गायत्री सर्वतोन्मुखी समर्थता की अधिष्ठात्री

गायत्री- शक्ति का नारी स्वरूप

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गायत्री महाशक्ति का स्वरूप और रहस्य-

मनुष्य- शरीर का विश्लेषण करके देख जाय तो पता चलेगा कि पुरुष और नारी का भेद- भाव स्थूल शरीर तक ही है। दोनों के मूल में काम करने वाली चेतना शक्ति में कोई तात्त्विक भेद नहीं। दोनों में समान विचार शक्ति काम करती है। दोनों को ही सुख- दुःख, हानि- लाभ, जीवन- मरण की अनुभूति होती है। जैसी इच्छायें- आकांक्षायें पुरुष  की हो सकती हैं, कम ज्यादा वैसी ही इच्छायें और अनुभूतियाँ स्त्री में भी होती हैं। अन्तर केवल भावना और शरीर के कुछ अवयवों भर का है।

गायत्री भी एक प्रकार की ईश्वरीय चेतना है, वह नारी है न नर। फिर भी शास्त्रों में उसे जननी और माता कहकर ही सम्बोधित किया गया है। यह पढ़कर कुछ कौतूहल अवश्य होता है, पर इसमें गलत कुछ भी नहीं है। गायत्री महाशक्ति के स्वरूप और रहस्य को समझने के बाद इस विभेद का अन्तर स्पष्ट समझ में आ जायेगा। वैसे जो उस महाशक्ति की उपासना मानकर भी उस महाशक्ति से लाभान्वित हो सकते हैं, उसमें न तो कुछ हानि है और न कुछ दोष। माता स्वरूप मानकर गायत्री उपासना कुछ सरल अवश्य हो जाती है, इसलिए शास्त्रकार ने उस आद्यशक्ति को माता का स्वरूप दिया है।

गायत्री महामन्त्र भारतीय तत्त्वज्ञान एवं अध्यात्मविद्या का मूलभूत आधार है। वट वृक्ष की समस्त विशालता उसके नन्हे से बीज में जिस प्रकार सन्निहित रहती है, उसी प्रकार के के वेदों में जिए अविच्छिन्न ज्ञान- विज्ञान का विशद वर्णन है, बीज- रूप से गायत्री मन्त्र में पाया जा सकता है।

भारतीय धर्म में प्रचलित उपासना- पद्धतियों में सर्वोत्तम गायत्री ही है। उसे अनादि माना गया है। देवता, ऋषि, मनीषी उसका अवलम्बन लेकर आत्मिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़े हैं और इसी आधार पर उन्होंने समृद्धियाँ, सिद्धियाँ एवं विभूतियाँ उपलब्ध की हैं। हमारा प्राचीन इतिहास बड़ा गौरवपूर्ण है। इस गौरव- गरिमा का श्रेय हमारे पूर्व पुरुषों द्वारा उपार्जित आत्म- शक्ति को ही है। कहना न होगा कि इस दिव्य उपार्जन में गायत्री महामन्त्र का ही सर्वोत्तम स्थान है।

स्थूल प्रकृति की शक्तियों का वैज्ञानिकों ने बहुत कुछ पता लगा लिया है, यद्यपि जो खोज शेष है, वह प्राप्त उपलब्धियों की तुलना में कहीं अधिक है, फिर भी निस्सन्देह इस दिशा में बहुत प्रयत्न हुआ है। जो सफलता मिली है, वह सराहनीय है। प्राचीनकाल के तत्त्वदर्शी विज्ञानवेत्ता भौतिक विज्ञान की शक्ति से भली- भाँति परिचित थे, इसलिए वे उसे बाल क्रीड़ा जैसी उपहासास्पद एवं उपेक्षणीय मानते थे। उनकी दृष्टि से सूक्ष्म जगत और उसमें सन्निहित अद्भुत अनुपम एवं दिव्य शक्तियों की महत्ता थी, इसलिए उन्होंने अपना सारा ध्यान उसी ओर लगाया था, श्रम भी उसी दिशा में किया था। फलस्वरूप पाया भी इतना अधिक था कि धरती पर स्वर्ग अवतरित करना, मनुष्य में देवत्व का दर्शन करना सम्भव हो सका था।

