गायत्री के २४ अक्षरों में भगवान् से सद्बुद्धि की प्रार्थना और याचना की गई है। सद्बुद्धि ऋतम्भरा प्रज्ञा वह तत्व है, जिसे प्राप्त कर लेने पर और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता। कमल का फूल जब खिलता है तो उसकी सौन्दर्य और गन्ध से आकर्षित होकर कौए, मधुमक्खियाँ और तितलियाँ दूर- दूर से अनायास ही दौड़ते चले आते हैं। उसी प्रकार जिस अन्तःकरण में गायत्री द्वारा आराधित सद्बुद्धि की आभा विकसित होती है, वहाँ लौकिक और पारलौकिक अनेकों सुख- साधन स्वयमेव आकर्षित होते हुये दौड़े चले आते हैं।
रामायण में कहा गया है-
जहाँ सुमति तहँ सम्पत्ति नाना ।।
जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना ॥
जहाँ सुमति का, सद्बुद्धि का प्रकाश होगा, वहाँ नाना प्रकार की सम्पत्तियों के भण्डार जमा हो जायेंगे और जहाँ सुमति का अभाव होगा, उसकी प्रतिपक्षी शक्ति कुमति निवास करेगी, वहाँ अनेकों विपत्तियों की घटनाएँ छाई रहेंगी। सद्विवेक की आवश्यक मात्रा मस्तिष्क में हो तो मनुष्य ऐसा श्रेष्ठ आचरण करता है, जिससे उसका जीवन बड़ी शान्ति और सरलतापूर्वक व्यतीत होता है। सदाचारी व्यक्ति को किसी का भय नहीं रहता। वह किसी का अनिष्ट नहीं करता तो दूसरे भी अकारण उसे हानि नहीं पहुँचाते। उसका व्यवहार सबसे मधुरता और उदारता का होता है, तो दूसरे भी बदले में वैसा आनन्ददायक व्यवहार करते हैं। संयमशील, उचित आहार- विहार का जिनका जीवन है उन्हें अस्वस्थता और अल्पायु का भी दुःख नहीं होता ।। ऐसे विवेकशील लोग शरीर और मन में सदा सुखी एवं सन्तुष्ट रहते हैं।
प्रार्थना- रूप गायत्री की उपासना में कोई नियम बन्धन नहीं है। जैसे साधारण कथा में भगवान से प्रार्थना की जाती है, उसी प्रकार गायत्री के द्वारा भी भगवान से सद्बुद्धि मांगी जा सकती है। किन्तु यदि आध्यात्म विज्ञान सम्मत प्रक्रिया द्वारा इस ऋतम्भरा तत्व को सूक्ष्म प्रकृति के अन्तराल में से आकर्षित करके अपने लिए समुचित मात्रा में प्राप्त करना हो, तो गायत्री का उपयोग मन्त्र- रूम में करना पड़ेगा। मन्त्र में विशेष शक्ति सम्मिलित रहती है, पर साथ ही इससे शास्त्रीय नियम विधानों का बन्धन भी है। बिना विधान और प्रक्रिया का समुचित पालन किए मन्त्र तत्व जाग्रत नहीं होता और उसका वह फल नहीं मिलता जो उस महाशक्ति के द्वारा प्राप्त होता चाहिए।