गायत्री सर्वतोन्मुखी समर्थता की अधिष्ठात्री

साधन काल के विक्षेप

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कार्यतो यदि चोत्तिष्ठेन्मध्य एव ततः पुनः ।।
जल प्रक्षालनं कृत्त्वा शुद्धै रंगैरूपाविशेत् ॥

(यदि च) और यदि (कार्यतः) किसी समय से (मध्ये एव) बीच में ही (उत्तिष्टेत्) उठना पड़े (ततः) तो (पुनः) फिर (जल प्रक्षालनं कृत्वा) पानी से प्रक्षालन करके (शुद्धैः) शुद्ध (अंगैः) अंगों को करके (उपाविशेत्) बैठे ।।

कई बार साधना के समय, कारण वश बीच में ही उठना पड़ता है ।। मल, मूत्र, कफ, नाक आदि की शुद्धि के लिए कभी- कभी बीच में उठने की आवश्यकता होती है। कुत्ते, बिल्ली, बन्दर आदि का उपद्रव, कोई वस्तु गिरना, जरूरी आदेश करना, भूली हुई वस्तु उठाना, किसी आगन्तुक को आसन देना आदि कार्यों के लिए जब कोई दूसरा व्यक्ति नहीं होता और वह अपने को ही करना होता है तो उठना आवश्यक हो जाता है। वैसे ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि जहाँ तक हो सके ऐसे अवसर न आवें या कम से कम आवें, पर यदि आवें ही तो उठने के पश्चात् पुनः ज्यों का त्यों ही न बैठ जाना चाहिए, वरन् शुद्ध जल से हाथ पांव तथा मुख धोकर आचमन करके तब आसन पर बैठना चाहिए।

बीच में विक्षेप आ जाने से चलता हुआ साधना प्रवाह टूट जाता है। इस अवरोध से उसी प्रकार नियम क्रम में गड़बड़ पड़ जाती है, जैसे पकड़ी हुई देगची के नीचे की आग बुझ जाने से दाल ठंडी हो जाय और फिर दुबारा लकड़ी जलाकर उसे पकाया जाय। कुम्हार का ‘अवा’ पकने के लिए लगातार आग चाहता है, पर आधा पक कर वह ठंडा हो जाय और फिर दुबारा आग जलानी पड़े तो उसमें कुछ न कुछ दोष रह ही जाता है। इस गड़बड़ी को सुधारने के लिए कुछ विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता पड़ती है। सूत कातते समय तागा टूट जाय तो टूटे हुए स्थान को एक विशेष प्रकार से ऐंठ कर दोनों सिरे जोड़े जाते हैं, टूटे हुए लोहे को जोड़ने के लिए उसका विशेष संस्कार करना पड़ता है, आग में तपा कर पीटना पड़ता है तब वह टुकड़े जुड़ते हैं ।। साधना की शृंखला टूटने पर भी एक विशेष संस्कार की आवश्यकता होती है, जिसे जल प्रक्षालन कहते हैं। जल शुद्धि से अवसाद चला जाता है और उत्साह आता है। उचटा हुआ मन जल शुद्धि से पुनः शान्त एवं शीतल होकर अपने काम में लगता है और टूटी हुई साधना शृंखला पुनः जुड़ जाती है ।।

यदि वा साधनाकालेऽनध्यायः स्यात्प्रमादतः ।।
तदा प्रायश्चितं नूनं कार्य मन्येद्युरेव हि ।।
प्रायश्चितं समाख्यातं तस्मै सद्भिर्मनीषिभिः ।।
दिन स्यैकस्य गायत्री मंत्रणामधिकं जपः ॥

(यदि वा) अगर (प्रमादतः) भूल के वश (साधना काले) साधना काल में (अनध्यायः स्यात्) अनध्याय हो जावे (तदा) तो (अन्येद्यु एवं) दूसरे ही दिन (नूनं) निश्चय से प्रायश्चित्य करे। (तस्मै) उसके लिए (सद्भिमनीषिभिः) सत्पुरूषों ने (एकस्य दिनस्य) एक दिन में (गायत्री मंत्राणां) गायत्री मंत्रों का (अधिक जपः) अधिक जप करना (प्रायश्चित्त) प्रायश्चित्त (समाख्यातं )) कहा है ।।

कभी- कभी अपनी भूल से ऐसे हेतु उपस्थित हो जाते हैं जिनके कारण साधना की व्यवस्थित क्रिया प्रणाली में विक्षेप पड़ जाता है। रात्रि के कारण वश अधिक जागने में ऐसा हो सकता है कि प्रातःकाल देर तक सोते रहे और साधना का ब्राह्म मूहूर्त्त निकल जाय। कोई बीमारी उठ खड़ी होने, घर में कोई आकस्मिक घटना घटित हो जाने से तथा किसी प्रकार आपत्ति जनक परिस्थिति सामने आ जाने से साधना में विघ्न पड़ सकता है और कुछ समय के लिए साधन स्थगित करना पड़ सकता है ।। ऐसी दशा में यह नहीं समझ लेना चाहिए कि हमारा साधन खंडित हो गया ।।

