झंझावातों से चित्त को प्रभावित न होने दें
दीपक की निश्चला लौ की तरह हम इस लौकिक जगत् में नित्य आते रहने वाली कामवासनाओं -अहंताओं-
तृष्णाओं के तूफानों से स्वयं के चित्त को सुरक्षित बनाए रखें,
यह योगेश्वर श्रीकृष्ण का स्पष्ट निर्देश है। परमात्मा के ध्यान
में लगे योगी का जीता हुआ चित्त इसी तरह होता है, यह बात
अठारहवें व उन्नीसवें श्लोक में कही गई। जगत्गुरु
श्रीकृष्ण हमें उँगली पकड़कर ध्यानयोग के मार्ग पर चलना सिखा
रहे हैं। वे यह भी जानते हैं कि उन्हें मात्र अर्जुन के स्तर
तक नहीं—और भी नीचे सामान्य व्यक्ति के, जो अहंकेंद्रित बुद्धि से संचालित होता रहता है, स्तर पर उतरकर समझाना होगा। इसीलिए वे अगला श्लोक एक सुंदर- सी उपमा के तुरंत बाद कह उठते हैं—
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥ ६/२०
पहले शब्दार्थ देखें—‘‘जिस अवस्था में (यत्र), योगाभ्यास के द्वारा (योगसेवया), निरुद्ध- संयमित (निरुद्धं), चित्त (चित्तं) उपरत होता है [जिसमें विषय- संस्पर्श नहीं रहता] (उपरमते), जिस अवस्था में (यत्र), शुद्ध मन के द्वारा (आत्मन एव), आत्मा में (आत्मनि), आत्मा को (आत्मानं) अपरोक्ष रूप से अनुभव करके (पश्यन्) परितुष्ट होते हैं (तुष्यति), हे अर्जुन इसी स्थिति को योग कहते हैं। ’’ इसी का भावार्थ ऐसा हुआ—‘‘जहाँ योग के अभ्यास द्वारा संयत हुआ मन उपराम
हो जाता है (जिस स्थिति में विषय- संस्पर्श तनिक भी नहीं रहता)
और जहाँ आत्मा द्वारा आत्मा का अनुभव करते हुए (परमात्मा के
ध्यान से शुद्ध हुई बुद्धि द्वारा परमात्मा की साक्षात् अनुभूति
करते हुए) अपनी आत्मा में ही (सच्चिदानंदघन परमात्मा में) परमतृप्ति का अनुभव करता है—(उसी स्थिति को योग कहा जाता है)।’’ ६/२०
योग की एक विलक्षण अवस्था
यह वस्तुतः योग की अवस्था की व्याख्या है, जो क्रमशः २०, २१, २२, २३वें श्लोक तक चली आती है। इस समग्र व्याख्या का एक अंश बीसवें श्लोक
में आया है, पर इतना कुछ संस्कृत के इन शब्दों में सिमट आया
है कि इसकी व्याख्या में बहुत कुछ कहा जा सकता है। यहाँ गीताकार
की काव्यात्मक शैली की अभिव्यक्ति की भूरि- भूरि सराहना का मन
करता है। इस श्लोक में एक तो ‘‘विनियतं चित्तं’’ से आगे की बात कही गई है—‘‘उपरमते चित्तं’’—चित्त उपराम हो जाता है—किसी भी प्रकार के भोगपरक विषयादि उसे स्पर्श नहीं कर पाते। दूसरी बात कही गई है—‘‘आत्मना आत्मानं पश्यन् आत्मनि तुष्यति’’।
शुद्ध मन- बुद्धि द्वारा (ध्यान के माध्यम से) परमात्मा की
साक्षात् (अपरोक्ष) अनुभूति करते हुए परम तृप्ति की अनुभूति।
योगेश्वर कृष्ण ध्यानयोग की व्याख्या करते हुए उसे पराकाष्ठा पर
लेकर आ रहे हैं, जहाँ व्यक्ति आनंद की परमावस्था तक पहुँच जाता
है। शब्दों का चयन इतना सुंदर है कि ‘आत्मा’ शब्द जहाँ हमें अपने अंदर विद्यमान आत्मसत्ता का भान कराता है, वहीं सच्चिदानंदघन परमात्मा का भी वह सूचक है; क्योंकि उसी का अंश तो हम सबमें विद्यमान है। एक और अद्भुत शब्द इसमें आया है—‘‘योगसेवया’’ योगाभ्यास द्वारा। योग का अभ्यास- नियमित ध्यान को योगसेवया नाम से श्रीकृष्ण संबोधित करते हैं।
अभी तक श्रीकृष्ण की सारी व्याख्याएँ (छठे अध्याय में) मन की विषयों के पीछे अंधाधुंध भगदड़ को बंद करने के लिए हुई हैं। ज्यों ही यह दौड़ बंद होती है, मन शांत हो जाता है, उपरामता
