ध्यान संबंधी स्पष्टीकरण
अब आगामी २४, २५ एवं २६ श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण उन सभी साधकों के लिए अपना उद्बोधन देते हैं, जो अभी किन्हीं कारणोंवश
ध्यान के इस जटिल विषय के मर्म को समझ नहीं पाए हैं ।। जिनका
बौद्धिक स्तर अधिक नहीं है और अभी उनकी कही व्यावहारिक बातों
को योगेश्वर की आलंकारिक भाषा के माध्यम से पूरी तरह आत्मसात्
नहीं कर पाए हैं, कुछ और स्पष्टीकरण माँगते हैं ।। यह अध्याय बड़ा
ही विलक्षण है एवं कदम- कदम पर व्यक्ति को दैनंदिन जीवन के झंझावातों से ऊपर उठाकर तनावमुक्त
जीवन जीने का एवं ध्यान द्वारा परमात्मा से साक्षात्कार संबंधी
मार्गदर्शन देता है ।। यही नहीं उन्हें मानसिक संतोष एवं
आध्यात्मिक स्तर पर उच्चतम उपलब्धि परम शांति का लाभ भी मिलता
है ।। चित्त की चंचलता से उबरने एवं कामनाओं, वासनाओं से उबरने
हेतु अब श्रीकृष्ण का हर साधक के लिए मार्गदर्शन बड़ा विशिष्ट है
।।
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥ -६/२४
शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया ।।
आत्मसंस्थं मनःकृत्वा न किञ्चिदपि चिंतयेत् ॥ -६/२५
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।। -६/२६
शब्दार्थ- पहले प्रथम दो का शब्दार्थ देखते हैं- संकल्प से उत्पन्न (संकल्प प्रभवान्), समस्त (सर्वान्) आकांक्षाओं को (कामान्), पूर्णतया (अशेषतः), छोड़कर (त्यक्त्वा), मन की सहायता से ही (मनसा एव), सभी इंद्रियों को(इंद्रिय ग्रामम्), चारों ओर से (समंततः), संयत करके भली- भाँति टोककर (विनियम्य), धैर्ययुक्त (धृतिगृहीतया), बुद्धि के द्वारा (बुद्धया), धीरे- धीरे क्रम से (शनैः शनैः), विरति का अभ्यास करें (उपरमेत्), एवं इस प्रकार मन को (मनः), संकल्प- विकल्प छोड़कर आत्मस्थ परमात्मा में स्थित (आत्मसंस्थम्), करके (कृत्वा), और कुछ भी (किंचित् अपि), न चिंता करे (न चिंतयेत्), अर्थात् मात्र परमात्मा का ही चिंतन करें ।।
-६/२४, ६/२५
भावार्थ- अब इन दो श्लोकों का भावार्थ समझें- संकल्प से
उत्पन्न सभी कामनाओं का सभी रूप में त्याग करके और मन के
द्वारा इंद्रियों के संपूर्ण समूह का भलीभाँति नियमन करके (साधक)
धैर्ययुक्त बुद्धि के साथ मन को परमात्मा में स्थित करके शनैः
शनैः उपरति को प्राप्त हो, तत्पश्चात् वह परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिंतन न करे।
-६/२४, ६/२५
शब्दार्थ- अब २६वें श्लोक का शब्दार्थ व भावार्थ देखें ।।
चंचल (चंचलम्), अस्थिर- ध्येय में स्थिर न रहने वाला (अस्थिरम्), मन (मनः), जहाँ- जहाँ, जिस- जिस विषय में (यतः यतः), भटकता है (निश्चरति), उस- उस विषयों से (ततः ततः), इस अस्थिर मन को बार- बार (एतत्), संयत करके (नियम्य), परमात्मा में ही बार- बार (आत्मनि एव), निरुद्ध कर स्थिर करें (वशं नयेत्)।- ६/२६
