कई व्यक्ति पूछते हैं -गायत्री महाशक्ति को नारी रूप में क्यों पूजा जाता है, जबकि अन्य सभी देवता नर रूप हैं। इसी प्रकार यह भी कहा जाता है कि गायत्री मन्त्र में सविता देवता की प्रार्थना के लिए पुल्लिंग शब्दों का प्रयोग हुआ है, फिर उसे नारी रूप क्यों दिया गया?
इन शंकाओं के मूल आधार में मनुष्य की वह मान्यता काम करती है जिसके अनुसार नर को श्रेष्ठ और नारी को निकृष्ट माना गया है। घरों में नारियाँ नर की सेवा पूजा करती हैं, उसके अधिकार आधिपत्य में रहती हैं, उन्हें छोटा या हेय माना जाता है। स्त्री का वर्चस्व स्वीकार करने में पुरुष अपना अपमान मानते हैं। किसी स्त्री अफसर के नीचे पुरूष कर्मचारियों को काम करना पड़े तो बाहर से कुछ न कहते हुए भी भीतर से कुड़कुड़ाते हैं। किसी घर में स्त्री की बात चलती हो, पुरुष अनुगामी हो, तो उसकी मखौल उड़ाई जाती है। नर की नारी के प्रति जो यह सामन्तकालीन तिरस्कार बुद्धि है उसी से प्रभावित होकर उसे यह सोचना पड़ता है कि वह नारी- शक्ति की पूजा क्यों करे? जब नर देवता मौजूद है तो नारी के आगे मस्तक झुका कर अपने नर तत्व को हेय क्यों बनाया जाय?
भगवान को नारी रूप में पूजने से किसी की कोई हानि नहीं वरन् लाभ ही है। माता के हृदय में अपान वात्सल्य है। जितनी करुणा एवं ममता माता में होती है, उतनी और किसी सम्बन्धी में नहीं। उपासना के लिए भगवान को किसी घनिष्ठ सम्बन्धी के रूप में ही मान्यता प्रदान करनी पड़ती है। निराकार ब्रह्म का ध्यान सम्भव नहीं। ध्यान के बिना उपासना नहीं हो सकती ।। निराकारवादी भी ध्यान उपासना प्रयोजन के लिए प्रकाश का ध्यान करते हैं। प्रकाश ही आखिर पंचभूतों के अन्तर्गत आता है। ध्यान- भूमिका में प्रयुक्त किये जाने वाले प्रकाश बिन्दु एवम् सूर्य मण्डल का एक आकार बन ही जाता है, इसलिये उपासना में कोई न कोई आकार तो निर्धारित करना ही पड़ता है। इस आकार के साथ जितनी ही आत्मीयता, ममता, घनिष्ठता होगी, उतना ही मन लगेगा और चित्त एकाग्र होगा और भावनात्मक तन्मयता की ओर दृष्टि के साथ, भगवत प्राप्ति की ओर प्रगति होती चली जायगी।
जिनके साथ घनिष्ठता स्थापित की जाती है, उनके साथ कोई रिश्ता बन जाता है। रिश्ते का अर्थ है असाधारण घनिष्ठता। परिवार के सदस्य कुटुम्बी और कन्याओं के आदान- प्रदान से सम्बन्धित रिश्तेदार कहलाते हैं। उससे अतिरिक्त लोगों को मित्र कहते हैं, गुरुजन भी। इन्हीं वर्गों में स्वाभाविक प्रेम बढ़ता है। इनके सान्निध्य में सुख और वियोग में दुःख मिलता है। भगवान को प्राप्त करने के लिए उसमें प्रेम सम्बन्ध दृढ़ करना होता है और इसके लिये उसे कोई प्रेम- पात्र, कुटुम्बी, रिश्तेदार अथवा मित्र जैसा सम्बन्ध स्थापित करना पड़ता है। इस सम्बन्ध मान्यता में जितनी अधिक आत्मीयता होगी उतनी ही प्रतिक्रिया मिलेगी। गुम्बज अथवा कुएँ की प्रतिध्वनि की तरह हमारा प्रेम ही ईश्वरीय प्रेम एवं अनुग्रह बनकर हमारे पास वापस लौटता है। जिस स्तर का भाव या प्यार हम भगवान के प्रति व्यक्त करते हैं, उसी के अनुरूप दीवार पर मारी हुई रबड़ की गेंद की तरह लौटकर भगवान की अनुकम्पा हमारे पास वापिस आ जाती है, इसलिए भगवान को कोई न कोई सम्बन्धी मानकर चलना होता है। उस मान्यता के आधार पर ही हमारी उपासना में प्रगति होती है।