आज के वैज्ञानिक जिस प्रकार भौतिक शक्तियों का पता लगाकर उनका उपयोग यन्त्रों द्वारा कर रहे हैं, और अपनी सफलता से मानव जाति को लाभान्वित कर रहे हैं, उसी प्रकार प्राचीन काल के तत्त्वदर्शी वैज्ञानिकों ने, ऋषियों ने चेतन- जगत में समाविष्ट एक- से महत्तर शक्तियों की जानकारी प्राप्त की थी और उनके उपयोग का लाभ मानव- जाति को दिया था। इस प्रकार की उनकी अगणित उपलब्धियों में गायत्री शक्ति का महान- उपयोग के लिए अवतरण हो सकना एक बहुत बड़ा वरदान है।

जड़- जगत् में काम करने वाली विद्युत, गुरुत्वाकर्षण, अणु- विकिरण ब्रह्मांड व्यापी ईथर, उद्भव और विलय आदि अगणित शक्तियों का पता लगाया गया है। इसी प्रकार चेतन जगत् में व्याप्त शक्ति- पुंजों में से जितना कुछ प्रकार चेतन जगत् में व्याप्त शक्ति- पुंजों में से जितना कुछ ढूँढ़ा जा सकता है, उसका महत्त्व, उपयोग एवं परिणाम इतना अधिक है कि यदि उनमें से कोई थोड़ा सा भी उपयोग कर सके तो अपने व्यक्तित्व को सुनिश्चित करते हुए महामानव, अतिमानव, नरदेव एवं नर- नारायण बन सकता है।

अणु- समूह की गतिशीलता से उस भौतिक जगत् का सारा क्रियाकलाप चलता है। उसी प्रकार सूक्ष्म जगत् के महदाकाश में चेतना की एक अविच्छिन्न धारा बहती है। उसी के फलस्वरूप जीवन के जितने भी स्वरूप विकसित एवं अविकसित जीवों में पाये जाते हैं, वे उस दिव्य चेतना की गतिशीलता ही प्रदर्शित करते हैं। इस अचिन्त्य अगोचर, अनुमप, विश्व ब्रह्माण्ड में लहराती हुई चेतना का नाम ‘ब्रह्म’ है। ब्रह्म इस समस्त विश्व- ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। कोई कण उसकी उपस्थिति से रहित नहीं। भौतिक जगत की गतिविधियों को प्रेरणा इस ब्रह्म से ही मिलती है। आइन्स्टीन प्रभृति चोटी के गणमान्य वैज्ञानिकों ने निस्संकोच भाव से यह स्वीकार किया है कि प्रकृति को सक्रिय रखने वाली अणुगतिशीलता वस्तुतः किसी अज्ञात चेतनशक्ति के नियन्त्रण में काम करती है और उसी की शक्ति का अनुदान लेकर ह निर्जीव संसार सजीव जैसी चेष्टा कर रहा है। आज के वैज्ञानिक भले ही उस ब्रह्म- चेतना का स्वरूप ठीक तरह समझने में समर्थ न हो पा रहे हों, पर वह दिन दूर नहीं, जब उसका अस्तित्व भावना क्षेत्र तक सीमित न रहकर स्थूल जगत् में भी प्रत्यक्ष अनुभव किया जाने लगेगा। भारतीय तत्त्वदर्शियों ने इस ब्रह्म- चेतना की सत्ता चिर अतीत में ही जान ली और उस शक्ति के मानव- जीवन में उपयोग करने की प्रक्रिया का एक व्यवस्थित विधान बनाकर मानव- प्राणी के नगण्य अस्तित्व को इतनी महत्तम स्थिति में परिणत किया था, जिससे स्वयं तक ब्रह्मभूत हो सकें। इस विज्ञान का नाम ‘अध्यात्म’ रखा गया। अगण्य दृष्टिगोचर होने वाला अणु आत्मा जिस प्रक्रिया का अवलम्बन करने से विभु बन सके, नर से नारायण के रूप में विकसित हो सके- परम आत्मा, परमात्मा बन सके, उस विद्या का नाम अध्यात्म अथवा ब्रह्म विद्या रखा गया । ब्रह्म अपने आप में दृष्टा मात्र है। वह ऐसा है तो सही पर अपनी महत्ता एवं गरिमा के अनुरूप उत्पादन एवं व्यवस्था की प्रक्रिया का भी निर्धारण करता है। उसकी सक्रियता- शक्ति यद्यपि उसी का अङ्ग है तो भी उसकी क्रिया प्रणाली की भिन्नता देखते हुए उसे ब्रह्म की पूरक सामर्थ्य भी कहा जा सकता है।