को प्राप्त हो जाता है एवं व्यक्ति अपने अंदर महान शांति की
अनुभूति करता है। जैसे- जैसे मन शांत होता चला जाता है, ध्यान की
स्थिति में पहुँचकर वह उतनी ही ऊँचाई तक जाने लगता है। मन शांत
स्थिति में जाकर जितनी गहराई में डुबकियाँ लगाता है, उतनी ही
उसकी दृष्टि सूक्ष्म होती जाती है एवं ध्यान से इस तरह शुद्ध
हुई सूक्ष्मबुद्धि द्वारा साधक परमात्मा का साक्षात्कार करता हुआ परमतृप्ति
भरे आनंद का अनुभव करने लगता है। वह इस दिव्य अनुभव के साथ
स्वयं को परमात्मा से लीन हुआ महसूस करने लगता है। आत्मा का
वास्तविक स्वरूप (शिवोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम्, सोऽहम्) जान लेने के बाद
उसकी सारी भ्रांतियाँ स्वतः निवृत्त हो जाती हैं।
बुद्धि सूक्ष्म हो, शुद्ध हो
आत्मा के इस अनुभव के प्रति जागरण ही ध्यान का
उद्देश्य है। योग की इसी अवस्था में श्रीकृष्ण ले जाने की कोशिश
कर रहे हैं। मन यहाँ विलीन हो जाता है। मन के समाप्त होते ही
सारी कल्पनाओं, स्वप्रों, कामनाओं, आकांक्षाओं, तृष्णाओं, कामोद्वेगों,
सभी की निवृत्ति स्वतः हो जाती है। बार- बार श्रीकृष्ण का जोर
बुद्ध को सूक्ष्म- शुद्ध बनाने पर व मन को विलय करने पर है। मन,
बुद्धि, चित्त को पार करके ही शुद्ध अहं तक पहुँच हो सकती है,
जहाँ परमात्मा स्वयं विद्यमान हैं। परमात्मा से अपने अंदर
साक्षात्कार का अनुभव कृतकृत्य करने वाला, अनंत तृप्ति देने वाला
एवं शांति देने वाला है। यह ध्यान की सर्वोपरि उपलब्धि है एवं
यहाँ तक पहुँचने का सभी को आमंत्रण है।
पहले पंद्रहवें श्लोक में श्रीकृष्ण कह चुके हैं—(छठे अध्याय में ही) ‘‘योगी निर्वाण की उस परम शांति को प्राप्त होता है, जिसकी आधारशिला- नींव मेरे अंदर है।’’ ‘‘शांतिं निर्वाण परमां मत्संस्थाम् अधिगच्छति।’’ निर्वाण की यह शांति तभी मिलती है जब चित्त पूर्णतया संयत और कामनामुक्त है। (विनियतं चित्तं), आत्मा में स्थित हो, जब वह वायुशून्य
स्थान में स्थित दीपशिखा के समान अचल होकर अपने सभी चंचल कर्म
करना बंद कर दे एवं अपनी बहिर्मुखी वृत्तियों को अंदर खींच
ले। आत्मा में आत्मा का साक्षात्कार होने की स्थिति में जीव परम
तृप्ति का अनुभव करता है, वास्तविक परमसुख की अनुभूति करता है।
उस अशांति देने वाले सुख की नहीं, जो मन और इंद्रियों की खेलकूद
के कारण उसे प्राप्त है, बल्कि वह आंतरिक आनंद जो परम शांति
देने वाला है, जिसमें मन का कोई विक्षोभ नहीं है, जिसमें स्थित
ध्यानयोगी को अपनी सत्ता के, आध्यात्मिक सत्य के अति समीप पहुँचा
देती है। मानसिक दुःख- संक्षोभ सभी बहिरंग के विषयों के संस्पर्श
के कारण हैं।
ऐसे दुःखों से संबंध- विच्छेद को श्री अरविंद
मन का दुःख के साथ तलाक देने के समान बताते हैं। इसी
आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति, जिसमें बहिरंग के दुःख कष्ट नहीं
देते, जिसमें आत्मा- परमात्मा का मिलन हो जाता है, श्रीकृष्ण के
अनुसार योग है, भगवान् से ऐक्य है, जीव- ब्रह्म मिलन है एवं इसी
परम लाभ वाले लक्ष्य तक पहुँचा देना योगेश्वर का उद्देश्य है।
ध्यानयोग का लक्ष्य
परम पूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं—‘‘ध्यानयोग
