सत्ता के तीन रूप हैं, जो तुम जान सकते हो, जब तुम हम को और इस विश्व को धारण करने वाली चिन्मयी शक्ति के साथ अपनी एकता (अभिन्नता) का अनुभव करने लगोगे। लोकातीत परा आद्य शक्ति के रूप में वह अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों के ऊपर खड़ी है और पुरुषोत्तम के नित्य अव्यक्त रहस्य तथा उनके इस विश्वव्यापनी महाशक्ति कोटि गतियों क्रमों की तथा इन अनन्त कोटि शक्तियों को धारण करती है। इसके बाद है व्यक्ति- शक्ति, जो माता की सत्ता की इन दो विराट् गतियों का व्यक्त रूप हैं जिनके द्वारा वे दो विराट स्वरूप हमारे लिये ज्वलन्त और निकटतर हो जाते हैं और जो मनुष्य तथा दिव्य प्रकृति के बीच में मध्यवर्ती शक्ति के तौर पर हैं।
महाशक्ति, जगत की जगन्माता वही सृजन करती है, जिसका संकल्प परमेश्वर से उन्हीं के परम चैतन्य के द्वारा प्रेरित किया जाता है। महाशक्ति इस प्रकार सृष्टियों को रचकर उनके अन्दर प्रवेश करती हैं। इनकी सत्ता ही इन लोकों को भागवत् भाव, सर्व प्रतिपालक होने से ही ये लोक ठहरे हुए हैं, जिसे हम प्रकृति कहते हैं, वह इस महाशक्ति का केवल अत्यन्त बाह्य सर्ग(कर्म) रूप हैं। महाशक्ति ही अपनी शक्तियों और गतियों का संचालन और व्यवस्थापन करती है, वही प्रकृति से कर्म कराती है और उन सब कर्मों के अन्दर गुप्त अथवा प्रकट रूप से रहती है, जो कुछ हम देख सकते या अनुभव कर सकते या जिसे जीवनगति दे सकते हैं उन सब में महाशक्ति की ही सत्ता है। प्रत्येक लोक और कुछ नहीं, एक विशेष लोक- समूह या जगत की महाशक्ति का एक विशेष खेल है और इन सब लोकों में वह महाशक्ति उन्हीं, आद्याशक्ति भगवती माता की विश्वव्यापिनी चिच्छक्ति और विश्वव्यापनी व्यक्ति है। प्रत्येक लोक का उन्हीं की दृष्टि में साक्षात्कार होता है, फिर उन्हीं के सौंदर्य और शक्तिमय हृदय में एकत्र घनीभूत होकर वह उनके आनन्द- सफुरण से सृष्ट होता है।
माता ऊपर से सब का शासन करती है यह नहीं, बल्कि इस छोटे से त्रिविध संसार में वह उतर आती है। केवल दिव्य अक्षररूप की ओर दृष्टि निबद्धा करने से मालूम होगा कि यहाँ की सारी वस्तुएँ, यहाँ तक कि अज्ञान की सारी गतियाँ भी अपनी शक्ति को प्रच्छन्न करती हुई स्वयं माता ही हैं। अपने सत्तत्व में अल्पीकृत (घटी हुई) उन्हीं की सृष्टियाँ हैं, उन्हीं की प्रकृति- शरीर और प्रकृति शक्ति है। और ये सब हैं इसी कारण से कि अनन्त की अभाव सम्भावनाओं में कुछ ऐसा था जिसे चुनकर प्रकृतरूप प्रदान करने का रहस्यमय आदेश परमेश्वर से पाकर वह इस महान आत्मबलि के लिए समस्त हुई और उन्होंने छद्मवेश की तरह अज्ञान की आत्मा और रूपों को धारण कर लिया। पर व्यक्ति रूप में भी उन्होंने अपने को यहाँ तक नीचा कर दिया कि वह इस अंधकार में उतर आयीं, इसलिये कि इसे ज्योति की ओर ले जाऊँ, झूठ में और भ्रम में आ गयीं इसलिए कि इन्हें सत्य का रूप दे दूँ, इस मृत्यु में भी आ धमकी, इसलिए कि इसे दिव्य जीवन दे दूँ। संसार के इस क्लेश में, इस हठी शोक और दुःख मे पहुँच गयीं, इसलिए कि इसके इस रूप का अन्त करके अपने महत् अत्युच्च आनन्द की दिव्य रूप प्रदान करने वाली प्रगाढ़ता में इसे परिणत कर दूँ।
अपनी सन्तानों के प्रति उनका मातृ प्रेम प्रगाढ़ और महान् है। इसी से उन्होंने अंधकार का यह आवरण ओढ़ना स्वीकार कर लिया है। तमस् और मिथ्या की शक्तियों के दारूण दुर्भाव और दुराक्रमण सह लेना मंजूर कर लिया है, जो जन्म- मृत्यु ही हैं, उसके तारण द्वार के पार होने की वेदना को धार लिया है। सृष्टि की सारी व्यथा, सारा शोक और सारा कष्ट उठा लिया है, क्योंकि ऐसा मालूम हुआ कि यही एक उपाय है जिससे यह सृष्टि उठ कर आलोक, आनन्द, सत्य और सनातन जीवन को प्राप्त हो सकती है। यह महा यज्ञ है जिसे कभी- कभी पुरूष का यज्ञ कहते हैं पर जो इससे अधिक गम्भीर अर्थ में, प्रकृति की ही पूर्ण आत्मबलि है, भगवती माता का ही महायज्ञ है।
जो ज्ञानी हैं, उन्हें वह अधिकाधिक एवं और भी विशद ज्ञान देती हैं, जिनमें दर्शन- शक्ति है उन्हें अपनी कल्पना और अभिप्राय में शरीक होने का अधिकार देती है। जो विरोधी हैं उन पर उस विरोध का परिणाम लादती हैं। जो अनजान और मूर्ख है उन्हें उन्हीं की अन्धता के अनुसार रास्ता दिखाती है। प्रत्येक मनुष्य के स्वभाव के भिन्न- भिन्न अंशों की आवश्यकता और प्रेरणा के अनुसार और जिस प्रतिदान के लिए वे आहुति देते हैं उसके अनुसार माता (माहेश्वरी) प्रत्युत्तर देती हैं और उनका प्रयोग करती हैं, उन पर आवश्यक प्रभाव डालती है या उन्हें अपनी प्रीतस्वाधीनता के भरोसे छोड़ देती है जिसमें या तो अविद्या के पथ पर समृद्धि लाभ करे या ध्वंस को प्राप्त हों। कारण वह सब के ऊपर हैं, जगत् में किसी से बँधी नहीं, कि सी से आशक्त नहीं, तथापि उनका जो हृदय है, वह विश्व- जननी का हृदय है, ऐसा मातृ स्नेह इतना और किसी में नहीं है।
कारण, इनकी दया अनन्त और अक्षय है। उनकी दृष्टि में सभी उनकी सन्तान हैं, उसी एक के अनेक अंश हैं। असुर, राक्षस, पिशाच और उन के विद्रोही और शत्रु भी उनकी दृष्टि में अपनी सन्तान ही हैं। उनका प्रत्याख्यान केवल विलम्बन मात्र है, और उनका दंड विधान तो करूणा ही है।