यदि इच्छापूर्वक किसी विशेष लाभ के लिए साधना को स्थगित रखा हो तो प्रतिदिन जितना जप करते हैं उतना एक दिन का जप प्रायश्चित्य स्वरूप, जुर्माने में करना चाहिए और उसे साधना पूर्ति की जप संख्या में नहीं गिनना चाहिए। कभी- कभी कई दिन तक साधना बन्द रखने की स्थिति सामने आ सकती है ।।

कार्यतो यदि चोत्तिष्ठेन्मध्य एव ततः पुनः ।।
जल प्रक्षालनं कृत्त्वा शुद्धै रंगैरूपाविशेत् ॥

(यदि च) और यदि (कार्यतः) किसी समय से (मध्ये एव) बीच में ही (उत्तिष्टेत्) उठना पड़े (ततः) तो (पुनः) फिर (जल प्रक्षालनं कृत्वा) पानी से प्रक्षालन करके (शुद्धैः) शुद्ध (अंगैः) अंगों को करके (उपाविशेत्) बैठे ।।

कई बार साधना के समय, कारण वश बीच में ही उठना पड़ता है ।। मल, मूत्र, कफ, नाक आदि की शुद्धि के लिए कभी- कभी बीच में उठने की आवश्यकता होती है। कुत्ते, बिल्ली, बन्दर आदि का उपद्रव, कोई वस्तु गिरना, जरूरी आदेश करना, भूली हुई वस्तु उठाना, किसी आगन्तुक को आसन देना आदि कार्यों के लिए जब कोई दूसरा व्यक्ति नहीं होता और वह अपने को ही करना होता है तो उठना आवश्यक हो जाता है। वैसे ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि जहाँ तक हो सके ऐसे अवसर न आवें या कम से कम आवें, पर यदि आवें ही तो उठने के पश्चात् पुनः ज्यों का त्यों ही न बैठ जाना चाहिए, वरन् शुद्ध जल से हाथ पांव तथा मुख धोकर आचमन करके तब आसन पर बैठना चाहिए।

बीच में विक्षेप आ जाने से चलता हुआ साधना प्रवाह टूट जाता है। इस अवरोध से उसी प्रकार नियम क्रम में गड़बड़ पड़ जाती है, जैसे पकड़ी हुई देगची के नीचे की आग बुझ जाने से दाल ठंडी हो जाय और फिर दुबारा लकड़ी जलाकर उसे पकाया जाय। कुम्हार का ‘अवा’ पकने के लिए लगातार आग चाहता है, पर आधा पक कर वह ठंडा हो जाय और फिर दुबारा आग जलानी पड़े तो उसमें कुछ न कुछ दोष रह ही जाता है। इस गड़बड़ी को सुधारने के लिए कुछ विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता पड़ती है। सूत कातते समय तागा टूट जाय तो टूटे हुए स्थान को एक विशेष प्रकार से ऐंठ कर दोनों सिरे जोड़े जाते हैं, टूटे हुए लोहे को जोड़ने के लिए उसका विशेष संस्कार करना पड़ता है, आग में तपा कर पीटना पड़ता है तब वह टुकड़े जुड़ते हैं ।। साधना की शृंखला टूटने पर भी एक विशेष संस्कार की आवश्यकता होती है, जिसे जल प्रक्षालन कहते हैं। जल शुद्धि से अवसाद चला जाता है और उत्साह आता है। उचटा हुआ मन जल शुद्धि से पुनः शान्त एवं शीतल होकर अपने काम में लगता है और टूटी हुई साधना शृंखला पुनः जुड़ जाती है ।।

यदि वा साधनाकालेऽनध्यायः स्यात्प्रमादतः ।।
तदा प्रायश्चितं नूनं कार्य मन्येद्युरेव हि ।।
प्रायश्चितं समाख्यातं तस्मै सद्भिर्मनीषिभिः ।।
दिन स्यैकस्य गायत्री मंत्रणामधिकं जपः ॥

(यदि वा) अगर (प्रमादतः) भूल के वश (साधना काले) साधना काल में (अनध्यायः स्यात्) अनध्याय हो जावे (तदा) तो (अन्येद्यु एवं) दूसरे ही दिन (नूनं) निश्चय से प्रायश्चित्य करे। (तस्मै) उसके लिए (सद्भिमनीषिभिः) सत्पुरूषों ने (एकस्य दिनस्य) एक दिन में (गायत्री मंत्राणां) गायत्री मंत्रों का (अधिक जपः) अधिक जप करना (प्रायश्चित्त) प्रायश्चित्त (समाख्यातं )) कहा है ।।

