गायत्री सर्वतोन्मुखी समर्थता की अधिष्ठात्री

प्रार्थना में भावना की प्रधानता

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यों गायत्री को अगणित मनुष्य जानते हैं, उसका उच्चारण और स्मरण भी करते हैं, उसका उतना ही सीमित लाभ भी होता है, जितना कि समय- समय पर ईश्वर से की जाने वाली प्रार्थना का होता है। प्रार्थना में भावना प्रधान होती है, जितनी तीव्र गहरी भावना से प्रार्थना की जायगी उतना ही उसका परिणाम भी होगा। ग्राह के मुख में फँसे हुए गज ने जब अपने अन्तस्तल की पूरी गहराई और प्रबल भावना के साथ भगवान् को पुकारा तो वे अपने वाहन गरुड़ की मन्दगति अपर्याप्त समझ कर जल्दी भक्त की रक्षा करने के लिए नंगे ही पैरों दौड़े आये। किन्तु कितने ही लोग ऐसे भी हैं, जो देर तक प्रार्थना करते रहते हैं, फिर भी उसका कुछ परिणाम नहीं होता। कारण एक ही है कि उनकी प्रार्थना में शब्द और विचार तो होते ही हैं पर भावों की गम्भीरता नहीं होती। उसके अन्तराल से निकलती हुई प्रार्थना का प्रभाव तो होता है पर बहुत ही कम गायत्री मन्त्र का उपयोग बिना किसी विधि विधान के प्रार्थना रूप में किया जा सकता है। पद उसका न्यूनाधिक परिणाम प्रार्थना करने वाले की भावना के अनुरूप ही होगा।

प्रार्थना में भावना की प्रधानता का प्रतिपादन करते हुए शास्त्रों में कहा गया है-

भावेन लभते सर्व भावेन देव दर्शनम् ।।
भावेन परमं ज्ञानं तस्याद भावावलम्बनम् ॥

-रूद्रमल

भाव से सब कुछ प्राप्त होता है। भावना की दृढ़ता से ही देव- दर्शन होते हैं। भावना से ही ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिए भाव का ही अवलम्बन करना चाहिए।

यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ।।
जिसकी जैसी भावना होती है, उसे वैसी ही सिद्धि मिलती है।


ऐसी भावमयी प्रार्थना के लिए नियमोपनियमों या साधना- विधानों का कोई बन्धन रहीं है।

अशुचिर्वाशुचिर्वापि गच्छन् तिष्ठन् यथा तथा ।।
गायत्री प्रजपेद्धमान् जपात्  पापात्रिवर्तते ॥

अपवित्र हो अथवा पवित्र हो, चलता हो अथवा बैठा हो, जिस भी स्थिति में हो, बुद्धिमान मनुष्य गायत्री का जप करता रहे। इस जप के द्वारा पापों से छुटकारा होता है ।।
-गायत्री तन्त्र

मानसिक जाप को प्रार्थना की संज्ञा में माना गया है इसलिये उसमें नियम बन्धनों का प्रतिबन्ध नहीं है ।।

अशुचिर्वा शुचिर्वापि गच्छांस्तिष्ठन् स्वपन्नपि ।।
मंत्रैक शरणो विद्वान् मनसैव सदाभ्यसेत् ॥
न दोषो मानसे जाप्ये सर्व देशेऽपि सर्वदा ।।
पवित्र हो अथवा अपवित्र, चलते- फिरते, बैठते- उठते, सोते- जागते एक ही मन्त्र की शरण लेकर उसका सदा मानसिक जप करता रहे।
मानसिक जप में किसी समय य स्थान का दोष नहीं होता ।।

प्रार्थना तभी सुनी जाती है, जब उसमें अनन्यता एवं तन्मयता हो। विषयी, लोभी, कामी पुरूषों को अपने विषय में, जैसी लगन होती है, वैसी ही यदि ईश्वर में निष्ठा और भक्ति हो तथा गज के समान गहन अन्तस्तल में प्रार्थना की जाय तो उसका प्रभाव वैसा ही होता है जैसा कि हुमायूँ की बीमारी के समय उसके पिता बाबर ने खुदा से इबादत की कि मेरा बेटा जी जाय और मैं उसके बदले मर जाऊँ ।। उसकी प्रार्थना सुन ली गई थी, बाबर मर गया और हुमायूँ कठिन बीमारी में अच्छा हो गया।

प्रार्थना की सफलता का रहस्य भक्त की इन भावनाओं पर आधारित रहता है ।।
या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वन पापिनी ।।
त्वामनुस्यरतः सा मे हृदयान्याय सर्पतु ॥

-विष्णु पुराण

जिस प्रकार अविवेकी मनुष्यों की प्रीति विषयों में होती है, वैसी ही मेरी प्रीति सदा तुम में बनी रहे ।।
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