पुराणों में गायत्री महाशक्ति का निरूपण ब्रह्माजी की पत्नी के रूप में हुआ। ब्रह्म अर्थात् ब्रह्म- पत्नी, अर्धांगिनी, अर्थात् क्षमता। पौराणिक उपाख्यान के अनुसार अलंकार यह है कि ब्रह्माजी की दो पत्नी थीं, एक गायत्री दूसरी सावित्री। गायत्री अर्थात् चेतन जगत् में काम करने वाली शक्ति। सावित्री अर्थात् भौतिक जगत् को संचालित करने वाली शक्ति। भौतिक विज्ञान सावित्री की उपासना कर विधान प्रस्तुत करता है। विभिन्न प्रकार के वैज्ञानिक आविष्कार एवं उपकरण सावित्री शक्ति की अनुकम्पा के ही प्रतीक हैं। गायत्री वह शक्ति है जो प्राणियों के भीतर विभिन्न प्रकार की प्रतिभाओं, विशेषताओं और महत्ताओं के रूप में परिलक्षित होती है। जो इस शक्ति के उपयोग का विधान- विज्ञान ठीक तरह जानता है वह उससे वैसा ही लाभ उठाता है जैसा कि भौतिक जगत् के वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं, मशीनों तथा कारखानों के माध्यम से उपार्जित करते हैं।

सामान्य स्थिति का नरपशु व्यक्तित्व की दृष्टि से विकसित होकर मानव महामानव, अति- मानव बनता है तो उसे अनन्त चैतन्य सागर में कल्लोल करने वाली इस ब्राह्मी शक्ति का ही आश्रय लेना पड़ेगा। आकाशवाणी के विभिन्न स्टेशनों से विभिन्न स्तरों पर, विभिन्न अभिभाषण प्रसारित होते रहते हैं। हमारा रेडियो- यन्त्र यदि निष्क्रिय पड़ा हो तो उसमें कोई ध्वनि सुनाई न देगी पर यदि उसमें बिजली चालू कर दी जाय और सुई निर्धारित मीटर पर लगा दी जाय तो जिस भी स्टेशन का प्रसारण मन्द या तीव्र ध्वनि में सुनना हो सुना जा सकेगा। ठीक इसी प्रकार ब्राह्मी महाशक्ति- गायत्री होते हुए भी असम्बद्ध लोगों का कोई विशेष हित साधन नहीं कर पाती, पर जो साथ अन्तःचेतना को जोड़ देते हैं वे उस धारा का अवतरण अपने में होता हुआ देखते हैं और उसका लाभ उठाते हैं। गायत्री उपासना की शास्त्रोक्त पद्धति एक ऐसी ही वैज्ञानिक प्रणाली है जो जीव को ब्राह्मी सत्ता के साथ जोड़कर वैसा ही लाभ उठाने का अवसर प्रस्तुत करती है, जैसा कि खाली तालाब भरे तालाब के साथ नाली द्वारा जोड़ दिया जाय तो कुछ ही देर में जल से भर जाने का लाभ ले सकता है।


