बुद्धिग्राह्यमतींद्रियम्
भगवान् सर्वप्रथम २१वें श्लोक
में कहते हैं कि उसी अवस्था को योग कहते हैं, जिस स्थिति में
जाकर योगी परमात्मा के स्वरूप में ही सतत बना रहता है, कभी
विचलित नहीं होता। वहाँ वह इंद्रियों से भी परे जो आनंद है, उसे
सतत अनुभव करता है और उसका एहसास भली भाँति अपने अंदर करता
है। यह अतींद्रिय ज्ञान केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा
ग्रहण करने योग्य है। जब हमारा मन पूरी तरह दम तोड़ दे एवं सतत
चल रही विचारों की शृंखला टूट जाए, तो समझना चाहिए कि अब हम
अतींद्रिय स्थिति में पहुँच गए हैं। यहाँ तल्लीनता का भाव पैदा
होगा, तन्मयता का, तदू्रपता
का, उस परम सत्ता के साथ तादात्म्य का, जो हमारा परम इष्ट है।
यही अनंत आनंद की अनुभूति दिलाने वाला क्षेत्र है। यह आनंद उसी
बुद्धि द्वारा ग्रहण किया जाता है, जो पूर्णतः शुद्ध है। ध्यान के
माध्यम से शुद्ध हो चुकी है (बुद्धिग्राह्यमतींद्रियम्)। इंद्रियातीत स्थिति में पहुँचकर ही इस परमावस्था का अनुभव साधक को होता है।
अलौकिक स्तर का सबसे बड़ा लाभ
आगे २२ वें श्लोक में भगवान् कहते हैं कि ‘‘जिस परमात्मा की प्राप्तिरूपी
लाभ को प्राप्त करके उससे बड़ा लाभ वह योगी मानता नहीं और इस
अवस्था में स्थित होकर वह बड़े- से दुःख से भी विचलित नहीं होता।’’ (यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥)
जीवन- संग्राम में सही ढंग से जीने वाला इसी स्तर का साधक होता
है। लाभ की भाषा हर लौकिक स्तर के व्यक्ति को समझ में आती
है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह इंद्रियजन्य सुखों वाला पुरुषार्थ लौकिक जगत् का है, अतृप्ति देने वाला है, सतत अशांति ही देता है; किंतु जैसे ही मनुष्य ध्यान द्वारा अपना आंतरिक समत्व बढ़ाता है (इनर इक्वीलिब्रियम—अंतर्जगत् का संतुलन),
उसे ऐसी अनुभूति होने लगती है कि उसके व्यक्तित्व के सभी
स्तरों को तृप्ति मिल रही है। यह होता है उस अलौकिक स्तर के
लाभ के कारण, जो उसे परमात्मा में स्थित होने से ध्यान की
परिणति स्वरूप मिलता है। इस लाभ को पाने के बाद फिर शेष सारी
बातें इसके समक्ष गौण हो जाती हैं। फिर वह इंद्रियतुष्टि हेतु बहिरंग में नहीं भटकता।
इसी के साथ आनंद के इस आंतरिक उद्गम का अन्वेषण कर,
आस्वादन कर वह बहिरंग संसार के महानतम दुःखों, व्यक्तिगत जीवन की
आफतों- कष्टों आदि से जरा भी विचलित नहीं होता। अपने अंदर के
आनंद के भण्डार को खोज लेने के बाद वह एक अपार स्तर की
सहनशक्ति विकसित कर लेता है। उस स्थिति में पहुँचकर वह तमाम
सांसारिक दुःखों की अवहेलना कर देता है। उसे लगता है कि ये सब
जो घटनाएँ घट रही हैं उसके भीतर तो हैं, किंतु उसकी हैं नहीं।
सभी उससे बहुत दूर हैं, उसे घबराने की कोई जरूरत नहीं।
हम सभी लोकमान्य तिलक के जीवन की घटना को जानते हैं। वे ‘केसरी’
समाचारपत्र का संपादन कर रहे थे, जिसकी प्रतीक्षा उन दिनों सारा
राष्ट्र करता था। पुत्र के निधन का समाचार उन्हें मिला। तब वे डेस्क पर थे। उस समाचार ने उन्हें तनिक भी विचलित नहीं किया। वे तुरंत गहन ध्यान की स्थिति में गए, प्रारब्धवश हुई इस दुर्घटना का कारण जाना एवं फिर काम में जुट गए। हम सभी इस उच्च अवस्था में नहीं पहुँच सकते;
किंतु प्रयास तो कर सकते हैं कि परमात्मा में स्थित होकर अपने
अंदर के उस स्रोत को पहचानें, जिसे जानने के बाद बड़े- से दुःख