कभी- कभी अपनी भूल से ऐसे हेतु उपस्थित हो जाते हैं जिनके कारण साधना की व्यवस्थित क्रिया प्रणाली में विक्षेप पड़ जाता है। रात्रि के कारण वश अधिक जागने में ऐसा हो सकता है कि प्रातःकाल देर तक सोते रहे और साधना का ब्राह्म मूहूर्त्त निकल जाय। कोई बीमारी उठ खड़ी होने, घर में कोई आकस्मिक घटना घटित हो जाने से तथा किसी प्रकार आपत्ति जनक परिस्थिति सामने आ जाने से साधना में विघ्न पड़ सकता है और कुछ समय के लिए साधन स्थगित करना पड़ सकता है ।। ऐसी दशा में यह नहीं समझ लेना चाहिए कि हमारा साधन खंडित हो गया ।।

यदि इच्छापूर्वक किसी विशेष लाभ के लिए साधना को स्थगित रखा हो तो प्रतिदिन जितना जप करते हैं उतना एक दिन का जप प्रायश्चित्य स्वरूप, जुर्माने में करना चाहिए और उसे साधना पूर्ति की जप संख्या में नहीं गिनना चाहिए। कभी- कभी कई दिन तक साधना बन्द रखने की स्थिति सामने आ सकती है ।।

ऐसी आकस्मिक स्थिति के कारण साधना में पड़े हुए विघ्न के लिए शास्त्रकारों ने एक प्रायश्चित्य बताया है वह यह कि एक दिन की की छुट्टी के लिए एक हजार मंत्र अधिक जपने चाहिए ।। यह एक प्रकार का जुर्माना है जो मूलधन में शुमार नहीं होता ।। जैसे किसी व्यक्ति ने दो दिन साधना बंद रखी तो उसे दो हजार मंत्र- नियत योजना क्रम के अतिरिक्त जपने होंगे ।। जहाँ तक हो सके ऐसे अवसर कम से कम आने देने चाहिए। क्योंकि टूटी हुई रस्सी को चाहे कितनी ही सावधानी और चतुरता से जोड़ दिया जाय तो भी वहाँ गांठ तो रह ही जाती है।

जनन और मृत्यु के सूतक हो जाने पर शुद्धि न हो जाने तक जप को स्थगित रखना पड़ता है ।। यह दैवी कारण होने से इसमें मनुष्य का कोई दोष नहीं है ।। सूतक के दिनों में अविधि पूर्वक मौन जप का क्रम तो चालू रखना चाहिए। पर व्यवस्थित क्रम बन्द रखना चाहिए। सूतक काल के दिन समाप्त होने पर जिस संख्या पर जप को विश्राम दिया था वहाँ से आगे आरम्भ कर देना चाहिए ।।

यदावस्थसु स्याल्लोके विपन्नसु तदातुसः ।।
मौनं मानसिकं चैव गायत्री जप माचरेत् ॥

(यदा सः) जब वह (लोके) संसार में (विपन्नासु) विपन्न (अवस्थासु) अवस्थओं में (स्यात्) हो (तदा) तब वह (मौनं) मौन (मानसिकं) मानसिक (गायत्री जपं) गायत्री जप (आचरेत्) करे ।।

कई बार ऐसे अवसर आते हैं जब मनुष्य को अपवित्र स्थिति में रहना पड़ता है। स्वयं रोगी हो जाने पर स्नान, शौच आदि की समुचित व्यवस्था नहीं हो पाती। कई बार किसी दूसरे रोगी या विपत्ति ग्रस्त सेवा में रहने के कारण शुद्धि होकर की जाने वाली गायत्री साधना किस प्रकार हो ? यह प्रश्न उपस्थित होता है ।।

शास्त्रकारों ने ऐसी विपन्न अवस्थाओं के लिए यह उपाय बताया है कि उस समय मौन होकर जप करें। अर्थात् केवल मानसिक जप करें, अन्य किसी उपादान का प्रयोग न करें ।।

सामान्य त्रुटिभ्यस्तु प्रायश्चित्तं समादिशत् ।।
सहस्राणां हि गायत्री मंत्राणामधिकं जपः ॥

(सामान्य त्रुटिभ्यस्तु) साधारण भूलों के लिए (सहस्राणां गायत्री मंत्राणां) एक सहस्र गायत्री मंत्रों का (अधिकं) अधिक (जपः) जप करना (प्रायश्चितं) प्रायश्चित्तं (समादिशत्) कहा है ।।

साधन के समय बोल जाना, अशुद्ध गुप्त अंगों का स्पर्श कर लेना, नींद की झपकी ले जाना, छींक आदि असावधानी से लेकर पूजा सामग्री को अशुद्ध कर देना आदि आकस्मिक भूलों के लिए प्रायश्चित्त का स्वरूप एक हजार मंत्र जपने चाहिए ।।
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