उपरोक्त प्रकार के लाभों को प्राप्त होना गायत्री उपासक के लिए निश्चित रूप से सम्भव है पर यह सम्भावना तभी है जब मन्त्र की नियमित शास्त्रोक्त विधि में उसकी उपासना की जाय। गायत्री की मन्त्र संज्ञा तभी होती है जब उसमें विधिविधान की पूर्णता हो। मन्त्र की शक्ति के बारे में कहा है कि
मननपत्सर्वभावानां त्राण्यात्संसर सागरात् ।।
मंत्र रूपाहि तच्छक्तिमर्नत्राण रूपणि ॥
जिसके मनन करने से सब अभाव दूर होते हैं, तथा जिसके द्वारा संसार सागर में त्राण मिलता है वह मनन शक्ति मंत्र रूप है ।।
मंत्राराधन के सम्बन्ध में साधना के नियमों पर जोर देते हुए कहा गया है कि
अर्थ ज्ञानं बिना कर्म न श्रेय साधनं यतः ।।
अर्थ ज्ञानं साधनीयं द्विजैः श्रेयोर्थिभिस्तत् ॥
मंत्रार्थज्ञो जपन हूयन स्तथैवाह्यापयन द्विजः ।।
अधीत्य यत्किंचिदपि मंत्रार्थधिगमेरतः ॥
ब्रह्मलोक मवाप्नोति धर्मानुष्ठानतो द्विजः ।।
ज्ञात्वा ज्ञात्वा च कर्माणि जनायोयोनुतिष्ठति ॥
विदुध कर्मसिद्धिः स्यात्तषानाविदुषो भवेत् ।।
ज्ञानं कर्म च संयुक्तं भूत्यर्थ कथितं यथा ॥
अधीतं श्रुत संयुक्त तत्र श्रेष्ठं न केवलम् ।।
अर्थात्- मंत्र का अर्थ और विधान जानकर ही उपासना करने से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। मंत्र के अर्थ का अध्ययन भी करना चाहिए और उसके रहस्य को भी समझना चाहिए तभी मंत्र होता है ।। जो कर्म करना है उससे अधिकाधिक जानना चाहिए, पूरी जानकारी पर आधारित कर्म में ही सफलता मिलती है ।। ज्ञान और कर्म को मिलाकर अध्ययन और श्रवण के आधार पर जो किया जाता है वही उत्तम है।और भी ऐसे ही कितने अभिवचन हैं, जिनमें गायत्री महामंत्र की महत्ता एवं लाभों का वर्णन करते हुए इस बात का भी संकेत किया है कि यह सब कुछ तभी संभव हो सकता है, जबकि उस साधना को विधि विधानपूर्वक नियमित रूप से सम्पन्न किया जाय ।।
गायत्रीः यः सदा विप्रो जपेत्तु नियतः शुचिः ।।
स याति परमस्थानं वायु भूतः स्वमूर्तिमान् ॥
-संवर्त संहिता १- २१
जो साधक गायत्री को ‘नित्य नियमित रूप से पवित्रता पूर्वक’ जपता है वह सूक्ष्म लोक के परम स्थान को, ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त करता है।
गायत्रया योग सिद्धर्थ जपं कुर्यात् समाहितः ।।
योग की सिद्धि के लिए साधक को सावधानी के साथ गायत्री जप करना चाहिए ।।
जपतां जुह्वतां चैव नित्यं च प्रयतात्मनाम ।।
ऋषीणां परमं जप्यं गुह्यमे तन्नरा धिप ॥
-महा अनु०
अर्थात्- ‘नित्य जप करने के लिए, हवन करने के लिए’ , ऋषियों का परम मन्त्र गायत्री ही है ।।
यथा कथं च जप्तैषा त्रिपदा परम पाविनी ।।
सर्व काम प्रदा प्रोक्ता विधिनांकि पुनर्तृय ॥
-विष्णु धर्मोत्तर
हे राजन- जैसे बने वैसे जप करने पर भी परम पावनी गायत्री कल्याण करती है, फिर ‘विधि पूर्वक उपासना करने का लाभ का तो कहना ही क्या है?’
जपतां जुह्वतां चैव विनियाते न विद्यते ।।
‘गायत्री जप और हवन करते रहने वाले का कभी पतन नहीं होता ।’
न प्रमादोऽत्र कर्तव्यो विदुषमोक्षमिच्छता ।।
प्रमादेजृम्मते माया सूर्यापाये तमोयथा ॥
-वेदान्त सिद्धान्तसार
कल्याण की इच्छा करने वाला ‘प्रमाद न करे ।’ जैसे संध्या होते ही अन्धकार फैल जाता है वैसे ही प्रमाद आते ही माया दबोच लेती है ।।
देवो भूत्वा यजेद्देवं नादंवो देवमर्नयेत् ।।
‘अपने में देवता धारण करके’ ही देवता की पूजा करनी चाहिए ।। इसके बिना देवपूजन अवांछनीय है ।।
जप संख्यातु कर्तव्या नासंख्यातं जपेत् सुधीः ।।
‘जप संख्या गिनकर करना चाहिए ।’ बुद्धिमान लोग बिना संख्या गिने जप न करें ।।
कितने ही मनुष्य शास्त्र विधि की साधना विधान को व्यर्थ मानकर मनमानी रीति से साधना करते हैं, अपनी मनमर्जी में चाहे जैसे नियम बना लेते हैं, चाहे जिस विधान को व्यर्थ कहने लगते हैं। ऐसी मनमानी करने वाले, शास्त्र विधि की अवज्ञा करने वाले एक प्रकार के बन्दर हैं, उनकी उछल- कूद का कितना परिणाम होगा, यह कह सकना अनिश्चित है ।।
शास्त्राणि यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति ये नरः ।।
मतयो यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति वानरः ॥
जहाँ शास्त्र निर्देश करता है, वहाँ जो जाते हैं वे मनुष्य हैं और जहाँ मन चाहता है, वहाँ जाते हैं वे वानर हैं।
इसलिये गायत्री महामंत्र से समुचित लाभ उठाने के इच्छुकों के लिए यही उचित है कि शास्त्र विधि से बताये हुये विधि- विधान के साथ अपनी उपासना पूर्ण करें। अध्यात्म विज्ञान के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त के आधार पर नियमित साधना विधान की उपेक्षा न करें ।।