युगगीता (भाग-४)

कल्याणकारी कार्य करने वाले साधक की कभी दुर्गति नहीं होती

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कभी दुर्गति नहीं होती

अर्जुन की पुनः उठी जिज्ञासाएँ
अर्जुन की तथ्यान्वेषी प्रज्ञा को भगवान श्रीकृष्ण का उत्तर बड़ा ही सही लग रहा है किंतु उसके मन में फिर शंकाऐं उठ खड़ी होती हैं और वह उनके विषय में प्रश्र करने लगता है-

अर्जुन उवाच

अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥ ६/३७

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि॥ ६/३८

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते॥ ६/३९

पहले इन तीनों का शब्दार्थ देखते हैं -


अर्जुन ने कहा-

‘‘हे कृष्ण (कृष्ण) श्रद्धायुक्त होकर योगाभ्यास में प्रवृत्त (श्रद्धया उपेत) यत्नहीन व्यक्ति (अयतिः) योग से (योगात्) चंचल चित्त होने से (चलितमानसः) योगसिद्धि न पाकर (योग संसिद्धि अप्राप्य) किस (कां) गति को (गतिं) प्राप्त होते हैं (गच्छति)?’’ ६/३७

‘‘हे महाबाहो श्रीकृष्ण (महाबाहो) ब्रह्मप्राप्ति के मार्ग से विचलित (ब्रह्मणः पथिविमूढः) निराश्रित (अप्रतिष्ठः) स्वर्ग और मोक्ष दोनों मार्गों से भ्रष्ट होकर (उभय विभ्रष्टः) वह (सः) छिन्न भिन्न मेघखण्ड के समान (छिन्न- अभ्रम इव) क्या विनष्ट नहीं हो जाता (न नश्यति कच्चित)?’’ ६/३८
‘‘हे कृष्ण (कृष्ण) [तुम्हीं] मेरे (मे) इस (एतत) सन्देह को (संशयं) पूर्णतया (अशेषतः) छेदन करने में (छेत्तुम) समर्थ हो (अर्हसि) क्योंकि (हि) तुम्हारे अतिरिक्त (त्वदन्य) इस (अस्य) सन्देह का (संशयस्य) छेदक (छेत्ता) और कोई योग्य नहीं है (न उपपद्यते)।’’ ६/३९
योगभ्रष्ट की क्या होती है स्थिति

अब तीनों का भावार्थ प्रस्तुत है-

‘‘हे कृष्ण ! जो साधक योग में श्रद्धा रखने वाला तो है किन्तु संयमी नहीं है तथा जिसका मन योग से भटक गया है, वह योग की सिद्धि ध्यान योग को प्राप्त न होकर किस गति को प्राप्त होता है?’’

‘‘हे महाबाहो! क्या वह ब्रह्मप्राप्ति के मार्ग में मोहित तथा आश्रयरहित हुआ दोनों और से भ्रष्ट होकर छिन्न भिन्न बादल की भाँति नष्ट तो नहीं हो जाता है?’’
‘‘हे कृष्ण- मेरे इस संशय को संपूर्ण रूप से छेदक करने में आप ही समर्थ हैं। आपके बिना मुझे दूसरा कोई नहीं दिखाई देता जो मेरे इस संशय का निवारण कर सके।’’ (६/३७, ३८, ३९)

योग में पतन किसी साधक के जीवन की एक सबसे दुखद दुभार्ग्यपूर्ण दुर्घटना है। अर्जुन योग की सारी व्याख्या समझने के बाद अपने आपके विषय में सोचता है, साथ ही अन्य योग साधकों के बारे में कि उनकी क्या स्थिति होगी, भविष्य क्या होगा जो संयम का पालन भलीभाँति न कर पायें, भले ही श्रद्धा पूरी रखते हों किन्तु जिनका मन योग से भटक गया हो। उनकी गति क्या होगी। क्या वे दुर्गति को प्राप्त होंगे, जबकि चले श्रेष्ठ कार्य के लिए थे किंतु मार्ग में भटक गए- संयम आदि का यथोचित पालन न कर पाए।