का उद्देश्य अपनी मूलभूत स्थिति के बारे में, अपने स्वरूप के
बारे में सोच- विचार कर सकने योग्य स्मृति को वापस लौटाना है।
यदि किसी प्रकार वह वापस लौट सके तो लंबा सपना देखकर डरे हुए
व्यक्ति जैसी अंतःस्थिति हुए बिना नहीं रह सकती। तब प्रतीत होगा
कि मेले में खोए हुए बच्चे से, आत्मविस्मृत मानसिक रोगियों से
अपनी स्थिति अभिन्न नहीं रही है। इस व्यथा से ग्रसित लोग स्वयं
घाटे में रहते हैं औरों को दुखी करते रहते हैं, विस्मरण का
निवारण, आत्मबोध की भूमिका में जागरण—यही
है ध्यानयोग का लक्ष्य। उसमें ईश्वर का स्मरण किया जाता है,
अपने स्वरूप का अनुभव किया जाता है। जीव और ब्रह्म के मिलन की
स्मृति फिर से ताजा की जाती है।’’ (पृष्ठ २४- २५, ‘उपासना के दो चरण जप और ध्यान’ से उद्धृत)
ध्यान पर परम पूज्य गुरुदेव की व्याख्या एवं उनके
द्वारा कराए गए विभिन्न प्रकार के ध्यान के निर्देशों को देखते
हैं तो लगता है कि वह गीता के इन्हीं श्लोकों की व्याख्या है। कई प्रकार के ध्यान परम पूज्य गुरुदेव द्वारा उन्हीं की वाणी में कराए गए टेपांकित
हैं। उनमें त्रिवेणी स्नान वाला एक ध्यान ऐसा है, जो इसी प्रकार
के निर्देशों पर टिका है, जिसमें हमें आत्मतत्त्व का सामीप्य
मिल सके, हम अपने निज के परमात्मरूप की अनुभूति कर तृप्ति, तुष्टि, शांति को अनुभव कर सकें। नित्य- नियमित ध्यान शांतिकुंज की विशेषता रही है और प्रातः, दोपहर, शाम की त्रिकाल संध्याओं में ओटोसजेशन (आत्मनिर्देश),
लययोग एवं नादयोग ध्यान द्वारा लाखों व्यक्ति लाभान्वित हुए हैं।
अंतः ऊर्जा जागरण के मौन सत्रों में यह लाभ विशेष मिलता है।
निरुद्ध चित्त की योगसेवा
प्रस्तुत बीसवें श्लोक में एक शब्द ‘योगसेवा’ आया है। कहा गया है कि योगसेवा से चित्त निरुद्ध हो जाता है। गीताप्रेस गोरखपुर के श्री जयदयाल जी गोयंदका लिखते हैं, ‘‘ध्यानयोग के अभ्यास का नाम ही योगसेवा है। सतत ध्यानयोग का अभ्यास करते- करते जब चित्त एकमात्र परमात्मा में- सच्चिदानंदघनपरमेश्वर में भलीभाँति स्थित हो जाता है तब वह निरुद्ध कहलाता है।’’ वस्तुतः ‘‘योगः चित्तवृत्ति निरोधः’’
वाली पतंजलि की व्याख्या यहाँ स्पष्ट रूप में योगेश्वर
श्रीकृष्ण द्वारा की गई है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जैसे ही योगी
का चित्त परमात्मा के स्वरूप में निरुद्ध हो जाता है, उस समय
वह संसार से हमेशा के लिए उपरत हो जाता है, उपरत
होने का अर्थ है, फिर अंतःकरण में लौकिक- कामनाओं की इच्छा कभी
उत्पन्न न होना, सदा के लिए समाप्त हो जाना। संसार में रहते हुए
भी सभी प्रकार की इच्छाओं से चित्त का उपराम हो जाना योग की उच्चतर अवस्था में पहुँच जाना है।
श्री बाल गंगाधर तिलक जेल में लिखी गई अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘गीता रहस्य’ में लिखते हैं, ‘‘उन्नीसवें श्लोक में जिस चित्तवृत्ति निरोध की बात एक उपमा से कही गई, उसी की व्याख्या रूप में बीसवें से तेईसवें श्लोक तक विस्तार से आई है। यह वस्तुतः इसी तथ्य की व्याख्या है कि समाधि चित्तवृत्ति निरोध की ही पूर्णावस्था है। इसी को योग कहते हैं। दुःखरहित स्थिति जो प्राप्त होती है, वही ब्रह्मानंद है, आत्मानंद है।’’
