युगगीता (भाग-४)

चित्तवृत्ति निरोध एवं परमानन्द प्राप्ति का राजमाग

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पिछले क्रम में हमने ध्यान संबंधी जन सामान्य हेतु दिया गया स्पष्टीकरण पढ़ा जो योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को छठे अध्याय के २४, २५ एवं २६ वें श्लोक के माध्यम से दिया गया। तनावमुक्त जीवन कैसे जिया जाय एवं ध्यान द्वारा परमात्मा से साक्षात्कार का तरीका क्या है, इसका स्पष्ट निर्देश इन श्लोकों में दिया गया है। वे कहते हैं कि अपनी सभी कामनाओं का सभी रूप में त्याग करके और मन द्वारा इंद्रिय समूह का नियमन कर धीरजयुक्त बुद्धि के साथ साधक को मन को परमात्मा में स्थित करना चाहिए। परमात्मा के अलावा और कुछ भी नहीं सोचना चाहिए। फिर वे यह मानते हुए कि चित्त अति चंचल है- स्वभावतः स्थिर है, उसे उन उन सभी विषयों से जिन पर वह भटकता रहता है, वापस लाकर बार- बार उसका परमात्मा में ही नियोजन करना चाहिए। जब- जब मन चित्त भटके तब- तब साधक को एक पूरा जोर लगाकर प्रयास करना चाहिए कि वह आदर्शों- सत्प्रवृत्तियों के समुच्चय रूप में परमात्मा में ही उसे लगाये। ध्यान करने की कला प्रकारान्तर से श्रीकृष्ण इन श्लोकों के माध्यम से सिखा रहे हैं।

संकल्प जनित कामनाओं से हम मुक्ति पालें क्योंकि ये ही ध्यान में बाधक बनती हैं। सबसे बड़ी बात जो सुयोग्य शिक्षक के रूप में श्रीकृष्ण बताते हैं, वह है धैर्यपूर्वक अभ्यास करना (बुद्धया धृति गृहीतया)। तनाव जल्दबाजी के कारण ही पैदा होता है अतः धैर्य का शिक्षण सभी के लिए अनिवार्य है। परम पूज्य गुरुदेव के चिंतन से ही ध्यान की क्रिया की व्याख्या की गई है। चित्तवृत्तियों का निरोध कैसे करें, स्वामी अपूर्वानन्द जी के माध्यम से बताया गया था। योगेश्वर २६ वें श्लोक में फिर कहते हैं कि जिस भी किसी कारण से चंचल- अस्थिर मन भटके वहाँ वहाँ से उसे वापस लाकर आत्मा में- परमात्मसत्ता में उसका नियोजन करना चाहिए। यह कुंजी है ध्यान की- मन को चंचलता के बिखराव- भटकाव से रोकने की। अब इसी व्याख्या के विस्तार के साथ आगे बढ़ें :-

मनोनिग्रह ही है कुंजी

यह एक सतत चलने वाला अभ्यास है, जिसकी ओर श्रीकृष्ण २६ वें श्लोक में संकेत कर रहे हैं। वे कहते हैं मन हमारे सहयोग के कारण ही भागता है। हम उसे तनिक भी सहयोग न दें और मन को साधें। उन सब विषयों से, जहाँ मन बार बार भटकता है, उसे बार- बार हटाकर आदर्शों के समुच्चय परमात्मसत्ता में ही निरुद्ध किया जाना चाहिए, यह एक स्पष्ट निर्देश योग के इस परम शिक्षक का है। यदि यह क्रिया अभ्यास में आ गयी तो लौकिक एवं आध्यात्मिक जीवन के हर पक्ष में हमें एकाग्रता- तन्मयता भाव में जीने का अभ्यास आ जायेगा।

