युगगीता (भाग-४)

ध्यान हेतु व्यावहारिक निर्देश देते एक कुशल शिक्षक

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ध्यान का पहला ककहरा

मन की एकाग्रता मनुष्य के आसन पर निर्भर है। सबसे श्रेष्ठ सुखासन है, जिसमें व्यक्ति आराम से बैठ सके, मन बार- बार उचटे नहीं एवं विचारों की शृंखला जब आमंत्रित की जाए, तब असुविधायुक्त बैठे रहने से उसको बिखरने से बचाया जाए। ध्यान की पूर्व तैयारी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। हमें याद रखना चाहिए कि पतंजलि के अष्टांग योग में ध्यान सातवें नंबर पर है। उसके बाद तो फिर समाधि ही है। योग का पहला ककहरा ही अनुशासन से चालू होता है। (अथ योगानुशासनम्—पतंजलि के योग का प्रथम सूत्र) एवं यह अनुशासन यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा के राजमार्ग से गुजरकर ध्यान तक पहुँचता है। यम की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि हमारे व्यवहार- जगत् में परिवर्तन आए। हम छोटे- छोटे गुणों को अपनाकर अपना जीवन सही बना लें। नियम अंतः की अभिवृत्तियों के परावर्तन हेतु जीवन में उतारे जाते हैं। इतना हो जाने पर आसन की बारी आती है। स्थिर सुखमासनम् यह पहले भी बताया गया। मन चंचलता से निग्रह की ओर तभी चलेगा, जब आसन की सिद्धि होगी। एक आसन पर टिककर ध्यान करना आ जाए, तो चंचलता मिटती चली जाती है। जैसे मिट्टी की हँडिया को हिलाने से दही नहीं जमता, ऐसे ही शरीर यदि अस्थिर है, चंचल है, तो मन कैसे लगेगा?

शरीर व मन के बीच प्राण हैं। प्राणायाम का अर्थ है—प्राणों के आयाम में जाकर किया गया व्यायाम। प्राणायाम एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसमें ब्रह्मांडीय प्राण से संपर्क साधा जाता है एवं अपनी प्राणशक्ति को मजबूत बनाया जाता है। विराट् प्राण को धारण करना योग की एक अति महत्त्वपूर्ण क्रिया है। प्रत्याहार का अर्थ है—वह बिंदु, जहाँ मन को टिकाया जाता है। बिना धारणा के ध्यान संभव नहीं है। हम अपने मन- प्राणों को घोल सकें, हमारी धारणा इतनी पवित्रता से भरी हो। इस धारणा की निरंतरता ही ध्यान है। प्रत्याहार से जो अंतर्जगत् की यात्रा आरंभ हुई, उसी का अगला चरण ध्यान है एवं समापन समाधि में है। उन सबके बारे में विस्तार से बाद में। अभी तो इस श्लोक में की गई चर्चा आसन के बारे में पूरी करके आगे बढ़ते हैं।

आसन पर एकाग्र मन से बैठें

भगवान् कहते हैं (बारहवें श्लोक में) कि ऐसे आसन पर बैठकर मन को एकाग्र करके, मन और इंद्रियों की क्रियाओं को संयत करके हर साधक को अपने अंतःकरण की शुद्धि के लिए (आत्मविशुद्धये) योगाभ्यास करना चाहिए। मन हमारा सतत विचारों के प्रवाहों में भटकता रहता है। ऐसे विचार- प्रवाह में कल्पनाएँ—कपोल- कल्पित विचार- शृंखलाओं आदि का बाहुल्य रहता है। इस भटकन की अवस्था में विचार- प्रवाह में बल नहीं होता और न ही गति या दिशा होती है। सामान्यतः व्यक्ति का मन अव्यवस्थित ही होता है। ऐसा मन जीवन में कुछ भी प्राप्त नहीं करा सकता। इसीलिए आसन पर बैठकर ध्यानयोग के साधक को सर्वप्रथम मन को सक्षम- समर्थ बल से सपरिपूर्ण बनाना होगा, जिसमें पर्याप्त सुव्यवस्था और स्पष्ट ध्येय जुड़े हों। ऐसा इन्टेग्रेटेड माइंड (पूर्णतया एकाग्र मन) ही एक ऐसा माध्यम बन सकता है, जिसके द्वारा मनुष्य कुछ कहने योग्य उपलब्धियाँ हासिल कर पाए। मन को एकाग्र करने के बाद श्रीकृष्ण कहते हैं—‘‘चित्त व इंद्रियों की क्रियाओं को संयत करना सीखो।’’ (यतचित्तेंद्रियक्रियः) अंतःकरण- चतुष्टय के अंतर्गत मन, बुद्धि, चित्त, अहं इस तरह चार परतें हैं। चित्त में चंचलता पैदा करने वाली भीतरी कल्पनाएँ हैं या इंद्रियों की बहिरंगीय क्रियाएँ हैं। मन के विक्षेप के यही दो मुख्य कारण हैं। विषयासक्त मन आँधी की तरह बहने लगता है और अंतस् में अशांति पैदा कर देता है। ऐसी उथल- पुथल एकाग्रता- ध्यान की तैयारी में सबसे बड़ा विघ्र है। इसलिए मन और इंद्रियों दोनों की बाह्य प्रवृत्तियों को संयत कर और मन में एक ऐसी विचारधारा का प्रवाह हमें उत्पन्न करना चाहिए कि निरंतर एक ही श्रेष्ठ विचार- प्रवाह पर हम अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें। इतना सध जाए तो हम आसन (सुखासन) पर बैठकर प्रभु का अपने अंतःकरण में ध्यान कर सकते हैं (युञ्ज्यात् योगम्)। युञ्ज्यात् अर्थात् योगाभ्यास एवं योग अर्थात् आत्मा और परमात्मा के मिलन चित्त द्वारा चैतन्य परमानंदमयी परमात्मसत्ता पर ध्यान केंद्रित किया जाता है तो हमारे अंदर का ज्ञान का—विशुद्ध भावनाओं एवं श्रेष्ठ चिंतन का केंद्र जाग उठता है।

