हमारी वसीयत और विरासत

इन दिनों हम यह करने में जुट रहे है

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हमारी जिज्ञासाओं एवं उत्सुकताओं का समाधान गुरुदेव प्रायः हमारे अंतराल में बैठकर ही किया करते हैं। उनकी आत्मा हमें अपने समीप ही दृष्टिगोचर होती रहती है। आर्षग्रंथों के अनुवाद से लेकर प्रज्ञा पुराण की संरचना तक जिस प्रकार लेखन प्रयोजन में उनका मार्गदर्शन अध्यापक और विद्यार्थी जैसा रहा है, हमारी वाणी भी उन्हीं की सिखावन को दुहराती रही है। घोड़ा जिस प्रकार सवार के संकेतों पर दिशा और चाल बदलता रहता है, वही प्रक्रिया हमारे साथ भी कार्यान्वित होती रही है।

बैटरी चार्ज करने के लिए जब हिमालय बुलाते हैं, तब भी वे कुछ विशेष कहते नहीं। सेनीटोरियम में जिस प्रकार किसी दुर्बल का स्वास्थ्य सुधर जाता है, वही उपलब्धियाँ हमें हिमालय जाने पर हस्तगत होती हैं। वार्तालाप का प्रयोग अनेक प्रसंगों में होता रहता है।

इस बार सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया और साधना विधि तो ठीक तरह समझ में आ गई और जिस प्रकार कुन्ती ने अपने शरीर में से देव संतानें जन्मीं थीं, ठीक उसी प्रकार अपनी काया में विद्यमान पाँच कोशों, अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोषों को पाँच वीरभद्रों के रूप में विकसित करना पड़ेगा, इसकी साधना विधि भी समझ में आ गई। जब तक वे पाँचों पूर्ण समर्थ न हो जाएँ तब तक वर्तमान स्थूल शरीर को उनके घोंसले की तरह बनाए रहने का भी आदेश है और अपनी दृश्य स्थूल जिम्मेदारियाँ दूसरों को हस्तांतरित करने की दृष्टि से अभी शान्तिकुञ्ज ही रहने का निर्देश है।

यह सब स्पष्ट हो गया। सावित्री साधना का विधान भी उनका निर्देश मिलते ही इस निमित्त आरम्भ कर दिया।

अब प्रश्न यह रहा है कि पाँच वीरभद्रों को काम क्या सौंपना पड़ेगा और किस प्रकार वे क्या करेंगे? उसका उत्तर भी अधिक जिज्ञासा रहने के कारण अब मिल गया। इससे निश्चिंतता भी हुई और प्रसन्नता भी।

संसार में आज भी ऐसी कितनी ही प्रतिभाएँ हैं, जो दिशा पलट जाने पर अभी जो कर रही हैं, उसकी तुलना में अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य करने लगेंगी। उलटे को उलट कर सीधा करने के लिए जिस प्रचण्ड शक्ति की आवश्यकता होती है उसी को हमारे अंग-अंग वीरभद्र करने लगेंगे। प्रतिभाओं की सोचने की यदि दिशा बदली जा सके तो उनका परिवर्तन चमत्कारी जैसा हो सकता है।

नारद ने पार्वती, ध्रुव, प्रह्लाद, वाल्मीकि, सावित्री आदि की जीवन दिशा बदली, तो वे जिन परिस्थितियों में रह रहे थे। उसे लात मारकर दूसरी दिशा में चल पड़े और संसार के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण बन गए। भगवान् बुद्ध ने आनन्द, कुमार जीव, अंगुलिमाल, अंबपाली, अशोक, हर्षवर्धन, संघमित्रा आदि का मन बदल दिया तो वे जो कुछ कर रहे थे, उसके ठीक उलटा करने लगे और विश्व विख्यात हो गए। विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र को एक मामूली राजा नहीं रहने दिया वरन् इतना वरेण्य बना दिया कि उनकी लीला अभिनय देखने मात्र से गाँधी जी विश्ववंद्य हो गए। महाकृपण भामाशाह को संत विठोबा ने अंतःप्रेरणा दी और उनका सारा धन महाराणा प्रताप के लिए उगलवा दिया। आद्य शंकराचार्य की प्रेरणा से मान्धाता ने चारों धामों के मठ बना दिए।

अहिल्या बाई को एक संत ने प्रेरणा देकर कितने ही मंदिरों घाटों का जीर्णोद्धार करा लिया और दुर्गम स्थानों पर नए देवालय बनाने के संकल्प को पूर्ण कर दिखाने के लिए सहमत कर लिया। समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी को वह काम करने की अंतःप्रेरणा दी जिसे वे अपनी इच्छा से कदाचित ही कर पाते। रामकृष्ण परमहंस ही थे, जिन्होंने नरेन्द्र के पीछे पड़कर उसे विवेकानन्द बना दिया। राजा गोपीचंद का मन वैराग्य में लगा देने का श्रेय संत भर्तृहरि को था।

ऐसे उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है, जिसमें कितनी ही प्रतिभाओं को किन्हीं मनस्वी आत्म वेत्ताओं ने बदलकर कुछ से कुछ बना दिया। उनकी अनुकम्पा न हुई होती तो वे जीवन भर अपने उसी पुराने ढर्रे पर लुढ़कते रहते जिस पर कि उनका परिवार चल रहा था।