श्रद्धा एवं संयम

श्रद्धा का अर्थ है आदर्शों के प्रति परिपूर्ण निष्ठा। परम पूज्य गुरुदेव द्वारा दी गई परिभाषा है आदर्शों से- सत्प्रवृत्तियों से- श्रेष्ठताओं से असीम प्यार। श्रद्धा कोरा विश्वास नहीं- कोई मान्यता नहीं किंतु एक दृढ़ विश्वास है जो पवित्र ज्ञान पर टिका है। अध्यात्म के क्षेत्र में ‘‘श्रद्धा’’ का अत्यधिक महत्व है। इसी पर सब टिका है। ऐसे में अर्जुन की शंका है कि किसी साधक की योग में श्रद्धा तो है पर वह किसी कारण वश संयम का परिपूर्ण पालन नहीं कर पा रहा है। परम पूज्य गुरुदेव ने चार प्रकार के संयम बताए हैं- समय संयम, अर्थ संयम, इन्द्रिय संयम, विचार संयम। साधकों की दृष्टि से अंतिम दो संयम अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। यदि रसना पर नियंत्रण नहीं है- आहार अत्यधिक एवं तमोगुण- रजोगुण प्रधान लिया जाता है तो कामेन्द्रियाँ भी भड़क जाती हैं। कामुक विचार बादलों की तरह मनःपटल पर आच्छादित रहते हैं। शारीरिक ब्रह्मचर्य भले ही सध रहा हो पर मानसिक ब्रह्मचर्य न सध पाने से वह भी गड़बड़ा जाता है। इसके लिये वे विचार भी जिम्मेदार हैं जो हम विचार करने की कला न जानने के कारण आमंत्रित करते रहते हैं। ये निषेधात्मक, अवसाद जनक भी होते हैं तथा कामुक, उत्तेजक भी। किसी भी साधक को इनसे दूर ही रहना चाहिए। संयम सध गया तो फिर श्रद्धावान योगी योग की चरमसिद्धि को प्राप्त होता है। अर्जुन का प्रश्र है कि यदि यह संयम नहीं सधा तो ऐसा तो नहीं कि वह नष्ट हो जाता हो। उसने बादलों का उदाहरण देकर अपनी बात कही है। ‘‘न घर के रहे न घाट के’’ की उक्ति की तरह वह ब्रह्मप्राप्ति के मार्ग में भटक कर दोनों ओर से लौकिक एवं आध्यात्मिक मार्ग से वंचित होकर कहीं नष्ट तो नहीं हो जाता, यह जिज्ञासा अर्जुन की है। वह यह भी मानता है कि श्रीकृष्ण जैसे जगद्गुरु से श्रेष्ठ और कोई नहीं है जो उसके इस संदेह का निवारण कर सके।

 कहीं साधक नष्ट तो नहीं हो जाएगा?

पूर्ण श्रद्धा होने पर भी एवं ध्यान के सभी पक्षों- उनके भावों को समझ लेने पर भी कोई भी व्यक्ति मन के उद्धत- अशान्त स्वभाव के कारण नीचे गिर सकता है। ध्यानावस्था को प्राप्त न होकर संभव है वह अधोगति को प्राप्त हो, ऐसी शंका अर्जुन को है। ऐसी स्थिति में (अप्राप्य योग संसिद्धिं) योगसिद्धि को न प्राप्त कर कहीं साधक का सर्वनाश तो नहीं हो जाएगा- अर्जुन इस जिज्ञासा को अपनी गुरुसत्ता के समक्ष रखता है। फिर पुनः ‘‘महाबाहो’’ संबोधन देकर कह उठता है कि ऐसा आश्रयरहित मनुष्य जो भगवत्प्राप्ति के मार्ग पर चला था- मोहित होकर, सूक्ष्म वासनाओं से प्रभावित होकर कहीं छिन्न- भिन्न बादल की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता। मन की व्यग्रताओं के कारण ध्यान के शिखरों से गिरकर जो भी कुछ धीरज के साथ उसने पाया था, उस समुच्चय को वह कहीं खो तो नहीं बैठेगा? ‘‘छिन्ना भ्रमिव’’ कहीं वह पूर्णतः नष्ट तो नहीं हो जाएगा? योग से भ्रष्ट होकर ऐसे साधक का जीवन कहीं बिना कोई सद्परिणाम उत्पन्न किए एक आत्मघाती संघर्ष ही बनकर न रह जाये? और भी अपनी बात को स्पष्ट कर अर्जुन कहता है कहीं वह दोनों ओर से न गिर जाए- ‘‘उभयविभ्रष्टः’’ रेगिस्तान की तरह शुष्क हो जाए। न वह इन्द्रियजगत के सुखों को भोग सके, न ही सिद्धि का आनन्द प्राप्त कर सके। ऐसे में तो उसका जीना एक प्रकार से निरर्थक ही कहा जाएगा। यदि मात्र थोड़ा सा असंयम बरतने पर इतना बड़ा खतरा है तो फिर कौन योग के मार्ग पर चलना चाहेगा। अर्जुन को योग बहुत खतरनाक एवं असंभव सा लगने वाला पथ प्रतीत होने लगा है।

