शुद्धं परिधानंमाधाय शुद्धे वै वायु मण्डले ।।
शुद्ध देहमनोभ्यं वै कार्यागायत्र्युपासना ॥
(शुद्धं) शुद्ध (परिधानं) वस्त्रों को (आघाय) धारण करके (शुद्धे वै) शुद्ध ही (वायु मण्डले) हवा में (शुद्ध देह मनोभ्यां) देह एवं मन को शुद्ध करके (गायत्र्युपासना कार्य) गायत्री की उपासना करनी चाहिए ।।
एकवारं सकृन्मालाँ न्यूनतोन्नून माजपन् ।।
धीमामंत्र शतं नित्यमष्टोत्तरं जपेत् ॥
(न्यूनतो न्यूनं) कम से कम (सकृत्) एक बार में (मालां) माला को (एक बारं) एक बार, (आजपन्) जपता हुआ (धीमान्) बुद्धिमान पुरूष (नित्यं) नित्य प्रति (अष्टोत्तर मंत्र शतं) एक सौ आठ मंत्रों का (जपेत्) जप करें ।।
आत्मा में पवित्रता उत्पन्न करने के लिए पवित्र वातावरण की आवश्यकता होती है। यह ठीक है कि व्यक्तियों से वातावरण बनता है पर यह भी ठीक है कि वातावरण व्यक्तियों को बनाता है। प्रबल मानसिक शक्ति रखने वाले व्यक्ति अपने आत्म तेज से निकटवर्ती वातावरण को अनुकूल बनाते हैं, वे बुरे को भले में परिवर्तित कर देते हैं पर जिनकी आत्मशक्ति प्रचंड नहीं है वे वातावरण से प्रभावित होते हैं, परिस्थितियाँ उन्हें अपनी ओर खींच ले जाती हैं। साधारण लोग परिस्थितियों से ,, वातावरण से प्रभावित होकर अपनी पूर्व गति विधि को बदल कर नया रवैया, अख्तियार कर लेते हैं। सत्संग और कुसंग के प्रभाव से मनुष्यों का कुछ से कुछ बन जाना प्रसिद्ध है ।।
कि साधक प्रारम्भिक अवस्था में होता है, उस पर वातावरण का प्रभाव पड़ता है। इसलिए यह आवश्यक है कि आत्मिक पवित्रता की स्थापना के लिए वातावरण को पवित्र बनाया जाय। मैले कुचैले, गन्दे, जुएँ आदि से भरे गन्दे वस्त्र शरीर कर लदे हों तो शरीर को स्वच्छ सांस लेने का अवसर नहीं मिलता ।। यह ध्यान में रखते हुए साधना काल में कम से कम वस्त्र धारण करने चाहिए ।। ऋतु प्रभाव से शरीर रक्षा के लिए जो वस्त्रआवश्यक हों, उन्हें पहनते हुए यह देख लेना चाहिए कि वे धुले हुए, धूप में सुखाये हुए हों। अच्छा तो यह है कि साधना के लिए एक दो वस्त्र अलग ही रखे जाय। यदि ऐसा न हो सके तो स्नान के साथ मैले कपड़े भी धो डालने चाहिए और इस क्रम का नित्य व्यवहार करने से नित्य धुले कपड़े मिल सके ते हैं। यदि साधना के वस्त्र अलग रखे जायँ तो उनमें सात्विक वातावरण भरा रहता है और वह साधना में सहायक होता है, ऐसे वस्त्र यदि नित्य न धोये जावें तो भी उन्हें धूप अवश्य लगा लेनी चाहिए ।। विदेशी चर्बी की माँडी लगे हुए, चमड़े आदि से युक्त वस्त्रों का उपयोग न करके खादी के या स्वदेशी कपड़ों का प्रयोग करना चाहिए ।।
साधना के लिए ऐसे शुद्ध स्थान की आवश्यकता है जहाँ अनरूद्ध स्वच्छ वायु का आवागमन भली प्रकार होता है, जहाँ सूर्य की किरणें निर्बाध रूप में पहुँचती हैं। शास्त्रकारों ने कहा है कि जहाँ सविता और मरूत देव का आवागमन नहीं होता वहाँ यातुधान (राक्षस) रहते हैं। राक्षसों के घर में, उनके समूह के बीच बैठकर किसी सतोगुणी साधना का सफल होना कठिन है ।। इसलिए ऐसा स्थान चुनना चाहिए जो प्रकाश एवं वायु के लिए खुला हुआ हो, साथ ही एकान्त भी हो। कोलाहल, धूल, धुआँ, यातायात की जहाँ भरमार है वहाँ चित्त एक स्थान पर नहीं जमता बार बार उचट जाता है। इसलिए उपयुक्त स्थान तलाश करना चाहिए ।। बहुत बड़े, घनी आबादी के शहरों में ऐसे एकान्त स्थानों की प्रायः कमी होती है, ऐसी दशा में जो स्थान उपलब्ध हो उसमें से जो भाग अधिकतम स्वच्छ और एकान्त हो उसे चुना जा सकता है।