भी विचलित नहीं करता।
दुःख से मिटते हैं प्रारब्ध
जिसे भगवान् मिल गए, वह बड़े- से दुःख भी हँसकर सहन कर
लेता है, उसके हर अवरोध मिट जाते हैं। भगवान् महावीर इस
स्थिति को ‘धर्ममेध समाधि’
कहते हैं। इसमें साधक कैवल्य में एकाग्र हो जाता है। भगवान्
महावीर स्वयं ध्यान की गहराइयों में जा रहे थे, तो उन्हें लगा
कि उनका मन नहीं लग रहा, बार- बार डाँवाडोल हो रहा है। उनने यह
जानने का प्रयास किया कि इसका कारण क्या हो सकता है? उनने पिछले
जन्मों को देखना आरंभ किया। कौन- सा ऐसा पाप है? जो उनकी कैवल्य
समाधि में बाधक बन रहा है। यह देखते- देखते वे पूर्व के जन्मों
में चौथे जन्म में पहुँचे। देखा कि उनका जन्म एक राजा के रूप
में हुआ था और उनका नाम था ‘पृष्ठ वासुदेव’। वे एक ऐश्वर्यशाली राज्य के स्वामी थे। एक दिन मन में आया कि वीणा बजाएँ।
वीणा बजाने लगे, तो देखा कि उनके अधीनस्थ काम करने वाला एक दास
बड़े एकाग्र भाव से वीणा सुन रहा है। सुनते- सुनते उसका ऐसा
ध्यान लग गया है कि वह समाधि की- सी स्थिति में पहुँच गया है।
दास का नाम था शैयापाल।
जो बिस्तरों की देख- रेख करे, वह शैयापाल। राजा को बड़ा क्रोध आया कि वीणा हम स्वांतः सुखाय बजा रहे हैं व हमारा दास आनंद ले रहा है। अहंकारवश क्रोध आया और राजा (महावीर के पूर्व जन्म का रूप) ने पिघला हुआ सीसा शैयापाल
के दोनों कानों में डलवा दिया। समय बीता। राजा की मृत्यु हो
गई, पर यह कर्म गाँठ बन गया। जन्मों की इस शृंखला में परिपाक
होते- होते वह इस स्थिति में पहुँच गया। ध्यान में देखा, तो पाया
कि यही पाप मेरी समाधि में बाधक बन रहा है। उनने संकल्प से
तरंगें भेजीं। हे शैयापाल! तुम कहाँ हो। मेरे पास आओ और मुझे दंड दो; ताकि मैं उऋण हो सकूँ और समाधि को प्राप्त कर सकूँ। महावीर का यह पाँचवाँ जन्म था। उस शैयापाल
का भी। उसके भी इतने ही जन्म हो चुके थे। ध्यान की स्थिति में
जब वे बैठे थे, तो एक किसान बैल लेकर आया और बोला कि हे साधु! तुम आँखें बंद करे बैठे हो, मन तुम्हारा नहीं लग रहा। तुम मेरे बैलों को देखते रहना, मैं अभी आता हूँ।
कैवल्य की प्राप्ति
महावीर समझ गए कि शैयापाल
को संदेश पहुँच गया, वही आया है। बैलों को देखने के स्थान पर
वे पुनः ध्यान में चले गए, बारंबार संदेश देने लगे कि मेरे
संकल्पों से, कर्मों की जो गाँठ बँधी है, वह खुल जाए, ताकि मैं
कैवल्य को प्राप्त कर सकूँ, इसी ध्यान की स्थिति में बैल चरते-
चरते दूर चले गए। कुछ क्षणों बाद वह किसान लौटा। उसने पूछा कि
उसके बैल कहाँ गए? महावीर तो ध्यान में थे, उनने सुना नहीं। उस
किसान ने दो कीलें लीं और महावीर के दोनों कानों में ठूँस दीं।
उसे बड़ा संतोष हुआ, पर महावीर ने सारा कष्ट सह लिया; क्योंकि ऐसा होते ही उनकी कर्मग्रंथियाँ खुल गईं और वे कैवल्य को पहुँच गए। कुछ घंटों बाद गाँव वालों ने आकर कीलें निकालीं और कहा कि यह तुम्हारे साथ किसने किया? महावीर कुछ न बोले, मुस्कुराए, फिर कहा—कर्म- विधान ने सब किया, हित के लिए किया। शैयापाल
ही आया था व अपना प्रतिशोध लेकर चला गया था। इसके साथ भगवान्
महावीर का वह कर्म भी नष्ट हो गया एवं वे समाधि को प्राप्त
हो गए। इस स्तर के साधक गुरुतर से भी गुरुतर कष्ट को सहनकर
अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के बंधनों को काट लेते हैं।