हमारी अपनी बात भी ठीक ऐसी ही है। यदि गुरुदेव ने उलट न दिया होता तो हम अपने पारिवारिक जनों की तरह पौरोहित्य का धंधा कर रहे होते या किसी और काम में लगे होते। उस स्थान पर पहुँच ही न पाते, जिस पर कि हम अब पहुँच गए हैं।

इन दिनों युग परिवर्तन के लिए कई प्रकार की प्रतिभाएँ चाहिए। विद्वानों की आवश्यकता है, जो लोगों को अपने तर्क प्रमाणों की नई पद्धति प्रदान कर सकें। कलाकारों की आवश्यकता है, जो चैतन्य महाप्रभु, मीरा, सूर, कबीर की भावनाओं को इस प्रकार लहरा सकें, जैसे सँपेरा साँप को लहराता रहता है। धनवानों की जरूरत है, जो अपने पैसे को विलास में खर्च करने की अपेक्षा सम्राट अशोक की तरह अपना सर्वस्व समय की आवश्यकता पूरी करने के लिए लुटा सकें।

राजनीतिज्ञों की जरूरत है जो गाँधी, रूसो और कार्लमार्क्स, लेनिन की तरह अपने सम्पर्क से प्रजाजनों को ऐसे मार्ग पर चला सकें, जिसकी पहले कभी भी आशा नहीं की गई थी।

भावनाशील का क्या कहना? संत सज्जनों ने न जाने कितनों को अपने सम्पर्क से लोहे जैसे लोगों को पारस की भूमिका निभाते हुए कुछ से कुछ बना दिया।
हमारे वीरभद्र अब यही करेंगे। हमने भी यही किया है। लाखों लोगों की विचारणा और क्रिया पद्धति में आमूल-चूल परिवर्तन किया है और उन्हें गाँधी के सत्याग्रहियों की तरह, विनोबा के भूदानियों की तरह, बुद्ध के परिव्राजकों की तरह अपना सर्वस्व लुटा देने के लिए तैयार कर दिया। प्रज्ञा पुत्रों की इतनी बड़ी सेना हनुमान के अनुयायी वानरों की भूमिका निभाती है। इस छोटे से जीवन में अपनी प्रत्यक्ष क्रियाओं के द्वारा जहाँ भी रहे वहीं चमत्कार खड़े कर दिए तो कोई कारण नहीं कि हमारी ही आत्मा के टुकड़े जिसके पीछे लगें, उसे भूत−पलीत की तरह तोड़-मरोड़ कर न रख दें।

अगले दिनों अनेक दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन की आवश्यकता पड़ेगी। उसके लिए ऐसे गाण्डीव धारियों की, जो अर्जुन की तरह कौरवों की अक्षौहिणी सेनाओं को धराशायी कर दें, आवश्यकता पड़ेगी। ऐसे हनुमानों की जरूरत होगी, जो एक लाख पूत-सवा लाख नाती वाली लंका को पूँछ से जलाकर खाक कर दें। ऐसे परिवर्तन अंतराल बदलने भर से हो सकते हैं। अमेरिका के अब्राहम लिंकन और जार्ज वाशिंगटन बहुत गई गुजरी हैसियत के परिवारों में जन्मे थे, पर वे अपने जीवन प्रवाह को पलट कर अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए।

प्रतिभाहीनों की बात जाने दीजिए, वे तो अपनी क्षमता और बुद्धिमत्ता को चोरी, डकैती, ठगी जैसे नीच कर्मों में लगा सकते हैं, पर जिनमें भावना भरी हो, वे अपने साधारण पराक्रम से समय को उलटकर कहीं से कहीं ले जा सकते हैं। स्वामी दयानंद, श्रद्धानन्द रामतीर्थ जैसों के कितने ही उदाहरण सामने हैं जिनकी दिशाधारा बदली तो वे असंख्यों को बदलने में समर्थ हो गए।

इन दिनों प्रतिभाएँ विलासिता में, संग्रह में, अहंकार की पूर्ति में निरत हैं। इसी निमित्त वे अपनी क्षमता और सम्पन्नता को नष्ट करती रहती हैं। यदि इनमें से थोड़ी सी भी ढर्रा बदल दें, तो वे गीता प्रेस वाले जय दयाल गोयंदका की तरह ऐसे साधन खड़े कर सकती हैं, जिन्हें अद्भुत और अनुपम कहा जा सके।

कौन प्रतिभा किस प्रकार बदली जानी है और उससे क्या काम लिया जाना है, यही निर्धारण उच्च भूमिका से होता रहेगा। अभी जो लोग विश्व युद्ध छेड़ने और संसार को तहस-नहस कर देने की बात सोचते हैं, उनके दिमाग बदलेंगे तो विनाश प्रयोजनों मे लगने वाली बुद्धि, शक्ति और सम्पदा को विकास प्रयोजनों की दिशा में मोड़ देंगे। इतने भर से परिस्थितियाँ बदलकर कहीं से कहीं चली जाएँगी। प्रवृत्तियाँ एवं दिशाएँ बदल जाने से मनुष्य के कर्तृत्व कुछ से कुछ हो जाते हैं और जो श्रेय मार्ग पर कदम बढ़ाते हैं, उनके पीछे भगवान् की शक्ति सहायता के लिए निश्चित रूप से विद्यमान रहती है। बाबा साहब आम्टे की तरह वे अपंगों का विश्व विद्यालय, कुष्ठ औषधालय बना सकते हैं। हीरालाल शास्त्री की तरह वनस्थली बालिका विद्यालय खड़े कर सकते हैं। लक्ष्मीबाई की तरह कन्या गुरुकुल खड़े कर सकते हैं।