यों साधारण उपासना क्रम में गायत्री को एक देवी के रूप में चित्रित, अंकित किया गया है। त्रिकाल सन्ध्या में ब्राह्मी, वैष्णवी, शाम्भवी आकार- प्रकार में उसका ध्यान भजन किया जाता है। माता के रूप में उसकी भावना करते हैं और नारी आकृति की प्रतिमा में उसका पूजन- वन्दन सम्पन्न करते हैं। पर यह तो ध्यान की एकाग्रता और भक्ति भावना के जागरण का एक तरीका मात्र है। उपासना के लिए मानवीय मनोभूमि की रचना के अनुरूप शब्द एवं भावों का निर्धारण करना पड़ता है। विद्युत महाशक्ति के विश्वव्यापी सूक्ष्म रूप को वैज्ञानिक जानते हैं। साधारण लोग तो उसे बत्ती- पंखा आदि के रूप में कार्य करते हुए ही देखते हैं। उनकी दृष्टि में इस उपकरण में गायत्री की माता के रूप में पूजा अर्चा की जाती है और उसके साथ वैसा ही सम्बन्ध जोड़ा जाता है जैसा कि सांसारिक माँ- बेटे का होता है। यह प्रक्रिया आवश्यक है। क्योंकि निराकार तत्व के साथ पंचभौतिक मन अपना सम्बन्ध जोड़ ही नहीं सकता। निराकार का ध्यान सम्भव नहीं, और न उसके साथ किसी प्रकार आत्मीयता की भावना उठ सकती है। इसलिये ब्राह्मी शक्ति के निराकार होते हुए भी उपासना के लिये उसे साकार रूप में ही प्रतिष्ठापित करना पड़ता है। यदि ऐसा न किया जाय तो ध्यान जैसी उपासना की प्रक्रिया का द्वार बन्द हो जायगा। इसलिये गायत्री माता के साकार स्वरूप की उपयोगिता आवश्यक मानते हुए भी हमें यह जानना होगा कि ब्राह्मी महाशक्ति वस्तुतः एक विश्वव्यापी चेतन तत्व है, जो प्राणियों के प्राण के रूप में देखा जा सकता है। गायत्री उपासना द्वारा हम अपने प्राण को महाप्राण में परिणित- विकसित करते हैं।

साधारणतया मानव शरीर में रहने वाला अकिंचन- सा प्राण स्फुल्लिंग इतना ही प्रयोजन सिद्ध करता है कि प्राणी अपनी शारीरिक एवं मस्तिष्क की गतिविधियाँ जारी रख सके जो जीवन धारण किये रहने के लिये आवश्यक है। प्राण के अन्तराल में से शक्ति कम्पन क्षण- क्षण पर उद्भूत होते रहते हैं, वे कोई अन्य उपयोग न होने के कारण यों ही शून्य में जाते और समाप्त होते रहते हैं। इसका कोई विशेष लाभ प्राणधारी को मिल नहीं पाता। पर यदि कोई ऐसा उपाय निकल आवे, जिससे इसे प्राणतत्त्व के शक्ति- कम्पनों को सुरक्षित रखा जा सके तो यह कोष एक बृहद् भांडागार के रूप में सञ्चित होकर प्राणी को सच्चे अर्थों में शक्तिवान बना सकते हैं।
गायत्री शब्द का नामकरण उसके क्रिया- कलाप एवं स्वभाव को ध्यान में रखकर ही किया गया है। इस महाशक्ति के साथ सम्बन्ध होने की प्रथम प्रतिक्रिया होती है कि साधक का प्राण- प्रवाह शून्य में बिखरना रुक जाता है और उसको ऐसा संरक्षण होता है जिससे कोई महत्त्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध किया जा सके। वर्षा का जल नदी- नालों में बहता हुआ यों ही अस्त- व्यस्त हो जाता है पर यदि उसे बाँध लगाकर रोका जा सके तो सिंचाई, विद्युत उत्पादन आदि कई कार्य सिद्ध हो सकते हैं। गायत्री उपासना प्राणशक्ति के क्षरण को रोकती है, उसकी रक्षा करती है और इस संरक्षण से लाभान्वित उपासक दिन- दिन प्रगति पथ पर अग्रसर होता है, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये उस महती शक्ति का ना- गुण के अनुरूप -तत्त्वदर्शी मनीषियों ने गायत्री रखा।

परमात्मास्तु या लोके ब्रह्मशक्तिर्विराजते ।।
सूक्ष्मा च सात्विका चैव गायत्रीत्वाभिधीयते ॥
-स्कन्द
‘‘ सब लोकों में विद्यमान जो सर्वव्यापक परमात्मा शक्ति है, वह अत्यन्त सूक्ष्म सत्प्रकृति  की चेतन शक्ति गायत्री है।’’

