हमारी वसीयत और विरासत

जीवन साधना जो कभी असफल नहीं जाती

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बालक की तरह मनुष्य सीमित है। उसे असीम क्षमता उसके सुसम्पन्न सृजेता भगवान से उपलब्ध होती है, पर यह सशर्त है। छोटे बच्चे वस्तुओं का सही उपयोग नहीं जानते, न उनकी सँभाल रख सकते हैं, इसलिए उन्हें दुलार में जो मिलता है, हलके दर्जे का होता है। गुब्बारे, झुनझुने, सीटी, लेमनचूस स्तर की विनोद वाली वस्तुएँ ही माँगी जाती और पाई जाती हैं। प्रौढ़ होने पर लड़का घर की जिम्मेदारियाँ समझता और निबाहता है। फलतः बिना माँगे उत्तराधिकार का हस्तांतरण होता जाता है। इसके लिए प्रार्थना याचना नहीं करनी पड़ती है। न दाँत निपोरने पड़ते हैं और न नाक रगड़नी पड़ती है। जितना हमें माँगने में उत्साह है उससे हजार गुना देने में उत्साह भगवान को और महामानवों को होता है। कठिनाई एक पड़ती है, सदुपयोग कर सकने की पात्रता विकसित हुई या नहीं?

इस संदर्भ में भविष्य के लिए झूठे वायदे करने से कुछ काम नहीं चलता। प्रमाण यह देना पड़ता है कि अब तक जो हाथ में था उसका उपयोग वैसा होता रहा है। ‘‘हिस्ट्री सीट’’ इसी से बनती है और प्रमोशन में यह पिछला विवरण ही काम आता है। हमें पिछले कई जन्मों तक अपनी पात्रता और प्रामाणिकता सिद्ध करनी पड़ी है। जब बात पक्की हो गई, तो ऊँचे क्षेत्र से अनुग्रह का सिलसिला अपने आप ही चल पड़ा।

सुग्रीव, विभीषण, सुदामा, अर्जुन आदि ने जो पाया, जो दिखाया यह उनके पराक्रम का फल नहीं था, उसमें ईश्वर की सत्ता और महत्ता काम करती रही है। बड़ी नदी के साथ जुड़ी रहने पर नहरों के साथ जुड़े रजवाहे खेतों को पानी देते रहते हैं। यदि इस सूत्र में कहीं गड़बड़ी उत्पन्न होगी, तो अवरोध खड़ा होगा और सिलसिला टूटेगा। भगवान के साथ मनुष्य अपने सुदृढ़ सम्बन्ध सुनिश्चित आधारों पर ही बनाए रह सकता है। उसमें चापलूसी जैसी कोई गुंजायश नहीं है। भगवान की किसी से निजी मित्रता है, न शत्रुता। वे नियमों से बँधे हैं। समदर्शी हैं।

हमारी व्यक्तिगत क्षमता सर्वथा नगण्य है। प्रायः जनसाधारण के समान ही उसे समझा जा सकता है। जो कुछ अतिरिक्त दीखता है या बन पड़ा है, उसे विशुद्ध दैवी अनुग्रह समझा जाना चाहिए। वह सीधा कम और मार्ग दर्शक के माध्यम से अधिक आता रहा है, पर इससे कुछ अंतर नहीं आता। धन बैंक का है। भले ही वह नकदी के रूप में, चैक, ड्राफ्ट आदि के माध्यम से मिला हो।

यह दैवी उपलब्धि किस प्रकार सम्भव हुई। इसका एक ही उत्तर है पात्रता का अभिवर्धन। उसी का नाम जीवन साधना है। उपासना के साथ उसका अनन्य एवं घनिष्ठ सम्बन्ध है। बिजली धातु में दौड़ती है, लकड़ी में नहीं। आग सूखे को जलाती है, गीले को नहीं। माता बच्चे को गोदी तब लेती है, जब वह साफ-सुथरा हो। मल, मूत्र सना हो तो पहले उसे धोएगी, पोछेगी। इसके बाद ही गोदी में लेने और दूध पिलाने की बात करेगी। भगवान की समीपता के लिए शुद्ध चरित्र आवश्यक है। कई व्यक्ति पिछले जीवन में तो मलीन रहे हैं, पर जिस दिन से भक्ति की साधना अपनाई, उस दिन से अपना कायाकल्प कर लिया। बाल्मीकि, अंगुलिमाल, बिल्वमंगल, अजामिल आदि पिछले जीवन में कैसे ही क्यों न रहे हों, जिस दिन से भगवान की शरण में आए, उस दिन से सच्चे अर्थों में संत बन गए। हम लोग ‘‘राम-नाम जपना पराया माल अपना’’ की नीति अपनाते हैं। कुकर्म भी करते रहते हैं, पर साथ ही भजन-पूजन के सहारे उनके दण्ड से छूट मिल जाएगी, ऐसा सोचते रहते हैं, यह कैसी विडम्बना है?