यह शिकायत प्रायः सभी की है कि उनका मन नहीं लगता। बार- बार भागता है। सफलता चाहे वह भौतिक क्षेत्र की हो, आध्यात्मिक जगत की, इसी पर टिकी है कि मनोयोग से कार्य हुआ कि नहीं। भौतिक एवं आध्यात्मिक जगत में कौन शिखर पर पहुँचा- इसकी कभी जानकारी लेनी हो तो एक तथ्य समान रूप से सामने आता है- इन दोनों ने ही मन को पूरी तरह अपने ध्येय के साथ एकाकार किया। मनोनिग्रह होते ही मानों सफलता की बागडोर अपने हाथ में आ जाती है। इसके लिए प्रयास यही करना होगा कि जिस भी विषय- सांसारिक वस्तु- इन्द्रियों आदि की ओर मन भटकता है, वहाँ से उसे घसीटकर बारम्बार हम परमात्म सत्ता में ही नियोजित करें। परमात्मा को तो हमने देखा नहीं, पर उसे पहचानें कैसे? परमात्मा आदर्शों का- श्रेष्ठताओं का- सत्प्रवृत्तियों का समुच्चय है। हम श्रेष्ठ चिंतन में स्वयं को तन्मय कर दें। अपना लक्ष्य श्रेष्ठतम आदर्शों के रूप में- महामानवों के जीवन प्रसंगों को ध्यान में लाकर निर्धारित करें एवं उस पर ही टिके रहने का अभ्यास करें। यह क्रमशः अभ्यास से ही संभव हो पायेगा। इसमें समय लग सकता है पर हमें धैर्य पूर्वक काम लेना होगा। ‘‘ततः ततो नियम्यैतद् आत्मन्येव वशं नयेत’’ के माध्यम से भगवान अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को यही समझा रहे हैं।

ध्यान योग का लक्ष्य

अर्जुन को एकाग्रता का अभ्यास है। वह एक ‘‘डिमांस्ट्रेशन’’ मछली की आँखों का तीर द्वारा उसकी तेल में आकृति देखकर निशाना लगाकर दे चुका है। द्रौपदी का वरण उसने इसी प्रकार किया था। पर यहाँ युद्धभूमि में वह हम सभी का प्रतिनिधित्व कर रहा है उसका मन आसक्तिवश- मोहवश में उलझकर चंचल हो गया है। वह एकाग्रता से तन्मयता- तल्लीनता होने की यात्रा नहीं कर पा रहा है। ध्यान का मर्म बताकर श्रीकृष्ण उसका ही नहीं, मानव जाति का शिक्षण कर रहे हैं। ध्यान का लक्ष्य ही है एकाग्रता- निरुद्धता ऊर्ध्वगमन। यह क्रमशः अभ्यास से ही संभव है।        

मन को विषयों में भटकने की अनुमति दे देना एक प्रकार से सर्वनाश का द्वार खोलना है। मन की अपनी कोई पृथक सत्ता नहीं, मात्र इन्द्रियज्ञान उसका लक्ष्य है। अतः ध्यान की प्रक्रिया में मन का फिसलना एवं बार- बार विषय जगत में उसका भटकना स्वाभाविक है। जैसे जल का गुण प्रवाहित होना है, उसी तरह विचारों का सतत अविरल प्रवाह ही मन का भी धर्म है। इसीलिए भगवान कहते हैं, जब भी कभी ऐसा हो कि मन विषय जगत में भटके तो उसे समझा बुझाकर अपनी आत्मसत्ता के चिंतन में ही नियोजित करने का साधक प्रयास करे। जब जब मन फिसलता है- एक प्रकार से सम्मोहन में फँसा व्यक्ति जो ध्यान करने बैठा है, मन पर सवारी कर उसके साथ ही बहने लगता है। यह हम रोजमर्रा के जीवन में देखते हैं। यदि अभ्यास उलट दिया जाय, जब मन भागने की कोशिश करे, उसे पकड़कर हम परमात्म सत्ता के चरणों में लाकर पटक दें- आदर्शों से भरे विचारों में हम उसे लीन करदें, सतत उत्कृष्ट चिंतन ही करें तो इस अभ्यास द्वारा मन पर लगाम कसने का पुरुषार्थ संपन्न हो सकता है। मन हमारे सहयोग के बिना उछलकूद करने की कभी हिमाकत नहीं कर सकता। हम इस उछलकूद के साक्षी बनें और उसे साधें। इससे दीर्घकालिक ध्यान सधेगा- परमात्मा में मन लगेगा और चिरस्थायी आत्मिक शान्तिरूपी वरदान हस्तगत होगा। सधा हुआ मन हमें उच्चस्तरीय उपलब्धियों के लिए सतत उपलब्ध रहेगा। ध्यान की प्रक्रिया जो इस २६ वें श्लोक में समझाई गई है, हमारे व्यक्तित्व को रूपान्तरित कर देती है- हम सुसंगठित हो जाते हैं और यह उपलब्धि बहुत बड़ी है। इसके लिए हमें मन को काबू में करने का जो प्रयास करना पड़ा- उसका पुरुषार्थ परिणाम की तुलना में नगण्य ही है।

