गायत्री सर्वतोन्मुखी समर्थता की अधिष्ठात्री

साधना के चार नियम

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ब्राह्मे मुहुर्ते प्राच्यस्यो मेरूदण्ड प्रतन्यहि ।।

पद्मासनं समासीनः सन्ध्यां वन्दन माचरेत्

(ब्राह्मे मुहुर्ते) ब्राह्म मुहुर्त में (प्राच्यास्याः) पूर्वाभिमुख होकर (मेरूदण्ड) मेरूदण्ड को (प्रतन्य हि) तान कर अर्थात् सीधा कर (पद्मासनं समासीनः) पद्मासन पर बैठकर (सन्ध्या वन्दनं) सन्ध्या वन्दन (आचरेत्) करे ।।

गायत्री अभिवन्दन के लिए चार बातें भली प्रकार समझ लेने की है। क्योंकि इन नियमों के बिना किया हुआ साधन समुचित फल उत्पन्न नहीं करता। कोई कार्य कितना ही उत्तम, लाभदायक और सुलभ क्यों न हो, पर उसे यथा नियम करने से ही सफलता प्राप्त होती है। भोजन करना, जल पीना, स्नान, चलना- फिरना, लेटना, बैठना, सांस लेना, पलक मारना, मल मूत्र त्यागना जैसे साधारण दैनिक कार्यों को भी यदि उनके नियत विधि विधान के साथ न किया जाय तो उस अव्यवस्था के कारण भयंकर परिणाम उपस्थित हो सकते हैं। हर कार्य की एक प्रणाली होती है, अपने निर्धारित मार्ग पर चलने से सब वस्तुएँ उपयोगिता प्रकट करती हैं, अवरोध की दशा में उन्हीं से भारी विपत्ति उत्पन्न हो सकती है। रेल गाड़ी अपनी पटरी पर चलती है, यदि पटरी हटा दी जाय और खेत खलियानों में होकर चाहे जिधर उसे चलाया जाय, तो रेलगाड़ी का लाभ यात्रियों को न मिल सकेगा। पर्वतों से निकल कर एक विशाल जल राशि नदियों के मार्ग से चलती हुई समुद्र तब पहुँचती रहती है। यदि उस जल को नियत मार्ग से जाने देने की अपेक्षा चाहे जहाँ होकर बहाया जाय तो उससे जल प्रलय के दृश्य उपस्थित हो सकते हैं। आकाश में असंख्यों ग्रह नक्षत्र अपने- अपने मार्ग पर अस्तित्व बनाये हुए हैं, वे अपनी विधि- व्यवस्था छोड़ दें और चाहे जिधर, चाहे जिस गति से दौड़ने लगें तो वे आपस में टकरा- टकरा कर महा प्रलय उत्पन्न कर दें। सृष्टि का प्रत्येक कार्य एक निर्धारित क्रिया प्रणाली से चलता है, उस व्यवस्था में गड़बड़ी हो जाने से विपन्न अवस्था पैदा हो जाती है। प्रत्येक साधना की भांति गायत्री साधना के सम्बन्ध में भी यही बात है। उसे नियमानुसार करने से ही लाभ प्राप्त होता है ।। अविधि पूर्वक करने से अन्य साधनाओं की भांति वेद माता गायत्री क कोई भयंकर अनिष्ट तो उपस्थित नहीं करती पर उसके लाभ से वंचित ही रहना पड़ता है। यह समय और श्रम की व्यर्थता भी एका हानि ही है, इसलिए गायत्री साधकों को उन चार बातों को भली प्रकार समझ लेना चाहिए, जो इस साधना के लिए आवश्यक हैं ।।