भगवत्ता पर विश्वास रखने वाला शिष्य

एक विनम्र शिष्य की तरह अर्जुन दो श्लोकों में अपनी जिज्ञासा सामने रखकर अपेक्षा रखता है कि उसके गुरु जो जगद्गुरु कहलाते हैं, उसका मार्गदर्शन करेंगे। शुरू से अभी तक श्रीकृष्ण के मुख से उसने जो स्पष्ट अभिव्यक्ति धर्म- योग की सुनी है, उसे देखते हुए उसे उसकी जिज्ञासा का उत्तर देने वाला श्रेष्ठतम शिक्षक एक ही नजर आता है। वह है श्रीकृष्ण। एक साधक की यह गहन आध्यात्मिक जिज्ञासा है। शास्त्र की कोई गुत्थी हो, कोई गहन विषय हो तो शास्त्रों का ज्ञाता एक विद्वान भी समझा सकता है परन्तु योग भ्रष्ट की क्या गति होगी, यह तो योगेश्वर स्तर की -युक्तयोगी सत्ता ही बता सकती है, ऐसा अर्जुन भलीभाँति समझता है। एक योगी उतना ही जानता है जहाँ तक उसने योग का अभ्यास किया है परंतु अर्जुन की दृष्टि में श्रीकृष्ण साक्षात भगवान हैं, बिना अभ्यास- श्रम के सर्वत्र सब कुछ जानने वाले अन्तर्यामी सच्चिदानंद घन परब्रह्म परमात्मा हैं, संपूर्ण प्राणियों की गति- अगति को जानने वाले हैं। इसीलिए वह उनसे अपेक्षा रख रहा है। अर्जुन को भगवत्ता पर विश्वास है इसीलिए वह योगभ्रष्ट की गति संबंधी जिज्ञासा उन्हीं के समक्ष रखता है। इसी विश्वास के कारण अर्जुन ने महाभारत आरम्भ होने से पूर्व एक अक्षौहिणी सशस्त्र नारायणी सेना को छोड़कर निःशस्त्र भगवान को स्वीकार किया एवं उन्हें अपना सारथी बनाया।

अब संसार और योग साधन से च्युत हुए साधक का कहीं पतन तो नहीं हो जाता, इस विषय पर भगवान आगे के चालीसवें श्लोक में अपना मन्तव्य देकर सभी आशंकाओं को निर्मूल कर देते हैं। वे अगले श्लोक में अर्जुन की ‘‘कां गतिं कृष्ण गच्छति’’ का उत्तर देने से पहले अर्जुन की व्याकुलता मिटा देते हैं।

श्री भगवान उवाच-

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥ ६/४०


शब्दार्थ

श्री भगवान ने कहा-
हे पृथानन्दन (पार्थ) उस साधक का (तस्य) न तो (न) इस लोक में (इह) [और] न (न) परलोक में (अमुत्र) ही (एव) विनाश (विनाशः) होता है (विद्यते), क्योंकि (हि) हे प्यारे (तात) कल्याणकारी काम करने वाला (कल्याणकृत) कोई भी मनुष्य (कश्चित) दुर्गति को (दुर्गतिम्) नहीं (न) जाता- प्राप्त होता (गच्छति)

भावार्थ हुआ- ‘‘हे पार्थ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही। क्योंकि हे प्रिय! आत्मोद्धार के लिए कर्म करने वाले अर्थात् कल्याण मार्ग पर चलने वाले पथिक की कभी दुर्गति नहीं होती।’’

एक आशावादी घोषणा

घबराया हुआ अर्जुन सांत्वना पाता है जब वह सुनता है कि योगभ्रष्ट साधक का सर्वथा नाश नहीं होता। चूंकि वह कल्याण मार्ग पर चला है, उसकी दुर्गति नहीं होती। एक आशावादी स्पष्ट घोषणा है श्रीकृष्ण की- ‘‘न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति’’। —कल्याण मार्ग पर चलने वाला एक साधना पथ का पथिक कभी भी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। यह एक प्रकार से ईश्वरीय आदेश है। सदाचारमय जीवन जीकर हम हमारे संपूर्ण भूतकाल को धो सकते हैं एवं भविष्य के लिए नए बीज बो सकते हैं हम घोर पापी से भी पापी क्यों न हों, एक बार दृढ़ निश्चय कर लें तो हमारा जीवन ऊपर उठने लगेगा। यह लोक भी सुधरेगा एवं परलोक में निश्चित ही सद्गति का पथ प्रशस्थ होगा।