पतंजलि द्वारा समाधान

          पच्चीसवाँ श्लोक एवं छब्बीसवाँ श्लोक ध्यान योग ही नहीं, अध्यात्म पथ के हर पथिक के लिए मार्गदर्शक है। योगेश्वर यहाँ प्रकारान्तर से बता जाते हैं कि साधना क्षेत्र में विघ्र अवश्य आयेंगे। इनसे मन चंचल होगा। परमात्मा में मन नहीं लग पायेगा एवं अध्यात्म में गति हो नहीं पाएगी। पतंजलि मन की चंचलता के पाँच कारण बताते हैं- एक है प्रमाण, दूसरा विपर्यय, तीसरा विकल्प, चौथा- स्मृति एवं पाँचवा- निद्रा। प्रमाण का मतलब है इन्द्रिय जन्य भोग विलास जो हमारे सामने प्रत्यक्ष उपस्थित रहता है। मीठा खाने से- विषयों को ग्रहण करने से इन्द्रयों को तृप्ति मिलती है। मदिरा पीने से हमें उन्माद आता है हम होश खो बैठते हैं। यह जो आकर्षण है, वह प्रमाण के रूप में हमारी योगयात्रा में बाधक है।

दूसरा है विपर्यय। भ्रम, संदेह को ही विपर्यय कहते हैं। असमंजस की स्थिति में चित्त का होना भी हमारी साधना के पथ में एक विघ्र बन जाता है। कस्तूरी मृग को जैसे संदेह रहता है कि कस्तूरी कहीं और है और वह भटकता ही रहता है, ठीक उसी प्रकार हमें भी संशय बना रहता है कि सुख कहीं और है- साधनों में है- भोगों में है। तीसरा है विकल्प यानी मन के भटकने की आदत। चंचल चित्त इधर- उधर भटकता ही रहता है। मन की गति बड़ी तीव्र है। कभी इधर- कभी उधर भागता है। पल भर में ही वह न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है। चौथा है स्मृति। स्मृति यानी पूर्वजन्मों के संस्कार- आदतें। यही स्मृतियाँ हमें सतत घेरे रहती हैं- हमें परेशान करती रहती हैं। हमें याद तो नहीं आता पूर्व जन्म के विषय में, पर संस्कारों के वशीभूत हमारा चिंतन प्रभावित होता है- हमारे चित्त को उस ओर ठेलता रहता है। गुरु इस स्मृति को दुरुस्त करता है। पूर्व जन्मों के संस्कारों को वह ठीक करने की- मरम्मत करने की कोशिश करता है- कभी कभी हमारे पुरुषार्थ से वह आमूलचूल बदल भी जाता है। गुरु हमारी स्मृति- हम कौन हैं- भटके हुए देवता हैं- स्वयं को पहचानें- यह सतत याद दिलाता रहता है।

पाँचवा कारण जो पतंजलि ने बताया है- वह है निद्रा। निद्रा यानी तमोगुण- प्रमाद। आवश्यक निद्रा लेना तो जरूरी है पर आलस्य- प्रमादवश अकारण आने वाली निद्रा तमोगुण के बाहुल्य की परिचायक है। यह गलत समय पर आती है जब हम साधना कर रहे हैं या स्वाध्याय कर रहे हैं या प्रवचन सुन रहे है, तब आकर हमें प्रभावित कर जाती है।

निरुद्धता- परमात्मा में

      चित्त की वृत्तियों का निरोध ही पतंजलि के अनुसार इन समस्याओं से जूझने का तरीका है। मन की वृत्ति को तो शतरंज खेलने वाला- सर्कस का खिलाड़ी- नोट गिनने वाला भी रोक लेता है पर असली योगी वह है जो चित्त की वृत्ति को रोकले- उन उन विषयों से मन को हटाले जिनके कारण चित्त चंचल होता है- उसकी वृत्तियों में विखराव पैदा होता है एवं उधर से हटाकर परमात्मा में- श्रेष्ठताओं में लगा दें। हम अपना ध्यान अपनी गुरुसत्ता में- सविता देवता में- गायत्री माता में- महाकाल भगवान शिव में- अपने आदर्शों रूपी लक्ष्य में लगा दें। जो भी हमारा इष्ट हो उसमें हम मन की ऊर्जा पूरी तरह लगादें- परिणाम सामने आएगा- हम परमात्मा में स्थित हो जायेंगे।