भगवान से कोई भी सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। उस एक को ही किसी भी आत्मीय भावना के साथ देखा जा सकता है, उसके लिए हर मान्यता उपयुक्त है, कहा भी गया है कि-
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धु च सखा त्वमेव ।।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव ॥
प्रार्थना में जिन सम्बन्धों को गिनाया गया है, उनमें माता का सम्बन्ध सर्वप्रथम है, वह सर्वोपरि भी है, क्योंकि माता से बढ़कर परत निःस्वार्थ, अतिशय कोमल, करूणा एवं वात्सल्य से पूर्ण और कोई रिश्ता हो ही नहीं सकता। जब हम भगवान को माता मानकर चलते हैं तो उसकी प्रतिक्रिया किसी सहृदय माता के वात्सल्य के रूप में ही उपलब्ध होती है। इन उपलब्धियों को पाकर साधक धन्य हो जाता है।
पिता से माता का दर्जा सौ गुना अधिक बताया गया है। यों पिता भी बच्चों को प्यार करते हैं, पर उस प्यार का स्तर माता की तुलना नहीं कर सकता। इसलिए सब में भगवान को माता मानकर चलना अपने ही हित में है। इसमें अपने को ही अधिक लाभ होता है।
नारी के प्रति मनुष्य में एक वासनात्मक दुष्टता की प्रवृत्ति जड़ जमाये बैठी रहती है। यदि इसे हटाया जा सके, नर और नारी के बीच काम, कौतुक की कल्पना हटाई जा सके, तो विष को अमृत में बदलने जैसी भावनात्मक रसायन बन सकती है। नर और नारी के बीच जो ‘रति’ और ‘प्राण’ विद्युतधारा सी बहती है, उनका सम्पर्क वैसा ही प्रभाव उत्पन्न करता है, जैसा कि बिजली के निगेटिव और ‘पोजिटिव’ धाराओं के मिलन से विद्युत संचार का माध्यम बन जाता है। माता और पुत्र का मिलन एक अत्यन्त उत्कृष्ट स्तर की आध्यात्मिक विद्युत धारा का सृजन करता है। मातृ स्नेह से विहीन बालकों में एक बड़ा मानसिक अभाव रह जाता है, भले ही उन्हें सांसारिक अन्य सुविधाएँ कितनी ही अधिक क्यों न हों। पत्नी, बहिन, पुत्री आदि के रूप में भी नारी, नर को महत्त्वपूर्ण भावनात्मक पोषण प्रदान करती है और उसकी मानसिक अपूर्णता को पूर्ण करने में सहायक होती है। यह सांसारिक स्तर की बात उपासना के भावना क्षेत्र में भी लागू होती है। माता का नारी- रूप ध्यान- भूमिका में जब प्रवेश करता है, तो उसमें प्राण की एक बड़ी अपूर्णता होती है।
युवती नारी के रूप में माता का ध्यान करके हम नारी के प्रति वासना दृष्टि हटाकर पवित्रता का दृष्टिकोण जमाने का अभ्यास करते हैं। इसमें जितनी ही सफलता मिलती है, उतना ही बाह्य जगत् में भी हमारा नारी के प्रति वासना-दृष्टि रखने में मन हटता जाता है। इस प्रकार नर- नारी के बीच जिस पवित्रता की स्थापना हो जाने पर अनेक आत्मिक बाधायें, कुण्ठायें एवं विकृतियाँ दूर हो सकती हैं, उसका लाभ सहज ही मिलने लगता है। गायत्री माता का ध्यान एक वृद्धा नारी का नहीं वरन् एक युवती का होता है। युवती में यदि उत्कृष्टता की तथा पवित्रता की दृष्टि रखी जा सके तो समझना चाहिए कि आत्मिक स्तर सिद्ध योगियों जैसा तेजस्वी बन गया। गायत्री- उपासना में इस महाशक्ति को नारी रूप देकर इस एक महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक आवश्यकता की पूर्ति का प्रयत्न किया गया है।