पहली बात यह है कि साधना को ब्राह्म मुहूर्त में करना चाहिए। सूर्योदय से एक घंटा पीछे तक ब्राह्म मुहूर्त रहता है। यह परम सात्विक शान्ति दायक, चैतन्यता पूर्ण तथा दिव्य वातावरण से युक्त होता है। प्राणी रात्रि में निद्रा लेकर अपनी थकान मिटाते हैं और विश्राम के द्वारा शक्ति संचय करके प्रातःकाल चैतन्य हो उठते हैं, उस समय हर एक के मन में स्फूर्ति, ताजगी एवं स्थिरता होती है। उस दशा में जो भी कार्य किया जाता है बहुत उत्तम होता है। जिस प्रकार प्राणी रात्रि में विश्राम लेकर सवेरे सक्षम हो जाते हैं, उसी प्रकार सृष्टि के जड़ तत्व भी रात्रि में विश्राम करने के पश्चात् नई चेतना के साथ प्रकट होते हैं। दिन में सूर्य की गर्मी से हर एक पदार्थ में हलचल बढ़ जाती है, वह अपने- अपने क्षेत्र में दौड़ धूप करता है। रात्रि आते ही वह गर्मी की उत्तेजना घट जाती है ।। अन्धकार छा जाता है, स्तब्धता आ जाती है, वैज्ञानिकों का कथन है कि रात्रि में वृक्ष वनस्पति तथा अन्य जड़ कहे जाने वाले पदार्थ भी सोते हैं। हमारे धर्मग्रन्थ तो सदा से ऐसा ही मानते आये हैं, इसलिए उन्होंने रात्रि में पेड़ों के पत्ते न तोड़ने, जलाशयों में हलचल उत्पन्न न करने को धर्म नियमों में सम्मिलित किया है। रात्रि की निद्रा लेकर प्रातःकाल भगवान भास्कर की नवीन सूक्ष्म किरणें, एक घंटा पूर्व से ही आनी आरम्भ हो जाती है ।। पौ फटना, बहुत देर पहले शुरू हो जाता है यह प्राथमिक प्रकाश उन सूक्ष्म किरणों का ही होता है ।। यह सूर्य नारायण की अग्रदूती उषा ब्राह्मी चेतना है, वह जड़ चेतन सृष्टि को हलके- हलके सोते से जगाती है ।। दयामयी माता जैसे प्रातःकाल बालक को जगाकर उसे मलमूत्र से निवृत्त कराती है, हाथ मुँह धुलाकर, स्नान कराकर, नवीन वस्त्र पहना कर सुसज्जित कर देती है, उसी प्रकार भगवती उषा इस समस्त सृष्टि को अपने ब्रह्मस्पन्दनों द्वारा जागृतचैतन्य और प्रफुल्ल बना देती है। इस प्रफुल्लता से वन उपवनों में पुष्प खिलखिला कर हँस पड़ते हैं ।।


पौधे हरे- भरे हो जाते हैं, पशु किलकारियाँ मारते हुए उछल- कूद मचान लगते हैं, पक्षी अपने मनोरम संगीत से दिशाओं को कलरव से गुंजित कर देते हैं। कीड़े कोड़े अपने बिलों में से मुँह चमका कर इस नव चेतना का दर्शन और अभिवन्दन करते हैं। वायु मन्द मलय बहाता है, जल की शीतलता चहुँ ओर अनुभव होती है, अग्नि का तेज, चैतन्यता वितरण करता है। अरूण प्राची दिशा को चित्र सा सुन्दर रंगबिरंगा चित्रित कर देता है। यह समय सब प्रकार से दिव्य है। वैज्ञानिक कहते हैं प्रातःकाल की वायु में ऑक्सीजन तथा ओनियम के प्राण पद तत्व अत्यधिक मात्रा में रहते हैं। आध्यात्मिक आचार्य कहते हैं कि ब्राह्म मुहूर्त में सतोगुण का प्रवाह बड़े संतोषजनक परिमाण में प्रवाहित होता है। सभी दृष्टियों से प्रातःकाल का समय सर्वश्रेष्ठ है ।। इस श्रेष्ठ समय का उपयोग जीवन के सर्वश्रेष्ठ कार्य में किया जाना चाहिए। ऐसा कार्य है -‘आत्मकल्याण’ इससे बढ़कर कोई महत्त्वपूर्ण कार्य जीवन में नहीं है ।। इसलिए प्रातःकाल का ब्राह्म मुहूर्त संध्यावन्दन के लिए नियोजित किया गया है। दोपहर, तीसरे पहर, रात विरात यों तो किसी भी समय भगवान का नाम ले सकते हैं- आत्म चिन्तन कर सकते हैं पर इस समय का महत्व निराला है। बाजे तो चाहे जब बजते रहते हैं पर शादी, पुत्र जन्म, उत्सव आदि के समय पर बजने वाले बाजों में कुछ दूसरा ही उत्साह होता है। ब्राह्म मुहूर्त की साधना का आनन्द भी कुछ ऐसा ही अनौखा है उसकी तुलना अन्यों समयों में नहीं हो सकती ।।