        परमात्मा के कई स्वरूप हैं- नाम, रूप, गुण, लीला ये चार स्वरूप बताए गए हैं। हम भगवन्नाम का जप भी कर सकते हैं- साथ ही उनके गुणों पर चिन्तन करते हुए उनके स्वरूप का ध्यान भी कर सकते हैं। गायत्री मंत्र बोलते हुए हम मंत्रार्थ का चिंतन कर सकते हैं एवं गायत्री माँ या सविता देवता पर ध्यान स्थिर कर सकते हैं। सूर्य का ध्यान कर उसके ‘‘भर्ग’’ को तेज को अपने अंदर धारण करना इसी में आता है। हम ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भी बोल सकते हैं एवं नमः शिवाय भी, साथ ही साथ चिन्तन भी। नाम, रूप के साथ गुणों का चिंतन हमारे मन में एक आदर्श छवि स्थापित कर देता है। बारम्बार ऐसा करने पर क्रमशः वह स्थायी संस्कार बन जाता है। भगवान की लीला को पढ़ना- मनन करना, उसका सतत ध्यान करना भी इसी में आता है। श्रीरामकृष्ण लीलामृत इसीलिए लिखा गया ताकि श्रीरामकृष्ण में लोगों का ध्यान लगे। उनके बारे में सब जानें। श्रीमद्भागवत भगवान की लीला का ही तो वर्णन है। उसका सतत मनन- चिंतन भी हमारी अनुरक्ति भगवान में बढ़ाता है। परम पूज्य गुरुदेव का लीलामृत- ‘‘युगदृष्टा का जीवन दर्शन’’, ‘‘हमारी वसीयत और विरासत’’, ‘‘चेतना की शिखर यात्रा’’ (खण्ड - ) के रूप में हमारे पास है। गुरुसत्ता की लीला को पढ़ना- उसके बारे में सतत चर्चा करना- चिन्तन करना हमें आदर्शों रूपी परमात्म सत्ता में प्रतिष्ठित करता है।

ईश्वर के गुणों व लीला का चिन्तन


ध्यान योग से कितनों ने लाभ पाया- कितनों का मन लग पाया मालूम नहीं, पर श्रीरामचरित मानस ने लाखों लोगों का कल्याण कर दिया। प्रभु श्रीराम की जीवन लीला का सतत चिंतन- मनन करने वाला कभी भटक नहीं सकता। ‘‘रामायण’’ सीरियल जब टेलीविजन पर प्रसारित होता था सड़कों पर सन्नाटा छा जाता था, सभी थोड़ी देर के लिए राममय हो जाते थे। अभी भी रामलीला- कृष्णलीलाओं का प्रचलन गाँवों- कस्बों में है। इनसे परमात्मा में साधक का मन लगता है। सारा प्रयास यही है कि किसी तरह मन की भटकन- चित्त की चंचलता रोकी जाय और उसे कहीं और नहीं, परमात्मा में ही लगाया जाय। षटकर्म- षोडस पूजन- मंत्रोपचार जो भी कुछ हैं वे परमात्मा की भावमूर्ति गढ़ने के लिए ही हैं। बहिरंग में किए गए कि नहीं- अंतरंग में अपने इष्ट की मूर्ति गढ़कर- उनकी प्राणप्रतिष्ठा कर पूजन में बैठेंगे- ध्यान करेंगे तो हृदय मंदिर में परमात्मा की स्थापना होती चली जायेगी। भावनाओं का ही खेल है सारा। यदि हमारी भावनायें प्रगाढ़ होगी तो हम अपने मन- बुद्धि को पाटकर शुद्ध अहं में विराजमान परमात्मा में प्रतिष्ठित हो जायेंगे। इसीलिए श्रीकृष्ण कहते हैं जब जब (यतोयतो) मन चंचल व अस्थिर हो- विचरण करने लगे (निश्चरति मनःचंचलम् अस्थिरम्) तब तब (ततः ततो) उसे परमात्मा सत्ता [अपनी शुद्ध अहं की सत्ता में] में लाकर निरुद्ध करें- नियोजित करें- कुविचारों की सेना को परमात्मा रूपी श्रेष्ठ विचारों की सेना को अपने मन में लाकर काटें और उन्हीं में ध्यान लगायें। उपरोक्त पतंजलि के बताए बंधन एवं भक्तियोग की परमात्म सत्ता में मन लगाने की विधि को इसीलिए विस्तार से समझाया गया। यह हरेक की समस्या है। एक विद्यार्थी की भी- एक तकनीशियन की एवं एक कलाकार की। जीवन समर में काम करने वाले हर दिव्यकर्मी- कार्यकर्त्ता साधारण गृहस्थ की भी। अगले श्लोक में भगवान बड़ी स्पष्ट भाषा पर उतर आते हैं एवं सीधे हमारी त्रैगुण्यमयी प्रकृति पर प्रहार करते हुए उसमें परिवर्त्तन करने को कहते हैं।