मानवी बुद्धि की भ्रष्टता ने उसकी गतिविधियों को भ्रष्ट, पापी, अपराधी स्तर का बना दिया है। जो कमाते हैं, वह हाथों-हाथ अवांछनीय कार्यों में नष्ट हो जाता है। सिर पर बदनामी और पाप का टोकरा ही फूटता है। इस समुदाय के विचारों को कोई पलट सके, रीति-नीति और दिशाधारा को बदल सके, तो यही लोग इतने महान् बन सकते हैं, ऐसे महान् कार्य कर सकते हैं कि उनका अनुकरण करते हुए लाखों धन्य हो सकें और जमाना बदलता हुआ देख सकें।

इन दिनों हमारी जो सावित्री साधना चल रही है, उसके माध्यम से जो अदृश्य महाबली उत्पन्न किए जा रहे हैं, वे चुपके-चुपके असंख्य अंतःकरणों में घुसेंगे, उनकी अनीति को छुड़ाकर मानेंगे और ऐसे मणि-माणिक्य छोड़कर आएँगे, जिससे वे स्वयं धन्य बन सकें और ‘‘युग परिवर्तन’’ जो अभी कठिन दीखता है, कल सरल बना सकें।

मनुष्य अपनी अंतःशक्ति के सहारे प्रसुप्त के प्रकटीकरण द्वारा ऊँचा उठता है, यह जितना सही है, उतना ही यह भी मिथ्या नहीं कि तप-तितिक्षा से प्रखर बनाया गया वातावरण, शिक्षा, सान्निध्य-सत्संग, परामर्श-अनुकरण भी अपनी उतनी सशक्त भूमिका निभाता है। देखा जाता है कि किसी समुदाय में नितांत साधारण श्रेणी के सीमित सामर्थ्य सम्पन्न व्यक्ति एक प्रचण्ड प्रवाह के सहारे असम्भव पुरुषार्थ भी सम्भव कर दिखाते हैं। प्राचीन काल में मनीषी-मुनिगण यही भूमिका निभाते थे। वे युग साधना में निरत रहे। लेखनी-वाणी के सशक्त तंत्र के माध्यम से जन-मानस के चिंतन को उभारते थे। ऐसी साधना अनेक उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों को जन्म देती थी, उनकी प्रसुप्त सामर्थ्य को उजागर कर उन्हें सही दिशा देकर समाज में वाँछित परिवर्तन लाती थी। शरीर की दृष्टि से सामान्य दृष्टिगोचर होने वाले व्यक्ति भी प्रतिभा-कुशल, चिंतन की श्रेष्ठता से अभिपूरित देखे जाते थे।

सर्वविदित है कि मुनि एवं ऋषि ये दो श्रेणियाँ अध्यात्म क्षेत्र की प्रतिभाओं में गिनी जाती रही हैं। ऋषि वह जो तपश्चर्या द्वारा काया का चेतनात्मक अनुसंधान कर उन निष्कर्षों से जन-समुदाय को लाभ पहुँचाए तथा मुनिगण वे कहलाते हैं, जो चिंतन-मनन स्वाध्याय द्वारा जन-मानस के परिष्कार की अहम् भूमिका निभाते हैं। एक पवित्रता का प्रतीक है, तो दूसरा प्रखरता का। दोनों को ही तप साधना में निरत हो सूक्ष्मतम बनना पड़ता है ताकि अपना स्वरूप और विराट् व्यापक बनाकर स्वयं को आत्मबल सम्पन्न कर वे युग चिंतन के प्रवाह को मरोड़-बदल सकें। मुनि जहाँ प्रत्यक्ष साधनों का प्रयोग करने की स्वतंत्रता रखते हैं, वहाँ ऋषियों के लिए यह अनिवार्य नहीं। वे अपने सूक्ष्म रूप में भी वातावरण को आंदोलित करके, सुसंस्कारित बनाए रख सकते हैं।

लोक व्यवहार में मनीषी शब्द का प्रायः अर्थ उस महाप्राज्ञ से लिया जाता है जिसका मन उसके वश में हो।  जो मन से नहीं संचालित होता, अपितु अपने विचारों द्वारा मन को चलाता है, उसे मनीषी एवं ऐसी प्रज्ञा को मनीषा कहा जाता है। शास्त्रकार का कथन है-‘‘मनीषा अस्ति येषां ते मनीषा नः’’ लेकिन साथ ही यह भी कहा है-मनीषी नस्तु भवन्ति, पानानि न भवन्ति, अर्थात्-मनीषी तो कई होते हैं, बड़े-बड़े बुद्धिमान होना अलग बात है एवं पवित्र शुद्ध अंतःकरण रखते हुए सही है। आज सम्पादक, बुद्धिजीवी, लेखक, अन्वेषक, प्रतिभाशाली वैज्ञानिक तो अनेकानेक हैं, देश-देशांतरों में फैले पड़े हैं, लेकिन वे मनीषी नहीं हैं। क्यों? क्योंकि तपःशक्ति द्वारा अंतःशोधन द्वारा उन्होंने पवित्रता नहीं अर्जित की।