सन्ध्यावन्दन का अर्थ है- वह वन्दन हो संध्या काल में किया जाय। संध्या संधि- काल को कहते हैं। रात्रि और दिवस का जिस समय मिलन होता है, वह संधि कहलाती है और उस मिलन काल में की हुई उपासना संध्या है। प्रातःकाल और सायंकाल की, सूर्योदय और सूर्य अस्त की दोनों संध्याओं में आध्यात्मिक उपासनाओं का विधान किया गया है, पर इन दोनों में प्रातःकाल तो अत्यधिक आवश्यक है ।। क्योंकि उसकी श्रेष्ठता, सायंकाल की संधि से अनेक गुनी अधिक है ।। यदि छोड़ना हो तो सायंकाल की संध्या छोड़ी जा सकती है पर प्रातःकाल की उपासना के लाभ से तो किसी को वंचित रहना ही न चाहिए।

उपासना में दूसरी जानने योग्य बात यह है कि पूर्व की ओर मुंह करके साधन किया जाय। यह सर्व विदित है कि उत्तर दिशा में पृथ्वी का केन्द्र ध्रुव होने के कारण उधर से एक चुम्बक शक्ति प्रवाहित होती है, कुतुबनुमा यंत्र की सुई अपने आप उत्तर दिशा की ओर मुँह कर लेती है। उसे कितना ही घुमाइये सुई उत्तर में ही ठहरेगी। कारण यह है कि उत्तर ध्रुव का चुम्बकत्व उन सब पदार्थों को अपनी ओर खींचता रहता है जिनमें चुम्बकत्व शक्ति का अंश विद्यमान है। मनुष्य के मस्तिष्क में भी चुम्बकत्व शक्ति होती है, यदि हम उत्तर को सिर करके सोते हैं, तो रात्रि को मस्तिष्क चैन से नहीं बैठने पाता, उधर खिंचता रहता है और रातभर स्वप्न आते रहते हैं ।। इसीलिए कर्मकाण्ड ग्रन्थों में दक्षिण को पैर करके (अर्थात् उत्तर को सिर करके) सोने का निषेध किया गया है।

जैसा कि भौतिक चुम्बक ध्रुव उत्तर दिशा में है वैसा ही आध्यात्मिक ध्रुव पूर्व दिशा में है ।। सूर्य की दिशा पूर्व में है। पृथ्वी पूर्वकाल में जिस दिशा में थी उसे पूर्व कहते हैं। पूर्व की वायु में अधिक प्राण एवं चैतन्यता होती है। जब वह चलती है तो वर्षा होती है, अगणित उद्भित प्राणी उत्पन्न हो जाते है, वनस्पति जगत में नया प्राण उत्पन्न हो जाता है ।। पृथ्वी में भारतवर्ष को पूर्व कहा जाता है यहाँ आध्यात्मिक तत्वों की सदा से अधिकता रही है। हमारे इस सौर्य मण्डल का केन्द्र सूर्य है जो कि पूर्व में है। समस्त सृष्टि का आध्यात्मिक केन्द्र- ब्रह्म लोक भी पूर्व में है ।। इसलिए आत्मतत्वों को अधिक मात्रा में प्राप्त करने के लिए हमें उसी दिशा में मुँह करके साधना करनी होती है। रेडियो यंत्र में लगी हुई सुई जिस दिशा की आकाशवाणी सुनने के लिए घुमा दी जाती है उधर की ही शब्दावली हम सुनने लगते हैं। हमारा मुख भी एक प्रकार की रेडियो की सुई है, इसे जिस दिशा में घुमा देते हैं उस दिशा में सूक्ष्म तत्वों से हमारा सान्निध्य हो जाता है। ब्राह्म मुहूर्त में संध्यावन्दन करने के लिए हमें पूर्व की ओर मुँह करके बैठना चाहिए जिससे ब्रह्म दिशा से प्रवाहित होकर आने वाले सूक्ष्म सतोगुणी तत्वों को  हम अधिक मात्रा में ग्रहण कर सकें, उनसे लाभान्वित हो सकें ।।