भावार्थ- स्वभावतः स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस- जिस शब्दादि
विषय के निमित्त से संसार में भटकता है, उस विषय से उसे वापस
लाकर बार- बार परमात्मा में ही उसका नियोजन करना चाहिए।
कामनाओं से मुक्ति प्रथम शर्त
एक प्रकार से योगेश्वर श्रीकृष्ण यहाँ अपने शिष्य अर्जुन
को ध्यान करने की कला सिखा रहे हैं, उसकी सूक्ष्मतम विधि बता
रहे हैं ।। ध्यान करने हेतु तैयार किसी भी दिव्यकर्मी
योगी को अपने भीतर के मन को, अपने आप को व्यवस्थित बनाना होगा
।। क्रम से वे उन कदमों को समझाते हैं ।। हमारा मन कामनाओं की
क्रीड़ा में रुचि लेता है ।। कमशः यही हमारे संकल्प बन जाते हैं ।। हमारी जन्म- जन्मांतरों की संचित स्मृतियाँ हमसे कल्पनाओं का जाल बुनवाती हैं तथा उनमें लीन बने रहना ही हमें सुखकारी
लगता है ।। ये हमारी कामनाएँ, आकांक्षाएँ हमारे ध्यान में
परमात्मा प्राप्ति रूपी लक्ष्य की ओर प्रगति में बाधक हैं ।।
श्रीकृष्ण का स्पष्ट मत है कि इन संकल्प जनित कामनाओं को हमें
पूर्णतया त्याग देना चाहिए ।। इतना होने पर ही हमारा मन इस
योग्य बन सकेगा कि हम ध्यानस्थ हो सकें ।।
सही योगी या जीवन- कला का चितेरा वही है, जो मन की उधेड़बुन
की आदत को समझ ले और उसे नियंत्रित करना सीख ले ।। स्वप्न
हमें अधिकांश निरर्थक आते हैं और कई बार वे ऐसी- ऐसी कल्पनाओं
के जन्मदाता बन जाते हैं कि हमारा मन भटकता ही रहता है ।। जैसे
ही हम मन को उसकी भटकन से मुक्त करना सीख लेते हैं, नई- नई
आकांक्षाएँ, बेकार की कामनाएँ- इच्छाएँ उत्पन्न नहीं हो पातीं ।।
कामनाएँ, महत्वाकांक्षाएँ
यथार्थ के धरातल से दूर चलने वाली इच्छाएँ हमारे लिए बैरी के
समान हैं ।। ये हमें विषय जगत में धकेल देती हैं, जहाँ मन सतत
विषय पदार्थों को येन- केन प्राप्त करने, उनका उपभोग करने और मजा
लूटने में ही सदा लगा रहता है ।। वहीं तल्लीन होने में उसकी
रुचि होती है ।।
मन द्वारा विषयों को संयत करें
मन ही हमारा मित्र है, मन ही हमारा शत्रु है, जैसा कि
भगवान् पूर्व में कह चुके हैं ।। यह मन बड़ा ताकतवर है, बड़ा चचलं भी है एवं वश में आ जाए, तो हमारा अपना एक अतिसशक्त व प्रिय सहायक भी है ।। यदि कामनाएँ इसे न भटकाएँ,
तो भी इंद्रियाँ बलपूर्वक विषय संसार को सम्मोहित कर देने वाले
आकर्षणों के माध्यम से इसे घसीट ले जाने का प्रयास करती हैं
।। ऐसे में श्रीकृष्ण इसी चौबीसवें श्लोक के उत्तरार्द्ध में
संकेत करते हैं कि मन द्वारा ही (मनस् एव) सभी इंद्रियों को
(इंद्रिय ग्रामम्) चारों ओर से आस- पास के विषयों से (समंततः)
कैसे पूर्णतया संयत करना है (विनियम्य) ।। मन की शक्ति से ही
उसे इंद्रिय विषयों की ओर भागने से बचाना है, पूरी तरह उन पर
एक सुव्यवस्थित नियंत्रण स्थापित करना है ।।
भगवान् यहाँ दो व्यवस्थाएँ देते हैं --
(१)
मन की कल्पनाओं अथवा उनके संकल्प- विकल्प को साधक नियंत्रित करे,