साहित्य की आज कहीं कमी है? जितनी पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं, जितना साहित्य नित्य विश्व भर में छपता है, उस पहाड़ के समान सामग्री को देखते हुए लगता है, वास्तव में मनीषी बढ़े हैं, पढ़ने वाले भी बढ़े हैं। लेकिन इस सबका प्रभाव क्यों नहीं पड़ता? क्यों एक लेखक की कलम कुत्सा भड़काने में ही निरत रहती है एवं उस साहित्य को पढ़कर तुष्टि पाने वालों की संख्या बढ़ती है, इसके कारण ढूँढ़े जाएँ, तो वहीं आना होगा, जहाँ कहा गया था ‘‘पानानि न भविन्त’’। यदि इतनी मात्रा में उच्चस्तरीय, चिंतन को उत्कृष्ट बनाने वाला साहित्य रचा गया होता एवं उसकी भूख बढ़ाने का माद्दा जन-समुदाय के मन में पैदा किया गया होता, तो क्या वे विकृतियाँ नजर आतीं, जो आज समाज में विद्यमान हैं। दैनन्दिन जीवन की समस्याओं का समाधान यदि सम्भव है तो वह युग मनीषा के हाथों ही होगा।

जैसा कि हम पूर्व में भी कह चुके हैं कि नवयुग आएगा तो विचार शोधन द्वारा ही, क्रांति होगी तो वह लहू और लोहे से नहीं विचारों की विचारों से काट द्वारा होगी, समाज का नव-निर्माण होगा तो वह सद्विचारों की प्रतिष्ठापना द्वारा ही सम्भव होगा। अभी तक जितनी मलिनता समाज में प्रविष्ट हुई है, वह बुद्धिमानों के माध्यम से ही हुई है। द्वेष-कलह, नस्लवाद, व्यापक नरसंहार जैसे कार्यों में बुद्धिमानों ने ही अग्रणी भूमिका निभाई है। यदि वे सन्मार्गगामी होते, उनके अंतःकरण पवित्र होते, तप ऊर्जा का संबल उन्हें मिला होता, तो उन्होंने विधेयात्मक विचार प्रवाह को जन्म दिया होता, सत्साहित्य रचा होता, ऐसे आन्दोलन चलाए होते। हिटलर ने जब नीत्से के सुपर मैन रूपी अधिनायक को अपने में साकार करने की इच्छा की तो सर्वप्रथम सारे राष्ट्र के विचार प्रवाह को उस दिशा में मोड़ा। अध्यापक-वैज्ञानिक वर्ग नाजीवाद का कट्टर समर्थक बना तो उसकी उस निषेधात्मक विचार साधना द्वारा जो उसने ‘‘मेन कैंफ’’ के रूप में आरोपित की। बाद में सारे राष्ट्र के पाठ्यक्रम एवं अखबारों की धारा का रुख उसने उस दिशा में मोड़ दिया जैसा कि वह चाहता था। जर्मन राष्ट्र नस्लवाद के अहं में सर्वश्रेष्ठ जाति का प्रतीक होने के गर्वोन्माद में उन्मत्त हो व्यापक नर संहार कर स्वयं ध्वस्त हो गया। यह भी मनीषा के एक मोड़ की परिणति है, ऐसे मोड़ की जो सही दिशा में होता तो ऐसे समर्थ सम्पन्न राष्ट्र को कहाँ से कहाँ ले जाता।

कार्लमार्क्स ने सारे अभावों में जीवन जीते हुए अर्थशास्त्र रूपी ऐसे दर्शन को जन्म दिया जिसने समाज में क्रांति ला दी। पूँजीवादी किले ढहते चले गए एवं साम्राज्यवाद दो तिहाई धरती से समाप्त हो गया। ‘‘दास कैपीटल’’ रूपी इस रचना ने एक नवयुग का शुभारम्भ किया जिसमें श्रमिकों को अपने अधिकार मिले एवं पूँजी के समान वितरण का यह अध्याय खुला जिसमें करोड़ों व्यक्तियों को सुख-चैन की, स्वावलंबन प्रधान जिंदगी जी सकने की स्वतंत्रता मिली। रूसो ने जिस प्रजातंत्र की नींव डाली थी, उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद के पक्षधर शोषकों की रीति-नीति ही उसकी प्रेरणा स्त्रोत होगी। मताधिकार की स्वतंत्रता बहुमत के आधार पर प्रतिनिधित्व का दर्शन विकसित न हुआ होता, यदि रूसो की विचारधारा ने व्यापक प्रभाव जनसमुदाय पर न डाला होता तो। जिसकी लाठी उसकी भैंस, की नीति ही सब जगह चलती, कोई विरोध तक न कर पाता। जागीरदारों एवं उत्तराधिकार के आधार पर राजा बनने वाले अनगढ़ों का ही वर्चस्व होता है। इसे एक प्रकार की मनीषा प्रेरित क्रांति कहना चाहिए कि देखते-देखते उपनिवेश समाप्त हो गए, शोषक वर्ग का सफाया हो गया। इसी संदर्भ में हम कितनी ही बार लिंकन एवं लूथर किंग के साथ-साथ उस महिला हैरियट स्टो का उल्लेख करते रहे हैं, जिसकी कलम ने कालों को गुलामी के चंगुल से मुक्त कराया। प्रत्यक्षतः यह युग मनीषा की भूमिका है।