अब शेष श्लोकों को तो बाद में समझेंगे, इस श्लोक (क्र० ६/२०)
में जो गूढ़ बातें आई हैं, उनका स्पष्टीकरण अनिवार्य है। योग सतत
करते हुए ध्यान लगाते- लगाते योगी परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति
करता हुआ उन्हीं में मन लगाता हुआ शांति को प्राप्त होता है।
यह बात ‘‘आत्मना आत्मानं पश्यन् आत्मनि तुष्यति’’
के माध्यम से आई है। यह ध्यान की सर्वोपरि उपलब्धि है। हमारे
मन का हर समय शांत स्थिति में होना परम तप कहा गया है। जिस
अंतःकरण में शांति जितनी गहरी होगी, वहाँ शक्ति भी उतनी ही सघन
होगी। शांति वह धुरी है, जहाँ सारे आध्यात्मिक गुण स्वतः आते चले
जाते हैं। जिन ऋषियों ने शांति मंत्र लिखे हैं, उन्होंने सब ओर ब्रह्मांड
में शांति के ही दर्शन किए हैं। यह मात्र निस्तब्धता नहीं है,
एक प्रकार की घनीभूत ऊर्जा है, जो मनुष्य को पूर्णतः रूपांतरित
कर देती है।
अंतःकरण में शांति की स्थापना
इसी तथ्य को परमपूज्य गुरुदेव ने इस तरह कहा है—‘‘मनःस्थिति बदले तो परिस्थिति बदले।’’
यदि हर व्यक्ति का मन बदल जाए, अंदर शांति स्थापित हो जाए
तो बाहर भी सब शांतिमय हो जाएगा। व्यक्ति निर्माण से युग निर्माण
की परिकल्पना उनने इसी आधार पर की है। बुद्ध के हृदय की शांति
ने अंगुलिमाल को बदला, इसी प्रकार हम योग द्वारा सारे संसार को
बदल सकते हैं। क्रोध तो शांति के अभाव का नाम है। क्रोध जाते
ही बोध हो जाता है कि हम कौन हैं, हमारी आत्मसत्ता क्या है,
हमें कैसा होना चाहिए? मन की शांति, अंतःकरण की शांति आज की परम
आवश्यकता है। उसकी तलाश लोग बाहर करते हैं, है वह अंदर ही। श्री
अरविंद ने ठीक ही तो कहा है—‘‘इनर रेगुलेट्स आउटर बिईंग’’। श्रीकृष्ण चाहते हैं कि हर व्यक्ति गीता की शिक्षा पर चले। मन को शांत बनाए, अपने अंदर बैठे परमात्मा से ‘योग’ स्थापित करे एवं नियमित योगाभ्यास द्वारा साक्षात् उसकी अनुभूति नित्य करे। यदि ऐसा होने लगे तो ‘व्यक्ति निर्माण’- दिव्यकर्मी ध्यानयोगी महामानवों का निर्माण स्वतः होने लगेगा।
अब इक्कीसवें, बाइसवें और तेईसवें श्लोकों की ओर चलते हैं। बीसवें श्लोक तक आते- आते इस अध्याय में इतना कुछ प्रभु कह गए हैं कि यह उसी के लिए बोधगम्य है, जो अपने ‘अहं’
से परे हटकर सोचता हो। बौद्धिक रूप से सोचने वाले को भी यह
जानना जरूरी है कि ध्यान क्यों जीवन में जरूरी है, नियमित आत्मा
के आहार के रूप में इसकी इतनी अनिवार्यता क्यों बताई गई है
एवं ध्यान से और भी उच्चतर उपलब्धियाँ ऐसी क्या हैं, जिनकी तुलना
में लौकिक लाभ गौण मालूम होते हैं। जीवनदृष्टि हर व्यक्ति की बदले, चाहे वह भक्तिमार्गी
हो कर्मयोगी हो अथवा ज्ञानयोगी, बुद्धि से जुड़ा हो या भावना से
एवं हृदय से ध्यान को आत्मसात् करे। इसलिए श्रीकृष्ण तीन श्लोक और लेकर १८, १९, २०वें श्लोक में कही गई अपनी बात को विस्तार से २१, २२, २३वें श्लोक में समझाते हैं, ताकि किसी प्रकार का कोई संशय न रह जाए। इन तीनों श्लोकों में एक अनुभूति को प्राप्त निष्णात् शिक्षक की तरह योगाचार्य श्रीकृष्ण हमें अपने गहराई तक फैले अंतस् की एवं ध्यान की अवस्था का पूर्णतः बोध कराते हैं।
उच्च कक्षाओं की ओर
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यामतींद्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः॥ ६/२१