धैर्यपूर्वक कष्ट सहना बहुत बड़ा तप है। ऐसा ही व्यक्ति श्रेष्ठ
योगी बन पाता है।
कोई भी पाठक इस घटना को अतिवादी मान सकता है। दोनों कानों में कीलें ठोंकने
पर भी क्या कोई व्यक्ति समाधिस्थ हो सकता है। हाँ, हो सकता है,
यदि वह महावीर स्तर का हो एवं उसने छठे अध्याय के बाईसवें श्लोक
का मनन गंभीरतापूर्वक किया हो। गंभीर- से स्तर का लौकिक कष्ट भी
परमात्मा में स्थित होने पर हलका प्रतीत होता है एवं इस लाभ
की तुलना में सभी लाभ छोटे लगने लगते हैं। जो परमात्मा को सतत
अपनी हर साँस में अनुभव करता है, वह भौतिक जगत् के बड़े- से
कष्टों को भी धैर्यपूर्वक भोगकर तप मानकर काट लेता है। भगवान् से हम सभी को यही प्रार्थना करनी चाहिए कि ऐसे कष्ट आएँ, तो हमारे प्रारब्ध कटें।
यह समय रोते- रोते न कटे, प्रसन्नतापूर्वक निकल जाए। हम इन कष्ट
के क्षणों को तप मानकर जीवन में आत्मिक प्रगति के पथ पर आगे-
ही बढ़ते जाएँ। हम कभी भी अपना धैर्य न खोएँ।
आज की हमारी त्रासदी
आज सारा समाज एक अंधी दौड़ में भागा चला जा रहा है।
किसी भी व्यक्ति को यह नहीं मालूम कि उसके लिए सच्चा लाभ देने
वाला सौदा क्या है? भौतिक सुखों की प्राप्ति, ऐशो आराम, इंद्रियजन्य
भोग, इन्हीं में उलझकर अच्छे- अच्छे प्रतिभावान अपने जीवन के मूल
लक्ष्य को भूल जाते हैं। सारी व्याधियाँ हमारी कभी समाप्त न
होने वाली ‘ग्रीड’—हमारे लालच से पनपी हैं। हम प्रसन्न रहना चाहते ही नहीं। परमपूज्य गुरुदेव से प्रसन्न रहने के दो ही उपाय बताए हैं—एक
अपनी परिस्थितियों से हम तालमेल बिठा लें। दूसरा अपनी आवश्यकताएँ
कम करें। हमारी आवश्यकताएँ नित्य बढ़ती चली जाती हैं। हम नहीं
जानते कि हमें उतना भर चाहिए, जिससे यह जीवन संतोषपूर्वक कट सके।
हम तो अपने बाद की कई पुश्तों के लिए जमाकर रखके
जाना चाहते हैं। हम जानते हैं कि हमारे साथ कुछ भी नहीं जाना।
हमारा छोड़ा धन किसी और के पुरुषार्थ का न होने के कारण हमारे
पुत्र- पुत्रियों के लिए अपयश का ही कारण बनेगा, दुर्व्यसनों का
ही स्रोत बनेगा। फिर भी सतत असुरक्षा में जीते हैं, दुःख भोगते
हैं, थोड़ा- सा नुकसान भी हमें कष्ट दे देता है। आखिर यह नासमझी
क्यों? वह भी समझदारों द्वारा। गीता एक संदेश यहाँ देती है हमें
इस बाईसवें श्लोक
द्वारा। हम सबसे बड़ा लाभ इस अपने जीवन का वही मानें, जिसमें
हमें परमात्मा की अनुकंपा मिल जाए, उनकी शरणागति हम आ जाएँ, उनमें
आदर्शों व सत्प्रवृत्तियों के समुच्चय में हम स्थित हो जाएँ।
यदि ऐसा हो गया तो हमें संसार का सबसे बड़ा लाभ मिल गया। वह है—अनिर्वचनीय शांति, संतोष, सतत उल्लास, रचनात्मकता एवं विधेयात्मकता। उस परमात्म सत्ता की अनुभूति, हर साँस में, हर पल सतत। ऐसी स्थिति में बड़े- से दुःख (हमारे प्रियजनों का हमसे बिछुड़ना
—अशोच्यानन्वशोचस्त्वं.........२/११ गीता),
धन की हानि, गंभीरतम व्याधि, घनघोर अभाव जैसी स्थितियाँ भी आ
जाएँ, तो हम कभी असंतुलित नहीं होंगे। परमात्मा उस स्थिति से हमें
निकाल लेंगे; क्योंकि हम उस उच्च अवस्था में स्थित हैं, जहाँ वह हमारे साथ है—हमारा पायलट है, हमारा बॉडीगार्ड
है, सतत हमें संरक्षण दे रहा है। भगवान् तो सतत हमारी परीक्षा
लेता रहता है। हम उन कष्टों- विपत्तियों को विधि का न टलने वाला
विधान मानकर रो- रोकर भोगते हैं, जबकि वे तप करने के क्षण होते
हैं। क्या ही सुंदर हो, जो हमारा नजरिया बदल जाए!