बुद्ध की विवेक एवं नीतिमत्ता पर आधारित विचार क्रांति एवं गाँधी पटेल, नेहरू द्वारा पैदा की गई स्वातन्त्र्य आंदोलन की आँधी उस परोक्ष मनीषा की प्रतीक है, जिसने अपने समय में ऐसा प्रचण्ड प्रवाह उत्पन्न किया कि युग बदलता चला गया। उन्होंने कोई विचारोत्तेजक साहित्य रचा हो, यह भी नहीं। फिर यह सब कैसे सम्भव हुआ। यह तभी हो पाया जब उन्होंने मुनि स्तर की भूमिका निभाई, स्वयं को तपाया विचारों में शक्ति पैदा की एवं उससे वातावरण को प्रभावित किया।

परिस्थितियाँ आज भी विषम हैं। वैभव और विनाश के झूले में झूल रही मानव जाति को उबारने के लिए आस्थाओं के मर्मस्थल तक पहुँचना होगा और मानवी गरिमा को उभारने, दूरदर्शी विवेकशीलता को जगाने वाला प्रचण्ड पुरुषार्थ करना होगा। साधन इस कार्य में कोई योगदान दे सकते हैं, यह सोचना भ्रांतिपूर्ण है। दुर्बल आस्था अंतराल को तत्त्वदर्शन और साधना प्रयोग के उर्वरक की आवश्यकता है। आध्यात्म वेत्ता इस मरुस्थल की देख−भाल करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते व समय-समय पर संव्याप्त भ्रांतियों से मानवता को उबारते हैं। अध्यात्म की शक्ति विज्ञान से भी बड़ी हैं। अध्यात्म ही व्यक्ति के अंतराल में विकृतियों के माहौल से लड़ सकने-निरस्त कर पाने वाले सक्षम तत्त्वों की प्रतिष्ठापना कर पाता है। हमने व्यक्तित्वों में पवित्रता व प्रखरता का समावेश करने के लिए मनीषा को ही अपना माध्यम बनाया एवं उज्ज्वल भविष्य का सपना देखा है।

हमने अपने भावी जीवनक्रम के लिए जो महत्त्वपूर्ण निर्धारण किए हैं, उनमें सर्वोपरि है लोक चिंतन को सही दिशा देने हेतु एक ऐसा विचार प्रवाह खड़ा करना जो किसी भी स्थिति में अवांछनीयताओं को टिकने ही न दे। आज जन समुदाय के मन-मस्तिष्क में जो दुर्गति घुस पड़ी है, उसी की परिणति ऐसी परिस्थितियों के रूप में नजर आती है, जिन्हें जटिल, भयावह समझा जा रहा है। ऐसे वातावरण को बदलने के लिए व्यास की तरह, बुद्ध, गाँधी, कार्लमार्क्स की तरह, मार्टिन लूथर किंग, अरविन्द, महर्षि रमण की तरह भूमिका निभाने वाले मुनि व ऋषि के युग्म की आवश्यकता है, जो प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रयासों द्वारा विचार क्रांति का प्रयोजन पूरा कर सके, यह पुरुषार्थ अंतःक्षेत्र की प्रचण्ड तप साधना द्वारा ही सम्भव हो सकता है। इसका प्रत्यक्ष रूप युग मनीषा का हो सकता है, जो अपनी शक्ति द्वारा उत्कृष्ट स्तर का साहित्य रच सके जिसे युगांतरकारी कहा जा सकता है। अखण्ड-ज्योति के माध्यम से जो संकल्प हमने आज से सैंतालीस वर्ष पूर्व लिया था उसे अनवरत निभाते रहने का हमारा नैतिक दायित्व है।