जानने योग्य तीसरी बात है- मेरूदंड को साधा रखना। डॉक्टर लोग बताते हैं कि शरीर की आधार शिला मेरूदंड है। यदि मेरूदंड- पीठ की रीढ़ की हड्डी- कट जाय तो मनुष्य का प्राण नहीं बच सकता। यह आधार दंड, छोटे- छोटे ३३ अस्थि घटकों से मिल कर बना है, पर इसके भीतर बड़े- बड़े आवश्यकीय तन्तुओं का गुन्थन है। मस्तिष्क की सूक्ष्म चेतनता को शरीर के अंगों से सम्बन्ध रखने वाली टेलीग्राफी की, विद्युत संचालन की, सारी मशीनरी इसी किले के अन्दर रखी हुई है। शरीर शास्त्री मेरूदंड को महत्वपूर्ण मर्म स्थान मानते हैं और इसकी सुरक्षा के लिए वे सदा सीधा बैठने का आदेश करते हैं। झुके- झुके संदूकची पर कागज रखकर लिखा पढ़ी करने को डाक्टरों ने बुरा बताया है और मेज कुर्सी की सहायता से सीधा बैठ कर लिखा पढ़ी करने को ठीक प्रमाणित किया है। शिक्षा शास्त्रियों ने अध्यापकों को कड़ी हिदायतें दे रखी हैं कि विद्यार्थियों को झुककर बैठने की आदत न पड़ने दी जाय ।। कारण यह है कि झुक कर बैठने से रीढ़ की हड्डी मुड़ जाती है और इस पोले बाँस के अन्दर भरे हुए तन्तुओं का कार्य रूक जाता है, मोड़ पड़ने से उसमें रक्त का दौरा कम हो जाता है, फलस्वरूप मानसिक चैतन्यता का सम्बन्ध शरीर से घट जाता है, यह त्रुटि स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध होती है।

स्थूल दृष्टि से, स्वास्थ्य की निगाह से, सदा कमर को सीधा रखकर बैठना आवश्यक है। पर आध्यात्मिक दृष्टि से, विशेष कर साधना काल में तो वह अनिवार्य है। कारण यह है कि मेरूदंड में होकर इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नामक तीन नाड़ियाँ प्रवाहित होती है, जो मूलाधार चक्र में स्थित कुंडलिनी शक्ति तक प्राण वायु पहुंचाकर उसे रेचक कुंभक पूरक कराती रहती है। सुप्त कुंडलिनी के स्वाभाविक प्राणायाम से शरीर में प्राण स्थिर रहता है, मेरूदंड के मुड़ने से इस प्राणायाम में बाधा पड़ती है और प्राण निर्बल होता है। इस दोष के निवारण के लिए उचित तो यह है कि यथा सम्भव सदा सीधा ही रहने का प्रयत्न किया जाय, पर साधन काल में तो इसकी सर्वोपरि उपयोगिता है, कुंडलिनी को पूरा प्राण पहुँचाने के लिए मेरूदंड का सीधा रखना आवश्यक है।

मस्तिष्क से लेकर गुदा मूल तक छः आध्यात्मिक चक्र शरीर में होते हैं जिन्हें आज्ञाचक्र, विशुद्ध चक्र, अनाहत चक्र, मणिपुर चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र और मूलाधार चक्र कहते हैं, इन चक्रों में कितनी- कितनी अद्भुत शक्तियाँ हैं और उनके जागरण से किस प्रकार सिद्ध लोग अष्ट सिद्धि, नव निधि प्राप्त करते हैं, इसका वर्णन तो स्वतंत्र रूप से करेंगे, यहाँ तो इतना ही जान लेना पर्याप्त होगा कि यह षट् चक्र मेरूदंड से सम्बन्धित है। साधना काल में आत्मोन्नति के लिए जो विविध प्रकार के कर्म काण्ड किये जाते हैं उनसे इन चक्रों में निहित गुप्त शक्तियाँ जाग्रत होती हैं और उस जागरण से आत्मबल बढ़ता है, दिव्यत्व की वृद्धि होती है और अलौकिक सम्पत्तियों का भंडार जमा होता है। यदि मेरूदंड झुका रहे, टेढ़ा रहे तो उसके भीतर होने वाली क्रिया प्रणाली पर स्वभावतः दबाव पड़ेगा और उस दबाव से शारीरिक और आत्मिक दोनों ही प्रकार की क्षति होगी। इन सब बातों को ध्यान में रखकर यह आवश्यक नियम बनाया गया है कि साधना काल में मेरूदंड सीधा रखा जाय।