विशुद्ध अंतःकरण—एक अनिवार्यता

जब भगवान् इस बारहवें श्लोक में कह रहे हैं कि यह योगाभ्यास अंतःकरण की शुद्धि के लिए है तो उनका आशय है कि ज्यों ही भगवान् के स्वरूप में साधक का ध्यान स्थिर हुआ, त्यों ही दिमाग में भरे कूड़ा- करकट से मन शुद्ध हो जाता है। फिर मनःविक्षेप नहीं होता। विक्षुब्ध मन भी एक प्रकार से अपवित्र मन है। चिंता, द्वेष, ईर्ष्या की मनःस्थिति में ध्यान सधेगा कैसे? मात्र शुद्ध मन ही स्थिर और एकाग्र होता है। ध्यान चूँकि वासनाओं को जला देता है, अतः विचारों की उथल- पुथल फिर जन्म नहीं लेगी। हृदय, मन, बुद्धि शांति- निस्तब्धता की स्थिति में आ जाते हैं। जितना मन शांत होगा—उतनी ही एकाग्रता का संपादन होता है। उतना ही गहरा ध्यान होगा। अनुभूतियाँ- अंतर्दर्शन भी उसी स्तर के प्रगाढ़तम होंगे। दिव्य स्तर की आत्मानुभूतियों के लिए मार्ग बन जाता है। वास्तव में अर्जुन को उसी स्तर तक ले जाने के लिए श्रीकृष्ण का यह सारा उद्यम है।

आसनशुद्धि
- आसनसिद्धि



       परम पूज्य गुरुदेव ‘आसन’ के संबंध में ‘ब्रह्मवर्चस की पंचाग्रि विद्या’ के पृष्ठ १६३ पर लिखते हैं—‘‘साधना में आसनों का दोनों प्रकार का संबंध है—प्रत्यक्ष भी, परोक्ष भी। प्रत्यक्ष इसलिए कि साधना किसी- न आसन में बैठकर ही की जाती है, अधिकांश साधनाओं में मेरुदंड सीधा रखा जाता है। इसके लिए साधक को कोई आसन ठीक इसी प्रकार आना चाहिए तथा उसका अभ्यास भी होना चाहिए। ठीक प्रकार से आसन को समझकर उसे लगा लेना आसनशुद्धि कहलाती है और जितनी देर साधना करनी है, उतनी देर बिना कष्ट के एक ही आसन में बैठे रहने के अभ्यास को आसनसिद्धि कहते हैं। आसन शुद्ध होना हर हालत में आवश्यक है। आसनसिद्धि जब तक नहीं होती, तब तक साधना के बीच में शांति से आसन बदल लेने में कोई हानि नहीं।’’