युग ऋषि की भूमिका अपने परोक्ष रूप में निभाते हुए उन अनुसंधानों की पृष्ठभूमि बनाने का हमारा मन था जो वैज्ञानिक अध्यात्म का प्रत्यक्ष रूप इस तर्क, तथ्य, प्रमाणों को आधार मानने वाले समुदाय के समक्ष रख सकें। आज चल रहे वैज्ञानिक अनुसंधान यदि उनसे कुछ दिशा लेकर सही मार्ग पर चल सके तो हमारा प्रयास सफल माना जाएगा। आत्मानुसन्धान के लिए अन्वेषण कार्य किस प्रकार चलना चाहिए, साधना-उपासना का वैज्ञानिक आधार क्या है? मनःशक्तियों के विकास में साधना उपचार किस प्रकार सहायक सिद्ध होते? ऋषिकालीन आयुर्विज्ञान का पुनर्जीवन कर शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को कैसे अक्षुण्ण बनाया जा सकता है, गायत्री की शब्द शक्ति एवं यज्ञाग्नि की ऊर्जा कैसे व्यक्तित्व को सामर्थ्य वान एवं पवित्र तथा काया को जीवनी शक्ति सम्पन्न बनाकर प्रतिकूलताओं से जूझने में समर्थ बना सकती है, ज्योतिर्विज्ञान के चिर पुरातन प्रयोगों के माध्यम से आज के परिप्रेक्ष्य में मानव समुदाय को कैसे लाभान्वित किया जा सकता है, ऐसे अनेक पक्षों को हमने अथर्ववेदीय ऋषि परम्परा के अंतर्गत अपने शोध प्रयासों में अभिनव रूप से प्रस्तुत कर दिया है। हमने उनका शुभारम्भ कर बुद्धिजीवी समुदाय को एक दिशा दी है, आधार खड़ा किया है। परोक्ष रूप में हम उसे सतत पोषण देते रहेंगे। सारे वैज्ञानिक समुदाय का चिंतन इस दिशा में चल पड़े, आत्मिकी के अनुसंधान में अपनी प्रज्ञा नियोजित कर वे स्वयं को धन्य बना सकें, ऐसा हमारा प्रयास रहेगा। सारी मानव जाति को अपनी मनीषी के द्वारा एवं शोध अनुसंधान के निष्कर्षों के माध्यम से लाभान्वित करने का हमारा संकल्प सूक्ष्मीकरण तपश्चर्या की स्थिति में और भी प्रखर रूप ले रहा है। इसकी परिणतियाँ आने वाला समय बताएगा।

‘‘विनाश नहीं सृजन’’ हमारा भविष्य कथन

अगला समय संकटों से भरा-पूरा है, इस बात को विभिन्न मूर्धन्यों ने अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार विभिन्न प्रकार के जोरदार शब्दों में कहा। ईसाई धर्मग्रंथ बाइबिल में जिस ‘‘सेविन टाइम्स’’ में प्रलय काल जैसी विपत्ति आने का उल्लेख किया है, उसका ठीक समय यही है। इस्लाम धर्म में चौदहवीं सदी के महान संकट का उल्लेख है। भविष्य पुराण में इन्हीं दिनों महती विपत्ति टूट पड़ने का संकेत है। सिखों के गुरु ग्रंथसाहिब में भी ऐसी ही अनेक भविष्यवाणियाँ हैं। कवि सूरदास ने इन्हीं दिनों विपत्ति आने का इशारा किया था। मिस्र के पिरामिडों में भी ऐसे ही शिलालेख पाए गए हैं। अनेक भारतीय भविष्यवक्ताओं ने इन दिनों भयंकर उथल-पुथल के कारण अध्यात्म आधार पर और दृश्य गणित ज्योतिष के सहारे ऐसी ही सम्भावनाएँ व्यक्त की हैं।

पाश्चात्य देशों में जिन भविष्य वक्ताओं की धाक है और जिनकी भविष्यवाणियाँ ९९ प्रतिशत सही निकलती रही हैं, उनमें जीन डिक्शन, प्रो०हरार, एंडरशन, जॉनबावेरी, कीरो, आर्थर क्लार्क, नोस्ट्राडेमस, मदर शिम्टन, आनंदाचार्य आदि ने इस समय के सम्बन्ध में जो सम्भावनाएँ व्यक्त की हैं, वे भयावह हैं। कोरिया में पिछले दिनों समस्त संसार के दैवज्ञों का एक सम्मेलन हुआ था, उसमें भी डरावनी सम्भावनाओं की ही आगाही व्यक्त की गई थी। टोरंटो-कनाडा में, संसार भर के भविष्य विज्ञान विशेषज्ञों (फ्यूचराण्टालाजिस्टा) का एक सम्मेलन हुआ था, जिसमें वर्तमान परिस्थितियों का पर्यवेक्षण करते हुए कहा था कि बुरे दिन अति समीप आ गए हैं। ग्रह-नक्षत्रों के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने वालों ने इन दिनों सूर्य पर बढ़ते धब्बों और लगातार पड़ने वाले सूर्यग्रहणों को धरती निवासियों के लिए हानिकारक बताया है। इन दिनों सन् ८५ के प्रारम्भ में उदय हुआ ‘‘हैली धूमकेतु’’ की विषैली गैसों का परिणाम पृथ्वीवासियों के लिए हानिकारक बताया गया है।