अपना परिचय देते हुए इस महाशक्ति ने शास्त्रों के विभिन्न कथा- प्रसंगों में इस रहस्य का रहस्योद्घाटन किया है, कि मनुष्य के अन्दर जो सचेतन विशेषता होगी उसके मूल में ब्राह्मी- शक्ति का ही वैभव रहा होगा। धन- सम्पत्ति तो लोग उचित- अनुचित कई तरीकों से कमा लेते हैं ।। समृद्ध और श्रीमान् तो भाग्यवश मूर्ख भी बन जाते हैं, पर यदि किसी का व्यक्तित्व विकसित हो रहा होगा, तो उसके अन्तराल में यही ब्राह्मी- चेतना काम कर रही होगी। जिस सामर्थ्य के बल पर लोग विभिन्न प्रकार की सफलतायें उपलब्ध करते हैं, उस शक्ति को भौतिक नहीं, आत्मिक ही समझना चाहिए। आत्मबल के अभाव में समृद्धि का उपार्जन तो दूर, व्यक्ति उसकी रखवाली भी नहीं कर सकता। इस रहस्य का उद्घाटन उसी शक्ति के श्री मुख से इस प्रकार हुआ है।

अहम् बुद्धि रहे श्रीश्च घृतिः कीर्ति स्मृतिस्तथा ।।
श्रद्धा मेधा दया लज्जा क्षुधा तृष्णा तथा क्षमा ॥
कान्तिः शान्तिः पिपासा च निद्रातन्द्रा जराजरा ।।
विद्याऽविद्या स्पृहावाञ्छा शक्तिश्चाक्ति देव च ।।
बसा मज्जा च त्वज चाह दृष्टिर्वागनृत ऋता ।।
परमध्या च पश्यन्ती नाडड्योऽहम् विविध श्चयाः ॥
किं नाह पश्य सन्सारे मद्वियुक्त क्रियास्ति हि ।।
सर्वनेवाहमित्येवं निश्चय विद्धि पद्मज ॥
-देवी भागवत

‘‘मैं क्या नहीं हूँ? इस संसार में ये मेरे सिवाय और कुछ नहीं है। बुद्धि, धृति, कीर्ति, स्मृति, श्रद्धा, मेधा, दया, लज्जा, क्षुधा, तृष्णा ,, क्षमा, कांति, शान्ति, पिपासा, निद्रा, तन्द्रा, जरा, अजरा, विद्या, अविद्या, स्पृहा, बांछा, शक्ति, अशक्ति, वसा, मज्जा, त्वजा, दृष्टि, असत् और सत्, वाणी परा मध्यमा, पश्यन्ति नाड़ी- संस्थान आदि सब कुछ मैं ही हूँ ।।
मयसी अन्नमति यो विपस्यति यः प्राणिति य ई।
श्रृणौत्युक्तम् ऊमन्त वो मांत उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धि नै ते वदामि ।।
-महार्णाव.

‘‘ यह विश्व मुझसे ही जीवित है। मेरे द्वारा ही उसे अन्न मिलता है, मेरी शक्ति से ही वह बोलता और सुनता है। जो मेरी उपेक्षा करता है, वह नष्ट हो जाता है, हे श्रद्धावान्! सुनो, यह रहस्य मैं तुम्हारे कल्याणार्थ ही कहती हूँ। ’’

प्रकृति ने जड़ पदार्थ बनाये, पदार्थों की रचना उसने की पर उन पदार्थों को व्यवस्थित करने और उपयोगिता में लाने की क्षमता चेतना में ही रहती है। चेतन की अनुपस्थिति अथवा न्यूनता में सुख साधनों के प्रचुर परिमाण में उपस्थित रहने पर भी उनका कोई उपयोग नहीं। सोना जमीन में गढ़ा है पर किसी सजीव प्राणी को उसकी जानकारी न हो अथवा निकालने की क्रिया करने वाला कोई न हो, तो वह सोना जहाँ का तहाँ पड़ा रहेगा, उससे किसी का कुछ भी लाभ न होगा। उसी प्रकार शरीर जैसा बहुमूल्य यन्त्र जो मस्तिष्क से बहुत कुछ सोचता, हाथ पैरों से बहुत कुछ करता एवं इन्द्रियों से बहुत कुछ रसास्वादन करता है, चेतन तत्व निकल जाने पर निकम्मा बन जाता है। इसलिये सांसारिक सुख साधनों की उपयोगिता होने पर भी महत्ता चेतन तत्व की ही है। समस्त सुख- साधनों का वास्तविक आधार और मूल स्रोत वही है।
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