       पूज्यवर का भी वही आशय है, जो कि श्रीगीताजी के ग्यारहवें श्लोक में शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः के माध्यम से कहा है। जब बारहवें श्लोक में भगवान कहते हैं—उपविश्य आसने युज्यात् योगं आत्मविशुद्धये तब उनका आशय भी वही है कि साधक को आसन पर बैठकर अंतःकरण की शुद्धि हेतु अभ्यास करना चाहिए। आसनशुद्धि बिना आसनसिद्धि के संभव नहीं एवं आसनसिद्धि होने पर ही मन एकाग्र होगा—साधक का मन- अंतःकरण परमात्मा में लग पाएगा। ध्यान की यह शुरुआत है। आसन मात्र व्यायाम नहीं है या योगोपचार नहीं है। आसन ध्यान की एक अनिवार्य आवश्यकता है, यह पूज्यवर ने स्पष्ट किया है।

अब हम अगले श्लोकों की ओर चलते हैं—
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥ ६/१३
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥ ६/१४


पहले शब्दार्थ समझते हैं, फिर आगे बढ़ेंगे—

     शरीर, मस्तक और गले को (काय- शिरः, सीधा रखकर (समं), निश्चल भाव से (अचलं), धारण करके (धारययन्), स्थिर भाव से (स्थिरः), अपने (स्वं), नासिका के अग्रभाग को (नासिका- अग्रं), देखते हुए (सम्प्रेक्ष्य), चारों ओर न देखकर (दिशः च न अवलोकयन्), प्रसन्नचित्त भाव से (प्रशान्तात्मा), बिना किसी भय के (विगतभीः), ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके (ब्रह्मचारि व्रते स्थितः), मन को (मनः), संयत रखकर (संयम्य), मुझ में चित्त लगाकर [नियोजित कर] (मच्चित्तो), मेरे में ही मन लगाकर—किसी और तरफ ध्यान न देते हुए (मत्परः), समाहित चित्त होकर बैठें (युक्त आसीत)

भावार्थ इस प्रकार हुआ—

(साधक को उस आसन पर बैठकर) ‘‘काया, सिर और गले को समान एवं अचल स्थिति में धारण कर स्थिर होकर अपनी नासिका के अग्रभाग में दृष्टि जमाकर तथा अन्य दिशाओं की ओर न देखते हुए शांत मन के साथ, निर्भय होकर, ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित होकर, मन को संयत कर, सदैव मेरा ही चिंतन करते हुए, मुझे ही अपना परम लक्ष्य मानकर ध्यान हेतु बैठना चाहिए।’’

स्थिर शरीर से होता है शांत चित्त

यहाँ प्रभु चित्त की एकाग्रता संपादन हेतु शरीर और मन की स्थिति कैसी होनी चाहिए, यह बता रहे हैं। एक प्रकार से यह ध्यान का व्यावहारिक प्रशिक्षण है। इतना कुछ श्रीकृष्ण द्वारा ध्यान के विषय में कहा जा चुका है कि कभी- कभी लगता है कि साधक भ्रमित न हो जाए। योगेश्वर अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को एक श्रेष्ठ योगी- साधक के रूप में प्रतिष्ठित होता देखना चाहते हैं एवं उसके लिए वे काव्य का सहारा लेते हैं—जब वे कहते हैं कि बैठना भी एक कला है—तब ही ध्यान सध पाएगा। मात्र आसन जान लेने से कुछ भी लाभ नहीं, जब तक यह नहीं पता कि इनके साथ मनोभाव क्या हों—अंदर की स्थिति कैसी हो?

वे कहते हैं कि सिर, गरदन और काया को अचल, स्थिर स्थिति में धारण करो और यह ध्यान रखो कि सिर सहित कोई भी अंग हिले या डुले नहीं। शरीर की स्थिरता मन को लगाने के लिए बहुत जरूरी है। पहले ही कहा जा चुका है कि जब दही जमाना हो तो मिट्टी की हँडिया को हिलाते नहीं। मन लगाना है तो शरीर पूरा स्थिर रखना होगा। परमपूज्य गुरुदेव अपने ध्यान- निर्देशों में इसीलिए बार- बार कहते हैं—स्थिर शरीर- स्थिर शरीर। शुरुआत वे यहीं से करते हैं। स्थिर शरीर के साथ वे कहते हैं—कमर सीधी, दोनों हाथ गोद में, बायाँ हाथ नीचे, दायाँ हाथ ऊपर, आँखें आधी बंद- आधी खुली। इन निर्देशों के पीछे वही मर्म छिपा पड़ा है, जो भगवान् ने तेरहवें श्लोक में समझाया है। यदि कमर (मेरुदंड) सीधी होगी, तो स्वतः शरीर स्थिर हो जाएगा। मेरुदंड ही सभी चक्र- उपत्यिकाओं की स्थली है। ब्रह्मांडीय प्राण (कॉस्मिक प्राण) सबसे पहले ध्यानस्थ स्थिति में यहीं अवतरित हो चक्रों में टक्कर मारता है। हमें श्रीकृष्ण की बात को ध्यान रखना चाहिए—समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः अर्थात् समग्र काया को सिर- गरदन शरीर को अचल धारण करो। (देखो कि कोई भी अंग हिले- डुले नहीं।) शरीर की अस्थिरता से मन चंचल हो उठता है, यदि यह सही है तो यह भी सही है कि मन की उथल- पुथल से भी प्रायः शरीर में हलचल उत्पन्न हो जाती है। स्पंदन की स्थिति में शरीर बेचैन हो जाता है और फिर हिलने- डुलने लगता है। जब जबरदस्ती अपने आप पर नियंत्रण कर अपनी काया को अचल कर लिया जाता है, तो स्पंदित हुआ मन भी धीरे- धीरे शांत व स्थिर स्थिति में आ जाता है।