ताकि उनसे उत्पन्न कामनाओं का क्षय किया जा सके तथा-
(२)
मन द्वारा अपने इंद्रिय समूह को विषयों में भटकने से रोका जाए
।। ये दोनों ही तरीके अपनाना किसी भी योगपथ के पथिक, जीवन
संग्राम में जूझ रहे एक सामान्य व्यक्ति अथवा झंझावातों, द्वंद्वों
में जीने वाले रुग्ण मानसिकता वाले के लिए अत्यंत अनिवार्य है
।।
अधीर नहीं धैर्ययुक्त बुद्धि
अभी भगवान् की बात समाप्त नहीं हुई है ।। वे इसे पच्चीसवें श्लोक में भी जारी रखते हैं, कहते हैं- ‘‘अधीर बुद्धि के साथ नहीं, धैर्यपूर्वक बुद्धि को स्थिर करके मन को एकाग्र करो ।’’ (बुद्धया धृतिगृहीतया) अधीर बुद्धि हमें विक्षुब्ध बनाती है, अत्यंत अशांत बनाती है एवं गीताकार स्वयं पहले कह चुके हैं- ‘अशांतस्य कुतो सुखम् ।’अशांत व्यक्ति सुखी कैसे रह सकेगा ।। हमारी मन की सारी समस्याएँ धैर्यर्
चुक जाने, आतुरता, जल्दबाजी बढ़ जाने की वजह से हैं ।। जिसे
अध्यात्म- पथ पर चलना है, उसे धैर्य- सहनशक्ति विकसित करना अत्यधिक
जरूरी है ।। भगवान् पहले भी उसी अध्याय में तेईसवें श्लोक में कह चुके हैं, बिना ऊबे हुए चित्त से धैर्यपूर्वक योग किया जाना चाहिए ।। (अनिर्विण्ण चेतसा योक्तव्यः) ‘‘सहोऽसि सहोमयि देहि’’ के माध्यम से उपरिषदकार भी यही कहता है ।। आज के सारे तनाव जन्में
ही जल्दबाजी के कारण हैं ।। यह भी कहा जा सकता है कि तनाव
नियंत्रण में न होने के कारण जल्दबाजी रूपी दुर्गुण मनुष्य को
घुन की तरह लग गया है ।। फिर ये कभी समाप्त न होने वाला
अंतहीन चक्र चल पड़ता है एवं मनुष्य अंततः कई रोगों का शिकार हो
जाता है ।।
आंतरिक संतुलन व शांति का राजमार्ग
भगवान् इस प्रकार जोर देते हुए पुनः कह उठते हैं-
धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को आत्मा में परमात्मा से केंद्रित
करने का प्रयास करना चाहिए ।। (आत्मसंस्थं मनःकृत्वा) जब ध्यान योगी क्रमशः प्रयासपूर्वक
(शनैः शनैः) अपनी बुद्धि को धैर्यपूर्वक स्थिर रखना सीख लेता है
और अपना मन परमात्मा में, उनके ध्यान में केंद्रित कर देता है,
तो स्वतः उसकी आंतरिक शांति बढ़ने लगती है ।। अंदर से वह राग
बजने लगता है, जो मन व आत्मा की उपरामता का द्योतक है। एक प्रकार से इनर इक्वीलिव्रियम
(आंतरिक संतुलन) स्थापित होने लगता है एवं शांति में वह स्थित
होने लगता है ।। यही तो ध्यान का परम लक्ष्य है ।। एक और बात
भगवान् कह देते हैं- ‘‘न किंचिदपि चिंतयेत्’’
और किसी विषय वस्तु का फिर चिंतन न करे ।। मात्र परमात्मा का,
उनकी लीला का, उनके गुणों का ध्यान ही मन में हो ।। मन फिर
भौतिक उपादानों
की ओर, सुख- सुविधा के साधनों की ओर न भागे ।। हृदय शांति से
भर गया तो फिर अपनी ओर से कोई विचार रूपी पत्थर फेंककर इस शांतझील
में, अंतःकरण में कोई व्यतिक्रम न पैदा करें ।। फिर तो मन को
उस आंतरिक शांति में रमण करने देना चाहिए ।। ज्यों ही ध्यान की