हमारी माँ—शुभेच्छु हैं गीता जी
गीता जी हमारी माँ हैं। हमें पग- पग पर मार्गदर्शन करने वाली हमारी शुभेच्छु
निकटस्थ संबंधी हैं। यदि हम इन संकेतों को समझ लें, तो मायाजाल
के भवसागर से पार हो जाना संभव है। हम फिर सच्चे लाभ वाला
आध्यात्मिकता का सौदा करेंगे। छलावे में भी नहीं पड़ेंगे। मात्र
हमारे अहं की तुष्टि रखने वाले धार्मिक दिखावों में नहीं उलझेंगे, हम फिर अध्यात्म की धुरी पर जीवन की नाव खेने का प्रयास करेंगे। माँ गोद में लेती है, दुग्धामृत पिलाती है एवं हमारे परिपक्व होने तक हमारी हर गतिविधि पर निगाह रखती है। ‘एक आँख सुधार की, एक दुलार की’ रखती है। गीता माता भी (विनोबा इसे गीताई,
मराठी में माँ कहते थे) ऐसी ही हैं। वे भी हमें गोदी में
बिठाकर हमें जीवन जीना सिखा रही हैं। अभी हम पके कहाँ? छोटे- छोटे
उतार- चढ़ावों
में तो आपा खो बैठते हैं। अपनों से ही लड़ बैठते हैं, एक इंच
जमीन के लिए खून- खराबे पर उतर आते हैं एवं थोड़ा भी दुःख का,
कष्ट का सामना नहीं करना जानते। हमारे अपने कर्मों की ही परिणति
है हमारा भाग्य—हमारा
आने वाला कल। हम दुनिया भर को दोष देते हैं, पर कभी स्वयं को
नहीं कोसते। हमारा अपना मन ही हमारा मित्र है, हमारा शत्रु है।
(इसी छठे अध्याय का पाँचवाँ श्लोक ,
पर हम यह जानते हुए भी अपने शत्रु मन की बात सुनते हैं, मित्र
मन की नहीं। जीवन जीने की कला का मार्गदर्शन देती है गीता।
कष्टों से कैसे निपटें?