शरीर की शुद्धि आवश्यक है। साधारणतया स्नान आवश्यक है। भारत जैसे उष्ण प्रदेश में पसीने का स्राव अधिक मात्रा में रहने के कारण, ऊष्मा बढ़ी रहने के कारण, स्नान को हर धार्मिक कार्य के लिए अनिवार्य माना गया है। गायत्री साधना भी आमतौर से स्नान करने के उपरान्त ही की जाती है पर कभी कोई असाधारण अड़चन सामने आ जाय तो उसके लिए अपवाद भी रखा गया है। बीमारी, ऋतु में असाधारण परिवर्तन, अत्यधिक शीत, यात्रा तथा आपत्ति में यदि पूर्ण स्नान सम्भव न हो तो दसों इन्द्रियों को, मल द्वारों को, स्नान कराके नित्यकर्म की साधना की जा सकती है। हाथ पांव, मुँह मल मूत्रेन्द्रियों को भली प्रकार धो लेने से काम चलाऊ शारीरिक शुद्धि हो जाती है ।।
मन की शुद्धि के लिए : (१)चित्त की एकाग्रता, (२) सांसारिक झंझटों का विस्मरण, (३) साधना में तन्मयता, (४) भावनाओं में सात्विकता तथा शान्ति, इन चार बातों की आवश्यकता होती है इन चार उपचारों से मन शुद्ध होता है। इस स्थिति को लाने के लिए ‘शिथलीकरण मुद्रा’ करनी चाहिए ।। उसकी विधि इस प्रकार है-
शान्त चित्त से मेरूदंड को सीधा रखकर पद्मासन से अथवा पालथी मार कर बैठना चहिये ।। हाथों को समेट कर गोदी में या फैलाकर दोनों घुटनों पर रख लीजिए। नेत्र बन्द कर लीजिए। अब ऐसा ध्यान कीजिए कि ‘‘मेरा शरीर बिल्कुल ढीला तथा शिथिल है, हाथ- पांव आदि अंग निर्जीव, निश्चेष्ट जैसे हो गए हैं। मेरे चारों ओर नीलवर्ण सतोगुणी अनन्त आकाश फैला हुआ है और उसमें मैं, एकमात्र मैं, आनन्द निमग्न होकर कल्लोल कर रहा हूँ ।’’ इस ध्यान से चित्त का एक स्नान हो जाता है और उसमें तुरन्त शांति तथा एकाग्रता की स्थापना होती है। इस प्रकार वस्त्र, स्थान, शरीर और मन की चतुर्विधि शुद्धि कर लेने के से साधना के योग्य पवित्र वातावरण बन जाता है। वस्त्रों से कीड़े, चींटी धूल आदि झाड़ कर पहनना चाहिए, भूमि पर बुहारी लगाकर पानी छिड़क कर आसन बिछाकर बैठना चाहिए, शरीर को सीधा और स्वस्थ रखना चाहिए तथा मन को प्रफुल्ल, श्रद्धान्वित करके साधना में लगाना चाहिए। इस प्रकार आरम्भ करने से आगे का मार्ग बहुत ही सरल हो जाता है।साधना के अनेकों विधान हैं, उनमें से जिसे अपने उपयुक्त जो ठीक जँचे उसे वह अपना सकता है और उनके आधार पर बहुमूल्य लाभों को प्राप्त कर सकता है। पर कम से कम इतना तो हर व्यक्ति को करना ही चाहिए कि नित्य एक माला पूरी करके १०८ मंत्र जप लें। माला में एक सौ आठ दाने होने का कारण चौवन मंत्रिाकओं का उभयपक्षीयक्रम है। अ से लेकर ज्ञ तक ५२ अक्षर हैं एक ॐ दूसरा (ल) इस प्रकार ५४ अक्षर (मात्रिकाएँ) होती हैं। यह मात्रिकाएँ नाभि से आरम्भ होकर ओष्टों तक आती है, इनका एक बार चढ़ाव, दूसरी बार उतार होता है, दोनों बार में वे १०८ की एक माला बन जाती हैं ।। इसी आधार पर जप की माला में १०८ दाने रखने का विधान किया गया है। एक माला के १०८ मंत्र जपने से नाभि चक्र से लेकर जिव्हाग्र तक की १०८ सूक्ष्म तन्मात्राओं का प्रस्फुरण हो जाता है। अधिक जितना हो सके उतना उत्तम है पर नित्य कम से कम १०८ मंत्रों की एक माला का जप तो करना ही चाहिए ।।