इस अवस्था में कुछ नया सोचना या विचार शृंखला बनाना आरंभ किया,
तो व्यक्ति बहिर्मुखी होने लगेगा ।। फिर वह ध्यान में लगेगा नहीं; एक बार भी मन को छूट मिल गई, तो वह बार- बार विषयों, संस्पर्शों, कामनाओं के अपने सुपरिचित जगत् में विचरण हेतु भाग खड़ा होने की तैयारी करने लगेगा ।। सतत भागता ही रहेगा ।।
उत्कृष्टता के प्रति सघन श्रद्धा
परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं- ध्यान से तात्पर्य यही है- निकृष्टता के लोभ, मोह और अहंता के जाल- जंजाल में जकड़े हुए मन को इन विडंबनाओं में भटकते रहने की आदत छुड़वाना
तथा निर्धारित लक्ष्य इष्टदेव के साथ तादात्म्य होने का अभ्यास
करना ।। इसमें मन को बिखराव की बालबुद्धि छोड़ने इष्टदेव से लेकर
दिनचर्या के प्रत्येक क्रिया- कृत्य में तादात्म्य होने का
अभ्यास करना भी है ।। न तो पूजा उपचार में बिखराव रहे और न
दैनिक कृत्य बेगार भुगतने की तरह आधे- अधूरे मन से किया जाए ।।
क्रिया के साथ मनोयोग को घनिष्ठ कर लेने की सफलता बहुत बड़ी
उपलब्धि है ।। किसी देवता का ध्यान करते रहना और इसी की छवि
में मन रमाए
रहना मनोनिग्रह का एक स्वरूप तो है, पर इतने भर से अभीष्ट
सफलता नहीं समझी जानी चाहिए ।। ऐसी एकाग्रता तो नट, बाजीगर, मुनीम,
कलाकार, वैज्ञानिक भी अपने स्वभाव का अंग बना लेते हैं ।। लक्ष्य
यह होना चाहिए कि सर्वतोमुखी उत्कृष्टता के प्रति सघन श्रद्घा
उत्पन्न की जाए, उसके माहात्म्यों का भाव- भरा चिंतन किया जाए और
अपनी समूची चेतना को इसी में सराबोर होने दिया जाए ।।
उत्कृष्टता की गरिमा पर श्रद्धा केंद्रित करने को चिंतन और उसे आज की स्थिति में क्रियान्वित करने की आकांक्षा को उभारना, योजना बनाना मनन कहलाता है।
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पं. श्रीराम शर्मा आचार्य वाङ्मय क्र. २२ पृष्ठ १.१२९ इन दो श्लोकों से जो तात्पर्य गीताकार का है, इसी का मानो सार-
संक्षेप पूज्यवर ने प्रस्तुत कर दिया है ।। किसी भी विषयवस्तु का
चिंतन न कर मात्र परमात्मा का चिंतन करना हमारा लक्ष्य होना
चाहिए ।। परमात्मा को आदर्शों के समुच्चय के रूप में श्रेष्ठता,
सत्प्रवृत्तियों, सद्गुणों के समूह के रूप में पूज्यवर ने परिभाषित
किया है ।। योगेश्वर साधक को इसी परमात्मा में स्थित होने,
धैर्यपूर्वक शनैः शनैः अभ्यास द्वारा मन को उन्हीं में लीन होने
तत्सम- तदू्रप होने का शिक्षण देने के रूप में बता रहे हैं ।।
समाधि योग का अभ्यास
स्वामी अपूर्वानंद (श्री रामकृष्ण शिवानंद आश्रम बारासात प. बंगाल) लिखते हैं कि २४वाँ व २५वाँ
श्लोक विशेष रूप से समाधि योग के अभ्यास की प्रक्रिया समझाने
के लिए श्रीकृष्ण ने कहा है ।। चित्तवृत्तियों का पूर्ण निरोध ही
योग है ।। योगशास्त्र में चित्त की पाँच अवस्थाएँ बताई गई हैं-