जानने योग्य चौथी बात यह है कि पद्मासन से बैठा जाय। ब्राह्मी स्थिति में स्थित होने के लिए किस प्रकार बैठना चाहिए ? इस प्रश्न का उतर पाने के लिए योगियों को आदि काल की सूक्ष्मता तक पहुँचना पड़ा है। ब्रह्माजी ने वेद माता गायत्री से वेद का निर्माण कमल के आसन पर- पद्मासन पर बैठ कर किया। इस पद्मासन की दो और आकृतियाँ हैं, क्षीर सागर में विष्णु का आसन सर्प है जो कुण्डली मारे हुए बैठी है, उसके मध्य में विष्णु भगवान विराजमान हैं ।। दूसरे मनुष्य की प्राणधारिणी कुंडलिनी शक्ति भी सर्प की भांति कुंडल बाँधे हुए अवस्थित है ।। कमल पुष्प स्थित ब्रह्मा, सर्प स्थित विष्णु और कुंडली धारी शंकर की स्थिरता का अनुकरण करके पैरों को उसी प्रकार कुंडल कार कमलवत बनाकर बैठना ठीक समझा गया ।।

नाभि से नीचे का अधोभाग वावनामय और ऊपर का भाग भावनामय माना गया है। पद्मासन में पैरों को इस प्रकार मोड़ा जाता है कि नीचे के सभी वासना मय स्नायु खिंच का बंध जाते हैं। महिषासुर मर्दनी का अलंकार पद्मासन से लिया गया है। वासना को महिष कहा गया है। उसे पछाड़ का उसकी छाती पर कुंडलिनी बैठती है। वासनामय अंगों, स्नायुओं को ब्रह्मपाश में बांध कर डाल दिया जाता है, पैरों को मोड़ कर इस प्रकार रखा जाता है कि पिंडलियों की नाड़ियां खिंच, जकड़ और बंध जावें, विघ्नकर्त्ता महिषासुर को बांधकर पटक देने के पश्चात् निर्भयता पूर्वक निश्चिन्तता के साथ साधना की जा सकती है, उसमें विक्षेप नहीं पड़ता ।। पद्मासन के अनेक रहस्यों में से यह भी एक महत्त्वपूर्ण रहस्य है ।।

यों तो पद्मासन के अनेकों प्रकार हैं और उनके विनियोग भी पृथक् हैं। पर हम अपने पाठकों को सौम्य पद्मासन से बैठने की अनुमति देंगे ।। सीधे तरीके से जैसे भोजन करते समय पालथी मार कर बैठते हैं जिसमें किसी अंग विशेष पर तनाव या दबाव नहीं पड़ता, जिस पर बैठने में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता उसे सौम्य पद्मासन कहते हैं। प्रायः यही आसन सर्व साधारण के लिए उपयोगी होता है। अन्य कष्टकारक प्रयत्न साध्य, पद्मासन विशेष प्रयोजनों के लिए, खासतौर से हठयोग के लिए हैं।

भूमि को झाड़ बुहार कर उस पर जल छिड़कें, कुश का या अन्य किसी प्रकार की घास का आसन बिछावें, उस पर सौम्य पद्मासन से पूर्व को मुख करके बैठें। मेरूदंड को सीधा रखें। हाथों को गोदी में रख लें अथवा उन्हें फैलाकर दोनों घुटनों पर रख लें। नेत्र अधखुले- ध्यान मुद्रा में हों, और चित्त में शान्ति तथा स्थिरता रहे। इस प्रकार ब्राह्म मुहूर्त में किया हुआ संध्यावन्दन सब प्रकार सफल होता है।
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