रूपान्तरण हमारे हाथ में

आज हम जो भी कुछ हैं, अपने भूतकाल के कारण हैं। जो भी हमने अच्छे बुरे कर्म किए हैं, वे वर्तमान में फलित हो रहे हैं। यह रूपान्तरित भूत है जो हमारे वर्तमान के रूप में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। यदि हमारे साथ हमारी भूत की वासनाओं- कुकर्मों जन्य कुसंस्कारों का समुच्चय भी हो तो हम सदाचार मय जीवन जीकर ध्यानयोग- कर्मयोग द्वारा उसकी दिशा बदल सकते हैं। उसका रूपान्तरण आमूलचूल रूप में कर सकते हैं। हो सकता है कि इस जीवन में परम पद न मिले और मृत्यु को हम प्राप्त हो जायें तो हम भूतकाल का फल पायेंगे। शुभ का बैंक एकाउन्ट निरर्थक नहीं जाएगा। वह हमारे भविष्य का स्वरूप बनाने हेतु काम आएगा।

सच्चे हृदय से जो साधना करता है- उस मनुष्य का कभी पतन नहीं होता न इस जनम में- न मरने के बाद ही। योग में जिस सीढ़ी तक वह पहुँच गया है, उससे नीचे वह नहीं गिरता। अनादिकाल से वह जन्म लेता रहा है, मरता रहा है पर उसका पतन नहीं होता। इसलिये योग मार्ग पर चलने वाले पथिक को कभी रुकना नहीं चाहिए। कभी भटक भी गए हों तो पुनः सदाचार का पथ अपनाकर अपनी रुकी हुई यात्रा को आगे बढ़ाते रहना चाहिए।

भरत का पुनः जन्म पशु योनि में


श्रीमद्भागवत् (स्कन्ध पाँच, सप्तम अष्टम अध्याय) में भरत के संबंध में एक प्रसंग आता है। भरत मुनि भारत वर्ष का राज्य छोड़कर एकान्त में तप कर रहे थे। अकारण ही वहाँ उनकी एक हरिण के बच्चे से आसक्ति हो गयी। इसी वजह से दूसरा जन्म उनका हरिण का हुआ। पर उनकी त्याग, तप, साधना की पूंजी जो जमा थी वह उस जनम में भी नष्ट नहीं हुई। उन्हें उस जन्म में भी पूर्व जन्म की बात याद रही जो कि मनुष्य जन्म में भी सामान्यतः नहीं रहती। अतः वे हरिण योनि में अपनी माँ के साथ न रहकर सूखे पत्ते खाकर वन में रहे। भोग भोगा एवं पुनः जन्म लेकर अंतिम लक्ष्य तक पहुँचे। पूर्व जन्म के स्वभाव- सुसंस्कार नष्ट नहीं होते। इस जन्म के सुसंस्कार भी हमें निश्चित ही इस व भविष्य के जन्म में काम ही आयेंगे। यह उदाहरण हम सबके लिए प्रेरणादायी है।

साधक की दुर्गति नहीं होती सुसंस्कार बने रहते हैं।

              भगवान कहते हैं कि साधक की कभी दुर्गति नहीं होती यदि वह सच्चे हृदय से उस पर चला है। जो मानवी गरिमा के अनुरूप जीवन जी रहा है, सांसारिक भोगों में जिसकी आसक्ति तनिक भी नहीं है, उसकी कभी दुर्गति नहीं होगी। चूंकि उसका ध्येय तत्व स्वयं साक्षात परमात्मा हैं। वे उसका सतत ध्यान रखते हैं। भगवान कहते हैं ‘‘न में भक्तः प्रणश्यति’’—मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता- कभी मेरे लिए अदृश्य नहीं होता। वही आश्वासन यहाँ भगवान अप्रत्यक्ष रूप से दे रहे हैं। जिस व्यक्ति के भीतर एक बार साधना के संस्कार पड़ गए वे बीज रूप में फलित होने लगते हैं, फिर कभी नष्ट नहीं होते। कोई भी भोगवादी संसार के प्रवाह में बह सकता है- कुसंग से किसी असावधानी से परंतु उसकी पूर्व की जो साधना की पूंजी है वह छूटती नहीं- वही उसे पुनः भगवान के पथ पर जाने को प्रेरित करती है। साधक को हर पल सावधान रहना चाहिए कि कहीं यह दुर्घटना उससे घट न जाए। अर्जुन योगभ्रष्ट की गति जानना चाहता है तो वह भगवान अगले श्लोकों में बताते हैं, जिसकी चर्चा हम अगले अंक में करेंगे।

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