सही ध्यान मुद्रा


फिर योग के सिद्धगुरु श्रीकृष्ण कहते हैं—इस तरह अपना ध्यान केंदित करो, मानो आप नासिका के अग्रभाग पर देख रहे हों (( संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं )। इसमें मूल आशय यह है कि हम सीधे इस तरह देखें, मानो सामने प्रभु के चरण हों व हमारी दृष्टि उन पर है। नासिका के अगले हिस्से पर दृष्टि रखने वाला सदैव सीधा, स्थिर व निश्चल भाव से बैठेगा। कभी भी उसका मन उचटेगा नहीं। किसी भी प्रारंभिक साधक के लिए इस तरह के निर्देश जरूरी हैं, ताकि उनसे शरीर को स्थिर रखने में सहायता मिल सके। एक बात और श्रीकृष्ण कहते हैं—दिशश्चअवलोकयन् अर्थात् बिना इधर- उधर भिन्न- भिन्न दिशाओं में देखते हुए बैठें। अपना ध्यान बिखरने न दो— एक ही लक्ष्य पर केंद्रित कर दो। यही आशय है इस निर्देश का। परम पूज्य गुरुदेव को हम आज के युग का विश्वामित्र- तपोनिष्ठ सिद्ध साधक मानते हैं, जिनने कठोर तप किया व साधना का मार्ग सबके लिए सुलभ कराया। वे भी अपने निर्देश में कहते हैं—शांतचित्त, स्थिर शरीर, आधी खुली दृष्टि भू्रमध्य (ब्रो क्चह्म्श2) मार्ग पर अर्थात् दोनों आँखों के बीच में जहाँ हमारा आज्ञाचक्र स्थित है। यहाँ वे ध्यानस्थ होने को कहते हैं, तो प्रकारांतर से सरल भाषा में श्रीकृष्ण द्वारा कही गई—‘नासिकाग्रं’ वाली बात का ही प्रतिपादन करते हैं। हम स्वयं करके देखें, ध्यान ज्यों ही नासिका के अगले भाग पर लगाने की हम कोशिश करेंगे, थोड़ी देर पुतलियों की कलाबाजियाँ चलेंगी, पर हम क्रमशः अपने को तनावरहित स्थिति में—शिथिलावस्था में भ्रूमध्य से नासिकाग्रं की पट्टी पर ले आएँगे। यही

 सही ध्यान मुद्रा है।

अपना उपदेश जारी रखते हुए श्रीकृष्ण फिर कहते हैं कि यदि ध्यान करने के लिए बैठे हैं तो फिर छह बातों को सदा ही एक आचार संहिता का रूप मानकर उसे भलीभाँति समझें और तदनुसार ही अपनी तैयारी करें। यदि इस चौदहवें श्लोक में वर्णित छह बिंदु ध्यान में रहेंगे, तो ध्यान क्रमशः सध जाएगा। क्या हैं ये छह बिंदु?

