वृहदारण्यक उपनिषद् में जिस मधुविद्या का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है, उसका सम्बन्ध गायत्री से ही है। जिस प्रकार पारस मणि के सम्पर्क से लोहे के टुकड़ों का ढेर भी सोना हो जाता है। उसी प्रकार इन संसार की अनेक कडुई, कुरूप, कष्टदायक, प्रतिकूल वस्तुएँ तथा परिस्थितियाँ उसके लिए मधुर, सौन्दर्ययुक्त, सुखदायक एवं अनुकूल बन जाती हैं।
गायत्री के तीनों चरण समस्त सृष्टि को अपने लिए आनन्दपूर्ण मधुमय बना देने की शक्ति से परिपूर्ण है। नदियों को जलपूर्ण, समुद्र को रत्न और औषधि वनस्पतियों को जीवनी शक्ति से परिपूर्ण गायत्री का प्रथम चरण बनाता है। रात्रि और दिन किसी प्रकृति विपरीतता से तूफान, भूचाल, अति वृष्टि, शीतोष्ण की अधिकता जैसी विकृतियों से बच कर हितकर वातावरण से आनन्दमय रहें, पृथ्वी के परमाणु पर्याप्त मात्रा में अन्न धातु, खनिज, रत्न आदि प्रदान करते रहें तथा द्युलोक की मंगलमयी किरणें पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहें, ऐसी शक्ति गायत्री के दूसरे चरण में है। गायत्री का तीसरा चरण सूर्य की उत्पादन, प्रेरक एवं विकासोन्मुख शक्तियों को नियन्त्रित एक आवश्यक मात्रा में पृथ्वी पर आह्वान करता है। न तो सूर्य की शक्ति- किरण पृथ्वी पर इतनी अधिक आवें कि ताप से जीवन रस जले और न उसकी इतनी न्यूनता हो कि विकास क्रम में बाधा पड़े ।। चूँकि वनस्पतियाँ, जन्तु एवं जड़ चेतन सभी अपना जीवन- तत्व सूर्य से प्राप्त करते हैं। मानव प्राणी की चेतना एवं विशेष प्राण क्षमता भी सूर्य पर ही अवलम्बित है। इस विश्व प्रसविता सविता पर गायत्री शक्ति के आधार पर स्थित रख सकना सम्भव हो सकता है।
गायत्री में अध्यात्म तत्व तो प्रधान- रूप से है ही, वह आत्मबल और अन्तर्जगत् की अगणित सूक्ष्म शक्तियों को विकसित करके मनुष्य को इस पृथ्वी तल का देवता तो बना ही सकता है, साथ ही स्थूल सृष्टि में काम करने वाली सभी भौतिक शक्तियों पर उसका नियन्त्रण है। इस विकास को प्राचीनकाल में जब आत्मदर्शी लोग जानते थे, तब इस संसार को ही नहीं ,, अन्य लोकों की स्थिति भी शांतिमय, मधुरिमा से पूर्ण बनाये रख सकने में समर्थ थे। भारतवर्ष का यही विज्ञान किसी समय उसे अत्यधिक ऊँची सम्मानास्पद स्थिति में रखे हुए था। आज इसी को खोकर हम मणिहीन सर्प की तरह दीन- हीन एवं परमुखापेक्षी बने हुए हैं। गायत्री में सन्निहित मधु विद्या का उपनिषदों में वर्णन इस प्रकार है-
तत्सवितुर्वरेण्यम्। मधुवाता ऋतायते मधक्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ।। भू स्वाहा भर्गोदेवस्य धीमहि। मधुनक्त मतोषसो मधुमत्यार्थिव रजः ।।
मधुद्यौररस्तु नः पिता। भुवः स्वाहा, धियो योनः प्रचोदयात्। मधु मान्नो वनस्पतिमधू मा अस्तु सूर्य माध्वीर्गावो नः। स्वः स्वाहा। सवांश्च मदुमती रहभेवेद सर्वभूयांसं भूर्भूव स्वः स्वाहा ।।
-बृहदारण्यक
-(तत्सवितुर्वरेण्यं) मधु वायु चले, नदी और समुद्र रसमय होकर रहें। औषधियाँ हमारे लिए सुखदायक हों।
-(भर्गोदेवस्य धीमहि )) रात्रि और दिन हमारे लिए सुखकारी हों, पृथ्वी की रज हमारे लिये मंगलमय हो। द्युलोक हमें सुख प्रदान करें।
-(धियो योनःप्रचोदयात्) वनस्पतियाँ हमारे लिए रसमयी हों। सूर्य हमारे लिये सुखप्रद हो। उसकी रश्मियाँ हमारे लिए कल्याणकारी हों। सब हमारे लिए सुखप्रद हों। मैं सबके लिये मधुर बन जाऊँ ।।