सामान्य बुद्धि के लोग भी जानते हैं कि अंधा-धुंध बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए अगले दिनों अन्न-जल तो क्या सड़कों पर चलने का रास्ता तक न मिलेगा। औद्योगीकरण-मशीनीकरण की भरमार से हवा और पानी भी कम पड़ रहा है और विषाक्त हो चला है। खनिज तेल और धातुएँ, कोयला, पचास वर्ष तक के लिए नहीं है। अणु परीक्षणों से उत्पन्न विकिरण से अगली पीढ़ी और वर्तमान जन समुदाय को कैंसर जैसे भयानक रोगों की भरमार होने का भय है। कहीं अणु युद्ध हो गया तो इससे न केवल मनुष्य, वरन् अन्य प्राणियों और वनस्पतियों का भी सफाया हो जाएगा। असंतुलित हुए तापमान से ध्रुवों की बर्फ पिघल पड़ने, समुद्र में तूफान आने और हिमयुग के लौट पड़ने की सम्भावना बताई जा रही है और अनेक प्रकार के संकटों के अनेकानेक कारण विद्यमान हैं। इस संदर्भ में साहित्य इकट्ठा करना हो, तो उनसे ऐसी सम्भावनाएँ सुनिश्चित दिखाई पड़ती हैं, जिनके कारण इन वर्षों में भयानक उथल-पुथल हो। सन् २००० में युग परिवर्तन की घोषणा है, ऐसे समय में भी विकास से पूर्व विनाश की, ढलाई से पूर्व गलाई की सम्भावना का अनुमान लगाया जा सकता है। किसी भी पहलू से विचार किया जाए, प्रत्यक्षदर्शी और भावनाशील मनीषी-भविष्यवक्ता इन दिनों  विश्व संकट को अधिकाधिक गहरा होता देखते हैं।

पत्रकारों और राजनीतिज्ञों के क्षेत्रों में इस बार एक अत्यधिक चिंता यह संव्याप्त है कि इन दिनों जैसा संकट मनुष्य जाति के सामने है, वैसा मानवी उत्पत्ति के समय से कभी भी नहीं आया। शान्ति परिषद आदि अनेक संस्थाएँ इस बात के लिए प्रयत्नशील हैं कि महाविनाश का जो संकट सिर पर छाया हुआ है, वह किसी प्रकार टले। छुट-पुट लड़ाइयाँ तो विभिन्न क्षेत्रों में होती ही रहती हैं। शीतयुद्ध किसी भी दिन महाविनाश के रूप में विकसित हो सकता है, यह अनुमान हर कोई लगा सकता है।

भूतकाल में भी देवासुर संग्राम होते रहे हैं, पर जन-जीवन के सर्वनाश की प्रत्यक्ष सम्भावना का, सर्व सम्मत ऐसा अवसर इससे पूर्व कभी भी नहीं आया।

इन संकटों को ऋषि-कल्प सूक्ष्मधारी आत्माएँ भली प्रकार देख और समझ रही हैं। ऐसे अवसरों में वे मौन नहीं रह सकतीं। ऋषियों के तप, स्वर्ग, मुक्ति एवं सिद्धि प्राप्त करने के लिए नहीं होते। उपलब्धियाँ तो आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने वाले स्थूल शरीरधारी भी प्राप्त कर लेते हैं। यह महामानवों को प्राप्त होने वाली विभूतियाँ हैं। ऋषियों को भगवान् का कार्य संभालना पड़ता है और वे उसी प्रयास को लक्ष्य मानकर संलग्न रहते हैं।

हमारे ऊपर जिन ऋषि का, दैवी सत्ता का अनुग्रह है, उनने सभी कार्य लोकमंगल के निमित्त कराए हैं। आरम्भिक २४ महापुरश्चरण भी इसी निमित्त कराए हैं कि आत्मिक समर्थता इस स्तर की प्राप्त हो सके, जिसके सहारे लोकमंगल के अतिमहत्त्वपूर्ण कार्यों को सम्पन्न करने में कठिनाई न पड़े।

विश्व के ऊपर छाए हुए संकटों को टालने के लिए उन्हें चिंता है। चिंता ही नहीं प्रयास भी किए हैं। इन्हीं प्रयासों में एक हमारे व्यक्तित्व को पवित्रता और प्रखरता से भर देना भी है। आध्यात्मिक सामर्थ्य इसी आधार पर विकसित होती है।

उपासना का वर्तमान चरण सूक्ष्मीकरण की सावित्री साधना के रूप में चल रहा है। इस प्रक्रिया के पीछे किसी व्यक्ति विशेष की ख्याति, सम्पदा, वरिष्ठता या विभूति नहीं हैं। एक मात्र प्रयोजन यही है कि मानवी सत्ता और गरिमा के लड़खड़ाते हुए पैर स्थिर हो सकें। पाँच वीरभद्रों के कंधों पर वे अपना उद्देश्य लादकर उसे सम्पन्न भी कर सकते हैं। हनुमान के कंधों पर राम-लक्ष्मण दोनों बैठे फिरते थे। यह श्रेष्ठता प्रदान करना भर है। इसे माध्यम का चयन कह सकते हैं। एक गाण्डीव धनुष के आधार पर किस प्रकार इतना विशालकाय महाभारत लड़ा जा सकता था। इसे सामान्य बुद्धि से असम्भव ही कहा जा सकता है, पर भगवान् की जो इच्छा होती है वह तो किसी न किसी प्रकार पूरी होकर रहती है। महाबली हिरण्याक्ष को शूकर भगवान ने फाड़-चीरकर रख दिया था, उसमें भी भगवान् की ही इच्छा थी।