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतम कल्मषम्॥ ६/२७

पहले उसका शब्दार्थ देखें-

प्रशान्तचित्त (प्रशान्तमनसं) रजोगुण रहित। शान्त रजसम्। निष्पाप (अकल्मषम्) ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त (ब्रह्मस्वरूपम्) इस योगी पुरुष को (एनं योगिनम्) उत्तम (उत्तमम्) सुख- दिव्यानन्द (सुखं) अवश्य ही प्राप्त होता है (उपैति हि)

भावार्थ है- ‘‘जिसका मन भलीप्रकार शान्त है, जिसका रजोगुण दूर हो गया है, सभी प्रकार के पापों से जिसने पल्ला छुड़ा लिया है ऐसे इस सच्चिदानन्द घन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को निश्चित ही परमानन्द की प्राप्ति होती है।’’

एक कुशल मार्गदर्शनः पाथेय

योगीराज श्रीकृष्ण एक कुशल शिक्षक हैं- स्वयं योगेश्वर हैं। शिक्षण तकनीक की उनकी जानकारी बड़ी ही विशद है। उन्हें लगता है कि सब कुछ कह दिया पर संभव है कि इतना मार्गदर्शन मिलने के बाद भी साधक को ध्यान रूपी राजमार्ग पर चलने में थोड़ा आत्मविश्वास की कमी महसूस हो। अर्जुन जैसे शंकालु साथ ही साथ जिज्ञासु साधक- योगी को अपनी दुर्बलताएँ भी दिखाई देती हैं। उसे लग सकता है ऐसे उच्चस्तरीय योग के वह नितान्त अयोग्य है। वह जगद्गुरु श्रीकृष्ण की उस शिक्षा को सुन तो रहा है, वह भी रणसंग्राम में पर जो बड़े बड़े परिणामों की चर्चा की गयी है, उसे आश्वासन दिया गया है, वह इसके योग्य है कि नहीं। योगेश्वर- भगवान की क्षमता में उसे अविश्वास नहीं, अपने आपमें उसे कमी नजर आती है। दिव्यता के हिमालय शिखर पर चढ़ने पर क्या वह समर्थ है, यह उसके मन में ऊहापोह है, उसे पढ़कर ही भगवान कहते हैं- यदि ध्यान योगी अपने अंदर इन चार शर्तों को पूरा करलें- उनके बताए मार्गदर्शन अनुसार चले तो वह परमानन्द की प्राप्ति करेगा, इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए।
 
चार शर्तेः दिव्यानंद के लिए


कौन सी हैं वे चार शर्तें जिन्हें हर ध्यानयोगी को पूरा करना चाहिए ताकि वे परमानन्द की अनुभूति कर सकें। श्रीकृष्ण इसी श्लोक में कहते हैं-
() मन को विषयों में भटकने से रोककर उसे शान्त करना। (प्रशान्त मनसं)

() रजोगुण से मुक्ति। क्रमशः सतोगुण की अभिवृधि की यात्रा (शान्तरजसं)

() स्वयं को ब्रह्ममय बना लेना- ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त हो जाना (ब्रह्मभूतम)

() वासनाओं से मुक्त पवित्र जीवन जीना (अकल्लषम्)

इतना किया जा सका तो मान लेना चाहिए कि ध्यान योग के मार्ग की सभी बाधाएँ दूर हो गयीं और अब परमानन्द- दिव्यानंद रूपी सुख अवश्य प्राप्त होगा।
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