प्रतिकूलताओं से मोरचा कैसे लें? अवरोध क्यों आते हैं व उनसे
कैसे निपटा जाए, यह सच्चा मार्गदर्शन- सच्चा लाभ प्राप्त करने का
उपाय श्री गीता जी हमें जताती हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण की
अमृतवाणी हमें पग- पग पर चलना सिखाती है।
न उकताएँ, न अधीर हों
श्री भगवान् आगे तेईसवें श्लोक
में कहते हैं कि ऐसी अवस्था (जिसमें भारी- से दुःख से भी हम
विचलित नहीं होते) ही सच्चा योग है और यह योग उसी के द्वारा सध
पाता है, जो उकताता
नहीं, अधीर नहीं होता तथा सदैव विधेयात्मक चिंतन के साथ,
उत्साहयुक्त चित्त के साथ, मनोयोगपूर्वक अपने कार्य में लगा रहता
है। वे कहते हैं ‘योगं योक्तत्वः’ योग धैर्यपूर्वक योगयुक्त होकर दैनंदिन
जीवन में संपादित किया जाना चाहिए। कठिनाइयों या असफलताओं के
कारण जो उत्साहहीनता आ सकती है, उसके अधीन हुए बिना इस योग को
तब तक किए जाना चाहिए, जब तक मुक्ति न मिले, ब्रह्म- निर्वाण का
आनंद हमेशा के लिए मिल न जाए।
निराशा की तरंगों से जरा भी क्षुब्ध हुए बिना ध्यान किया जाना चाहिए, अपने दैनंदिन जीवन के कर्म संपादित किए जाते रहना चाहिए। इस श्लोक में (तंविद्याद् दुःख संयोगवियोगं योगसंज्ञितम्। सनिश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेत
सा) जो एक विशेष बात है, वह है ध्यानयोग की विशिष्ट रूप से
व्याख्या, दुःख के संयोग के वियोग की अवस्था के रूप में
व्याख्या। मानव का स्वभाव अभाव, अज्ञान एवं अशक्ति के कारण सदैव
दुखी बने रहने का है। हम स्वयं को शरीर, मन, बुद्धि की उपाधियों
द्वारा बहिरंग में जताने की कोशिश करते रहते हैं। इसी कारण हम
दुखी बने रहते हैं। सांसारिक विषयप्रधान
सुख तो क्षणिक हैं, थोड़ी देर के लिए हैं व उनका अंत दुःख में
ही होना है। जब तक हम इन भौतिक चीजों से अलिप्त होकर अंतरंग
में प्रवेश नहीं करेंगे, योगस्थ
नहीं हो पाएँगे, सदैव मन कष्टमय बना रहेगा, साधनों की बहुलता के
बीच भी। ज्यों ही हमने अपने आप को इन तीनों से अलग किया,
हमारे दुःखों का भी अंत हो गया, यह मानना चाहिए। सुख- दुःख हमारी
मनःस्थिति की ही भिन्न- भिन्न स्थितियाँ हैं। योग हमें मन को
ढालना सिखाता है; ताकि हम शरीर, मन, बुद्धि के माध्यम से अभिव्यक्त होने वाली चेतना से पृथक् हो सकें। योगाभ्यास (योगसेवा) या जीवन को योगमय बनाने की प्रक्रिया वस्तुतः दुःखों से मुक्ति का राजमार्ग हमें दिखाती है, हमें आनंदमय संतोषमय जीवन जीना सिखाती है।
सहोऽसि सहो मयि देहि
दुःख के संयोगरूपी
योग को समझाते हुए भगवान् कहते हैं कि चाहे कितना ही निराशा
का भाव आए, कितनी ही प्रतीक्षा करनी पड़े, हमें अधीर नहीं होना
चाहिए। अध्यात्म जगत् में फल की प्रतीक्षा करते हुए धैर्य रखना
पड़ता है। यह भी एक प्रकार का तप है। जहाँ हमारे ऋषिगण ‘मन्यु’ अनीति के प्रति आक्रोश, प्रखर संघर्ष की भावना की प्रार्थना करते हैं, वहाँ वे यह भी अगली ही ऋचा में कह जाते हैं—‘सहोऽसि सहो मयि देहि’ हे प्रभु! मुझे अनंत सीमा तक धीरज रखने की क्षमता दो, मुझे सहनशक्ति दो।
आज के मनुष्य के पास इसी का अभाव है। तनाव जो आज की ‘जीवन शैली में डिसआर्डर’
के रूप में सामने आ रहा है, का सबसे बड़ा कारण एवं लक्षण भी
है अधीरता। थोड़े से पुरुषार्थ से कम समय में अनंत पाने की
कामना। प्रभु में विश्वास, उनके न्याय एवं अपने अध्यवसाय में अनंत
सीमा तक आस्था हमें सफलता के चरम लक्ष्य तक पहुँचाकर ही रहती
है। सफल वही होता है, जो धीर- गंभीर हो, साहस का धनी हो, सदैव
प्रसन्न रहता हो। चूँकि वह परमात्मा में स्थित है, उसे उस आनंद
की अवस्था में दुःखों में भी विचलित न होने, धैर्य बनाए रखने की
शक्ति उस शक्ति के अनंत स्रोत से मिलती रहती है। यही सबसे बड़ी
निधि है। किसी भी योग में प्रवृत्त हुए दिव्यकर्मी को इसी स्थिति में पहुँचने की अभीप्सा रखनी चाहिए; क्योंकि योग की परमावस्था तक ले जाने हेतु यही सच्चा राजमार्ग है।