छह महत्त्वपूर्ण सूत्र

पहला है ‘प्रशान्तात्मा’ प्रसन्नचित्त होकर। दुखी- असंतुष्ट, विक्षुब्ध- ईर्ष्यालु मन के साथ नहीं। हृदय दग्ध है किन्हीं कामनाओं के कारण तो उन पर नियंत्रण कर। प्रसन्नता की मनःस्थिति में ही ध्यान के बीजांकुर फलित होंगे। दूसरा है विगत भीः अर्थात् सभी प्रकार के भयों से मुक्त होकर, निर्भय चित्त होकर ध्यान करें। भय एक प्रकार की निषेधात्मक स्थिति है, जिसमें मन की सभी प्रवृत्तियाँ क्षीण हो जाती हैं, मन दुर्बल हो जाता है। स्वामी विवेकानंद की ओजस्वी वाणी सतत यह कहती आई है—मा भैः मा भै अर्थात् भय से मुक्त होओ। भयग्रस्त होना एक प्रकार से पाप को गले लगाना है। यह आत्मा उस चिरंतन शाश्वत परमात्मसत्ता का एक घटक है, इसे किस बात का भय! भय से मुक्त होना अत्यधिक अनिवार्य है, तभी हमारे अंदर छिपा देवत्व उभरकर आएगा। तीसरा बिंदु है ब्रह्मचारिव्रते स्थितः। इसके दो अर्थ हो सकते हैं ब्रह्मचर्यव्रत धारण करके—ब्रह्मचर्य में स्थित होकर—पूरी तरह पालन कर। दूसरा जो अति सूक्ष्म अर्थ है, वह है—हमारा पूरा ध्यान उस अनंत आत्मा की महिमा के चिंतन में लग जाए जो ब्रह्मरूप में स्थित है। ब्रह्मणि स्थितः के माध्यम से श्रीकृष्ण पहले भी यह बात कह चुके हैं। अब वे जो कह रहे हैं, उसका आशय यह भी हुआ कि जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसका मन सतत ब्रह्म में—उस परमसत्ता की ऐश्वर्य भरी सत्ता की महिमा के चिंतन में ही सतत लगा रहता है।

चौथा सूत्र है—मनः संयम्य अर्थात मन को संयत् कर, भाँति- भाँति की भूतकाल की स्मृतियों—भविष्य की कल्पनाओं के जाल में न उलझकर, चिंताओं में न भटककर, स्वयं को विक्षुब्ध न कर शांत मन से ध्यान करने की तैयारी में आ जाना। पाँचवाँ सूत्र है—मच्चित्तः (मत् चित्तः) अर्थात् मुझ सच्चिदानंदघन परमात्मा में मन को लगाकर—मन को नियोजित कर ध्यान करें। उस योगेश्वर कृष्ण की मनमोहिनी छवि को—अपने इष्ट परमात्मा का जो भी स्वरूप हमारे मन में है, उसे अपने मन में लगाकर उस अनंत रूप की कल्पना करना। ऐसे ध्यान केंद्रित करने पर परमात्मा की चेतना ही मूल रूप में हमारे मन- मस्तिष्क में छाई रहती है। छठा सूत्र है—मत्परः मेरे परायण होकर अर्थात् कहीं दूसरी ओर न ध्यान देते हुए परमात्मा को ही अपना परम लक्ष्य मानना। अपना मन उस परमसत्ता की ओर से तनिक भी हटने न देना। इतना होने पर भगवान् कहते हैं—युक्त आसीत अर्थात् फिर समाहित चित्त लेकर इस प्रकार ध्यान में बैठना चाहिए।

ध्यान की न्यूनतम शर्तें

इस तरह ये छह अवस्थाएँ योग के साधक को एक निर्दिष्ट आसन पर बैठने एवं नासिकाग्र भाग पर देखते हुए स्थिर बने रहने पर ध्यानावस्था में ले जाने की पूर्व तैयारी कर देती हैं। ये वे न्यूनतम छह शर्तें हैं—छह प्रारंभिक अवस्थाएँ हैं, जिनसे मन ध्यान के योग्य बन पाता है। भगवान् कृष्ण के दिए निर्देशों को हम ध्यान से देखें—प्रसन्नचित्त हो, बिना भय के, ब्रह्मरूप में स्थित हो, मन को संयत कर, परमात्मा में मन को नियोजित कर, उन्हीं को अपना परम लक्ष्य मानकर समाहित चित्त से ध्यान हेतु आसन में बैठना चाहिए। एक तरह से ये बातें भी पूर्व में अलग- अलग स्थानों पर वे द्वितीय से षष्ठ अध्याय तक बार- बार कह चुके हैं, पर यहाँ एक क्रम से छह बिंदु अपने शिष्य के समक्ष रख देते हैं कि न्यूनतम इतना तो करना ही होगा, तभी ध्यानयोग की पहली कक्षा में प्रवेश कर सकोगे। इतना संपादित करने के बाद ही वह परमशांति मिल पाएगी, जो कि ध्यानयोग का परम लक्ष्य है एवं जिसकी नींव- आधारशिला परमात्मा में स्थित है। इसी की चर्चा श्रीकृष्ण अगले श्लोक (१५ वें) में करते हैं।
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