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥ ६/२२
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥ ६/२३
अब इन तीनों का शब्दार्थ देखते हैं—
‘‘जिस अवस्था में (यत्र), यह योगी (अयं), केवल बुद्धि के द्वारा जानने योग्य (बुद्धिग्राह्यम्), इंद्रियों से भी परे (अतींद्रियम्), अत्यंत (आत्यन्तिकं), जो (यत्), आनंद है, (सुखं), उसे (तत्), अनुभव करता है, जानता है (वेत्ति), और जिस अवस्था में स्थित होकर (यत्र च स्थितः), परमात्मा के स्वरूप से विचलित नहीं होता (तत्त्वतः न चलति)।’’ [इसी अवस्था को योग कहते हैं] ६/२१
‘‘वैसी अवस्था को (तं), दुःखरूपी संसार के संयोग से रहित (दुःख संयोग वियोगं), योग रूप में जानना चाहिए (योग संज्ञितम्), समझना चाहिए (विद्यात्) (एवं), वह (सः), योग (योगं), बिना ऊबे हुए चित्त से- धैर्यपूर्वक (अनिर्विण्णचेतसा) दृढ़निश्चय के साथ उत्साहयुक्त चित्त से (निश्चयेन) किया जाना चाहिए, योगयुक्त होना चाहिए। (योक्तव्यः)।’’ ६/२३
योग की परम स्थिति
यहाँ आकर अठारहवें से आरंभ हुई योग की एवं बीसवें
से आरंभ हुई योग की अवस्था की व्याख्या योगेश्वर द्वारा
परिपूर्ण होती है। इस बीच में इतना कह गए हैं कि इसकी विशद
विवेचना हमें करनी ही होगी, नहीं तो हम ध्यान का मर्म नहीं जान
पाएँगे। पहले तीनों का भावार्थ देखते हैं—
जिस अवस्था में योगी उस अनंत आनंद का अनुभव करता है, जो इंद्रियातीत
है एवं केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा ग्रहण करने योग्य
है। जिसमें स्थित होकर योगी उस परमात्मा के स्वरूप से (अपने
वास्तविक स्वरूप से) कभी विचलित नहीं होता। ६/२१
जिसे प्राप्त करके (परमात्मा की प्राप्तिरूपी लाभ) उससे बड़ा लाभ कोई और दूसरा लाभ वह योगी मानता नहीं और परमात्म प्राप्तिरूपी जिस अवस्था में स्थित होकर वह बड़े- से दुःख से भी विचलित नहीं होता। ६/२२
जो दुःखरूपी संसार के संयोग से रहित है, उसी को योगरूप में जानो। योग का न उकताए
हुए अर्थात् धैर्य रखने वाले और उत्साहयुक्त चित्त द्वारा
(निराशा की तरंगों से विक्षुब्ध हुए बिना) अभ्यास दृढ़ निश्चय के
साथ किया जाना चाहिए, एक कर्त्तव्य के रूप में संपादित किया जाना चाहिए। ६/२३
शब्दार्थ व भावार्थ से, जटिल संस्कृत की शब्दावली के संयोजन से बने श्लोक
परत- दर खुलते चले जाते हैं। वह योग हमारे सामने स्पष्ट होने
लगता है, जिसमें श्रीकृष्ण हमें स्थापित करना चाहते हैं व जिसके
विषय में वे ‘आत्म- संयम योग’
की छठे अध्याय की व्याख्या की शुरुआत से हमें समझा रहे हैं।
वे बड़ा स्पष्ट कह रहे हैं कि योग की यह चरमावस्था है। इसमें
प्रवेश करने के बाद व्यक्ति कभी अपने वास्तविक स्वरूप से च्युत
नहीं होता, परमात्मसत्ता से उसका कभी विलगाव नहीं होता। ऐसा योग
साधने के बाद साधक सबसे बड़ा लाभ फिर उसी को मानने लगता है,
उसकी तुलना में कोई और भौतिक लाभ उसे बहुत गौण प्रतीत होता है
तथा ऐसी स्थिति में बड़े- से दुःख भी उसे विचलित नहीं करता। वह
जरा भी परेशान नहीं होता, धैर्यपूर्वक कष्टों को सहन करता हुआ वह
दुःखों के संयोग के वियोग को ही योग मानता है। इस योग का वह
बिना धैर्य खोए, बिना विक्षुब्ध मन के अभ्यास आरंभ कर देता है।