गायत्री सर्वतोन्मुखी समर्थता की अधिष्ठात्री

रहस्यों का जानना आवश्यक है

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गायत्री तत्त्व के सूक्ष्म रहस्यों को जानने के उपरान्त ही उसकी उपासना वास्तविक रूप में होना सम्भव है। उसके मर्म विज्ञान को समझे बिना साधारण रीति से जो उपासना क्रम चलाया जाता है, उसका परिणाम तो होता है, पर उसकी मात्रा स्वल्प ही होती है ।। उपासना का समुचित सत्परिणाम प्राप्त करने के लिए इस विज्ञान के रहस्यों को समझना और उनका अनुशीलन करना आवश्यक है। मनुष्य की आत्मा पर चढ़े हुए मल, विक्षेप आवरणों को हटाने के लिए जैसी तीव्र साधना एवं महान निष्ठा की आवश्यकता है, उसको उपलब्ध करने के लिए गायत्री के तत्त्वज्ञान को समझना चाहिए।

शतपथ ब्राह्मण में एक आख्यायिका आती है, जिसमें यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि एक पुरोहित गायत्री के मर्म से वंचित रहने के कारण साधारण उपासना करते रहने पर भी समुचित सत्परिणाम प्राप्त न कर सका ।।
आख्यायिका इस प्रकार है।

एतद्धवै तज्जन को द्यैदेही बुडिल माश्वतं राश्वि मुवाच यन्नु हो तद्गायत्री विदव्रूथाऽअथकधऊँहस्ती भूताव्वह सीति मुखंह्यस्या सम्राशन विवांचकरेति हो वाच। तस्याऽग्निरेय मुखं यदि हवाऽपि विह्यवाग्ना वभ्यादधति सर्वमेव तत्सन्द हत्येव व है वैव विद्यद्यपि वकिव पापंकरोति सर्व मेव सत्संरसा शुद्धः पूताऽजरोःऽमृतः संभवति ।।
-शतपथ


अर्थात्- राजा जनक का पूर्व जन्म पुरोहित बुडिल अनुचित दान लेने पर पाप से मर कर हाथी बन गया। किन्तु राजा जनक ने विज्ञान तप किया और उसके फल से वह पुनः राजा हुआ। राजा ने हाथी को उसके पूर्व जन्म का स्मरण दिलाते हुए कहा, आप तो पूर्व जन्म में कहा करते थे कि मैं गायत्री का ज्ञाता हूँ। फिर अब हाथी बन कर क्यों बोझ ढोते हो ? हाथी ने कहा- मैं पूर्व जन्म में गायत्री का मुख नहीं समझ पाया था, इसलिए मेरे पाप नष्ट न हो सके।
गायत्री का प्रधान अङ्ग मुख अग्नि ही है। जैसे जो ईंधन डाले जाते हैं उन्हें अग्नि भस्म कर देती है वैसे ही गायत्री का मुख जानने वाला आत्मा, अग्नि मुख होकर पापों से छुटकारा प्राप्त कर अजर- अमर हो जाता है।

गायत्री के जिस मुख से ऊपर की पक्तियों में वर्णन है, वह उसका प्रवेश द्वार आरम्भिक ज्ञान ही है, जिस प्रकार भोजन को पेट में पहुँचाने के लिए मुख ही उसका द्वार होता है, उसी प्रकार उपासना का मुख यह है कि उपास्य के बारे में आवश्यक ज्ञान प्राप्त किया जाय। यह ज्ञान ग्रन्थों के स्वाध्याय द्वारा एवं उस विद्या के विशेषज्ञों के सत्संग से जाना जा सकता है। यह दोनों ही माध्यम से प्रत्येक सच्चे जिज्ञासु को अनिवार्यतः अपनाने चाहिए।

गायत्री के ज्ञान विज्ञान की महत्ता बताते हुए उपनिषद्कार ने बताया है कि ज्ञानपर्वक की हुई उपासना ने आत्मा में सन्निहित दिव्य तत्वों का विकास होता है और इस जीवन तथा संसार मे जो कुछ प्राप्त होने योग्य है, वह सभी कुछ उसे प्राप्त हो जाता है।

यो ह व एवं चित् स ब्रह्म वित्पुण्यां च कीर्ति लभते सुरभींश्च गन्धान्। सोऽपहत पाप्मानन्तां। श्रिय मश्नुतेय एवम् वेद यश्चैव विद्वानेवमेत वेदानां मातर सावित्री संपदमुपनिषद मुपास्तु इति ब्राह्मणम् ।।
-गायत्री उपनिषद्
जो इस प्रकार वेदमाता गायत्री को जान लेता है वह ब्रह्मविद, पुण्य कीर्ति एवं दिव्य गन्धों को प्राप्त करता है और निष्पाप होकर श्रेय का अधिकारी बनता है।
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