माला जप में हमारी सहायक होती है। प्रत्येक माला में १०८ दाने रखने का विधान है। इन्हीं पर सभी मन्त्रों मा जाप किया जाता है। अंगिरा स्मृति में कहा गया है-
‘‘बिना दर्मैश्च यत्कृत्यं यच्चदानं विनोदकम् ।।
असंख्यया तु यज्ञप्तं तत्सर्व निष्फलं भवेत् ॥’’
अर्थात् बिना कुशा के जो सतत धर्मानुष्ठान और बिना जल संस्पर्श के जो दान तथा बिना माला संख्या ही जो जप किये जाते हैं, वे सब निष्फल होते हैं।
माला की सहायता से जाप करने के कई प्रत्यक्ष लाभ हैं। इससे यह सरलता से ज्ञात हो जाता है कि हमने मन्त्रों के कितने जाप किये हैं। फिर अँगूठे और अँगुली के संघर्ष से एक विलक्षण विद्युत उत्पन्न होती है, जो धमनी के तार द्वारा सीधी हृदय- चक्र को प्रभावित कर मन को तुरन्त ही निश्चल कर देता है। माला के इन १०८ दानों का अपना विशुद्ध वैज्ञानिक रहस्य है ।।
(१) प्रकृति- विज्ञान की दृष्टि से विश्व में प्रमुख रूप से कुल सत्ताईस नक्षत्र के चार चरण ज्योतिष शास्त्र में प्रसिद्ध हैं। सत्ताईस को चार चरणों में गुणा करने पर एक सौ आठ संख्या होती है। अतः १०८ संख्या समस्त विश्व का प्रतिनिधित्व करने वाली सिद्ध होती है। ब्रह्माण्ड में सुमेरु (जो माला के दानों के अतिरिक्त ऊपरी भाग में पृथक् होता है) की स्थिति सर्वोपरि मानी गई है। अतः माला में भी सुमेरु का स्थान सर्वोपरि ही रखा जाता है तथा उसका उल्लंघन नहीं किया जाता।
(२)दिन- रात में मनुष्य मात्र के श्वासों की संख्या इक्कीस हजार छः सौ वेद शास्त्रों में दी गई है-
षट् शतानि दिवारात्रौ सहस्राण्येक विंशतिः ।।
एतत्संख्यात्मकं मन्त्र जीवो जपति सर्वदा ॥
-(चूड़ामणि उपनिषद् ३२।३३)
इस हिसाब से दिन भर के श्वाँस १०८०० हुए तथा रात भर के श्वाँसों की संख्या भी १०८०० ही हुई। जप प्रमुख रूप से उपांशु किया जाता है
, जिसका फल सामान्य रूप से सौ गुना बताया गया है ।। अतः प्रातः, सायं, संध्या में १०८- १०८ जप करने से १०८ x १०० = १०८०० हुआ ।।
(३) ज्योतिष शास्त्र में समस्त विश्व- ब्रह्माण्ड को १२ भागें में विभाजित किया गया है। जिन्हें ‘‘राशि’’ संज्ञा प्रदान की गई है तथा प्रमुख रूप से ९ ग्रह माने गये हैं ।। अतः राशि तथा ९ ग्रह का गुणनफल १०८ होता है ।।
(४) सृष्टि का मूल है ब्रह्म, जो कि निर्गुण, निर्विकार, नित्य, सत्य एवं एकत्व युक्त है। उससे उत्पन्न अव्यक्त में इस गुण के अतिरिक्त आवरण शक्ति का प्राधान्य है, जिससे उसका स्वभाव दो प्रकार का हो ही जाता है ।। इससे आगे महत् है, जिसमें उपर्युक्त दो गुणों के अतिरिक्त विक्षेप शक्ति का समावेश भी है। फलतः वह त्रिगुणात्मक हुआ। अहंकार ब्रह्म का चतुर्थावकार है, जो तत्वों के आधिक्य और पूर्ववर्ती पदार्थ के तीन गुणों के भी करने से चार गुणों वाला हुआ ।।
इस प्रकार हिंदू संस्कृति में माला के १०८ दाने अपना- अपना पृथक् महत्त्व रखते हैं। सभी मन्त्रों का जाप इन्हीं पर करने का विधान है, जो विशुद्ध वैज्ञानिकता से परिपूर्ण है ।।