क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध ।। प्रथम चार अवस्थाओं
से क्रमशः मुक्तकर चित्त को निरुद्ध करने का कौशल ही राजयोग या अष्टांग योग है ।। इसी के आठ अंगों में ध्यान व समाधि की चर्चा पतञ्जलि
ने की है ।। श्री रामकृष्ण इस संबंध में कहते हैं कि हठयोग
से, राजयोग की ओर जाने की बजाए उपर्युक्त प्राणायाम से मन का
निरोध करके ईश्वर से भक्तियुक्त
होकर ध्यान करने से मन और वायु दोनों स्वतः ही निरुद्ध हो
जाते हैं ।। ईश्वर का नाम लेते- लेते साधक समाधि अवस्था में
पहुँच जाता है ।।
मन ध्यान की अवस्था से हटने न पाए ।। पुनः विषय जगत्
में भटकने की विडंबना से बचे, इसके लिए भगवान् कृष्ण और भी
स्पष्ट व मुखर शब्दों में घोषणा करने लगते हैं- ‘‘जिस किसी कारण से चचंल
और अस्थिर मन इधर- उधर भटके, वहाँ से उसे वापस लाकर आत्मा में,
परमात्म- सत्ता में उसका निरोध नियोजन करना चाहिए ।। यह बात उनने
२६वें श्लोक में कही है।’’
मन को बारंबार समझाओ
मन का भटकना स्वाभाविक है ।। हर किसी का मन इधर- उधर
भटकता ही है ।। विचार जिसमें सतत प्रवाहित हो रहे हैं, वह मन ही
तो है ।। अतः जब कभी मन विषयों की ओर, कामवासनाओं की ओर, सुख-
साधनों की ओर, पद- उपाधि की ओर भागे, उसे समझा- बुझाकर वापस
परमात्मा के चिंतन की ओर ही लाओ, यही परमात्मारूपी साक्षात् ईश्वरीयसत्ता
श्रीकृष्ण की कह रही है ।। अर्जुन के माध्यम से हम सभी को
संबोधित कर रही है ।। यह क्रम बार- बार चलेगा ।। अभ्यास कड़ा करना
होगा ।। जब भी मन फिसलेगा, ध्यानकर्त्ता
योगी भी उस प्रवाह में बह जाएगा, अतः जरूरी यह है कि बार- बार
आत्मावलोकन कर कड़ा आत्म- निरीक्षण कर उसे वापस लक्ष्य की ओर,
ध्येय की ओर लाना होगा ।। हम सभी को अपनी मन की उछल- कूद का
साक्षी बनना चाहिए ।। हमारे सहयोग बिना यह कहीं भी भाग नहीं
सकता ।। सध जाने पर यही मन दीर्घकाल तक ध्यान करने में एवं
परमात्मा में स्थित होने पर मिलने वाली शांति दिलवाने में मदद
करेगा।
रोकिए मन को, लगाइए परमात्मा में
प्रस्तुत श्लोक अत्यधिक महत्वपूर्ण
है, हर ध्यान- योग का अभ्यास आरंभ करने वाले के लिए एक युवा
मन के लिए, एक परिश्रम कर रहे विद्यार्थी के लिए, एकाग्र मन से
अनुसंधान कर रहे एक वैज्ञानिक के तथा एक तनावग्रस्त व्यक्ति में
हमें स्वयं कारण ढूँढ़ना होगा ।। हमारा मन कहाँ- कहाँ, कब- कब
भटकता है ।। उस ओर से उसे रोककर बारंबार उस मन को परमात्मा में
ही हमें निरुद्ध करना चाहिए ।। यही वह प्रक्रिया है, जो किसी
को भी जीवन- संग्राम में सफल बना सकती है। हम आदर्शों को ही
पूजें, उन्हीं का सतत चिंतन करते रहें ।। अपना मन और कहीं न
जाने दें ।। परिणाम शुभ होगा एवं हमारा मन परमात्म- सत्ता में
लक्ष्य- ध्येय में लगने लगेगा ।। हम तनावमुक्त शांत जीवन जी सकेंगे और जीवन के हर आयाम में सतत् सफलता प्राप्त करेंगे ।। यही तो हम सब का लक्ष्य हैं।