इस बार भी हमारी निज की अनुभूति है कि असुरता द्वारा उत्पन्न हुई विभीषिकाओं को सफल नहीं होने दिया जाएगा। परिवर्तन इस प्रकार होगा कि जो लोग इस महाविनाश में संलग्न हैं, इसकी संरचना कर रहे हैं, वे उलट जाएँगे या उनके उलट देने वाले नए पैदा हो जाएँगे। विश्व-शान्ति में भारत की निश्चित ही कोई बड़ी भूमिका हो सकती है।

समस्त संसार के मूर्धन्यों, शक्तिवानों और विचारवानों की आशंका एक ही है कि विनाश होने जा रहा है। हमारा अकेले का कथन यह है कि उलटे को उलटकर ही सीधा किया जाएगा। हमारे भविष्य कथन को अभी ही बड़ी गम्भीरता पूर्वक समझ लिया जाए। विनाश की घटाओं को तूफानी प्रवाह अगले दिनों उड़ाकर कहीं ले जाएगा और अँधेरा चीरते हुए प्रकाश से भरा वातावरण दृष्टिगोचर होगा। यह ऋषियों के पराक्रम से ही सम्भावित है, इसमें कुछ दृश्यमान व कुछ परोक्ष भूमिका भी हो सकती हैं।

यह मानकर चलना चाहिए कि सामान्य स्तर के लोगों की इच्छाशक्ति भी काम करती है। जनमत का भी दबाव पड़ता है। जिन लोगों के हाथ में इन दिनों विश्व की परिस्थितियाँ बिगाड़ने की क्षमता है, उन्हें जागृत लोकमत के सामने झुकना ही पड़ेगा। लोकमत को जागृत करने का अभियान ‘‘प्रज्ञा-आंदोलन’’ द्वारा चल रहा है। यह क्रमशः बढ़ता और सशक्त होता जाएगा। इसका दबाव हर प्रभावशाली क्षेत्र की समर्थ शक्तियों पर पड़ेगा और उनका मन बदलेगा कि अपने कौशल चातुर्य को विनाश की योजनाएँ बनाने की अपेक्षा विकास के निमित्त लगाना चाहिए। प्रतिभा एक महान शक्ति है। वह जिधर भी अग्रसर होती है, उधर ही चमत्कार प्रस्तुत करती जाती है।

वर्तमान समस्याएँ एक दूसरे से गुँथी हुईं हैं। एक से दूसरी का घनिष्ठ सम्बन्ध है, चाहे वह पर्यावरण हो अथवा युद्ध सामग्री का जमाव, बढ़ती अनीति-दुराचार हो अथवा अकाल-महामारी जैसी दैवी आपदाएँ। एक को सुलझा लिया जाए और बाकी सब उलझी पड़ी रहें, ऐसा नहीं हो सकता समाधान एक मुश्त खोजने पड़ेंगे और यदि इच्छा सच्ची है, तो उनके हल निकल कर ही रहेंगे।

शक्तियों में दो ही प्रमुख हैं। इन्हीं के माध्यम से कुछ बनता या बिगड़ता है। एक शस्त्रबल-धनबल। दूसरा बुद्धि बल-संगठन बल। पिछले बहुत समय से शस्त्र बल और धन बल के आधार पर मनुष्य को गिराया और अनुचित रीति से दबाया और जो मन में आया सो कराया जाता रहा है यही दानवी शक्ति है। अगले दिनों दैवी शक्ति को आगे आना है और बुद्धिबल तथा संगठन बल का प्रभाव अनुभव कराना है। सही दिशा में चलने पर यह दैवी सामर्थ्य क्या कुछ दिखा सकती है, इसकी अनुभूति सबको करानी है।

न्याय की प्रतिष्ठा हो, नीति को सब ओर से मान्यता मिले, सब लोग हिलमिल कर रहें और मिल बाँटकर खाएँ, इस सिद्धांत को जन भावना द्वारा सच्चे मन से स्वीकारा जाएगा, तो दिशा मिलेगी, उपाय सूझेंगे, नई योजनाएँ बनेंगी, प्रयास चलेंगे और अंततः लक्ष्य तक पहुँचने का उपाय बन ही जाएगा।

‘‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ और ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ यह दो ही सिद्धांत ऐसे हैं, जिन्हें अपना लिए जाने के उपरांत तत्काल यह सूझ पड़ेगा कि इन दिनों किन अवांछनीयताओं को अपनाया गया है और उन्हें छोड़ने के लिए क्या साहस अपनाना पड़ेगा, किस स्तर का संघर्ष करना पड़ेगा? मनुष्य की सामर्थ्य अपार है। वह जिसे करने की यदि ठान ले और औचित्य के आधार पर अपना ले तो कोई कठिन कार्य ऐसा नहीं है, जिसे पूरा न किया जा सके।

अगले दिनों एक विश्व, एक भाषा, एक धर्म, एक संस्कृति का प्रावधान बनने जा रहा है। जाति, लिंग, वर्ण और धन के आधार पर बरती जाने वाली विषमता का अंत समय अब निकट आ गया। इसके लिए जो कुछ करना आवश्यक है, वह सूझेगा भी और विचारशील लोगों के द्वारा पराक्रम पूर्वक किया भी जाएगा। यह समय निकट है। इसकी हम सब उत्सुकता से प्रतीक्षा कर सकते हैं।
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