कपड़े को रंगने से पूर्व धोना पड़ता है। बीज बोने से पूर्व जमीन जोतनी पड़ती है। भगवान का अनुग्रह अर्जित करने के लिए शुद्ध जीवन की आवश्यकता है। साधक ही सच्चे अर्थों में उपासक हो सकता है। जिससे जीवन साधना नहीं बन पड़ी, उसका चिंतन, चरित्र, आहार, विहार, मस्तिष्क अवांछनीयताओं से भरा रहेगा। फलतः मन लगेगा ही नहीं। लिप्साएँ और तृष्णाएँ जिनके मन को हर घड़ी उद्विग्न किए रहती हैं, उससे न एकाग्रता सधेगी और न चित्त की तन्मयता आएगी। कर्मकाण्ड की चिह्न पूजा भर से कुछ बात बनती नहीं। भजन का भावनाओं से सीधा सम्बन्ध है। जहाँ भावनाएँ होंगी, वहाँ मनुष्य अपने गुण, कर्म, स्वभाव में सात्विकता का समावेश अवश्य करेगा।

सम्भ्रान्त मेहमान घर में आते हैं, कोई उत्सव होते हैं, तो घर की सफाई पुताई करनी पड़ती है। जिस हृदय में भगवान को स्थान देना है, उसे कषाय-कल्मषों से स्वच्छ किया जाना चाहिए। इसके लिए आत्म-निरीक्षण, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास की चारों ही दिशा धाराओं में बढ़ना आवश्यक है। इन तथ्यों को हमें भली-भाँति समझाया गया। सच्चे मन से उसे हृदयंगम भी किया गया। सोचा गया कि आखिर गर्हित जीवन बनता क्यों है? निष्कर्ष निकाला कि इन सभी के उद्गम केंद्र तीन हैं-लोभ, मोह, अहंकार। जिसमें इनकी जितनी ज्यादा मात्रा होगी, वह उतना ही अवगति की ओर घिसटता चला जाएगा।

क्रियाएँ वृत्तियों से उत्पन्न होती है। शरीर मन के द्वारा संचालित होता है। मन में जैसी उमंगें उठती हैं, शरीर वैसी ही गतिविधियाँ अपनाने लगता है। इसलिए अवांछनीय कृत्यों-दुष्कृत्यों के लिए शरीर को नहीं मन को उत्तरदायी समझा जाना चाहिए। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए विष वृक्ष की जड़ काटना उपयुक्त समझा गया है और जीवन साधना को आधार भूत क्षेत्र मन से ही आरम्भ किया गया।

देखा गया है कि अपराध प्रायः आर्थिक प्रलोभनों या आवश्यकताओं के कारण होते हैं। इसलिए उनकी जड़ें काटने के लिए औसत भारतीय स्तर का जीवन-यापन अपनाने का व्रत लिया गया। अपनी निज की कमाई कितनी ही क्यों न हो, भले ही वह ईमानदारी या परिश्रम की क्यों न हो, पर उसमें से अपने लिए परिवार के लिए खर्च देशी हिसाब से किया जाए, जिससे कि औसत भारतीय गुजारा करना सम्भव हो। यह सादा जीवन-उच्च विचार का व्यावहारिक निर्धारण है। सिद्धान्ततः कई लोग इसे पसंद करते हैं और उसका समर्थन भी, पर अपने निज के जीवन में इसका प्रयोग करने का प्रश्न आता है तो उसे असम्भव कहने लगते हैं। ऐसा निर्वाह व्रतशील होकर ही निबाहा जा सकता है। साथ ही परिवार वालों को इसके लिए सिद्धान्ततः व्यवहारतः तैयार करना पड़ता है। इस संदर्भ में सबसे बड़ी कठिनाई लोक प्रचलन की आती है। जब सभी लोग ईमानदारी-बेईमानी की कमाई से गुलछर्रे उड़ाते हैं, तो हम लोग ही अपने ऊपर ऐसा अंकुश क्यों लगाएँ? इस प्रश्न पर परिजनों और उनके पक्षधर रिश्तेदारों को सहमत करना बहुत कठिन पड़ता है। फिर भी यदि अपनी बात तर्क, तथ्य और परिणामों के सबूत देते हुए ठीक तरह प्रस्तुत की जा सके और अपने निज का मन दृढ़ हो तो फिर अपने समीपवर्ती लोगों पर कुछ भी असर न पड़े, ऐसा नहीं हो सकता। आर्थिक अनाचारों की जड़ काटनी है, तो वह कार्य इसी स्तर के लोक शिक्षण एवं प्रचलन से सम्भव होगा। उस विश्वास के साथ अपनी बात पर दृढ़ रहा गया। घीया मण्डी मथुरा में अपना परिवार पाँच सदस्यों का था। तब उसका औसत खर्च १९७१ हरिद्वार जाने तक २०० रु. मासिक नियमित रूप से बनाए रखा गया। मिल-जुलकर, मितव्ययितापूर्वक लोगों से भिन्न अपना अलग स्तर बना लेने के कारण यह सब मजे से चलता रहा। यों आजीविका अधिक थी। पैतृक संपत्ति से पैसा आता था, पर उसका व्यय घर में अन्य सम्बन्धी परिजनों के बच्चे बुलाकर उन्हें पढ़ाते रहने का नया दायित्व ओढ़कर पूरा किया जाता रहा। दुर्गुणों-दुर्व्यसनों के पनपने लायक पैसा बचने ही नहीं दिया गया और जीवन साधना का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष सरलतापूर्वक निभता रहा।

मोह परिवार को सजाने, सुसम्पन्न बनाने, उत्तराधिकार में सम्पदा छोड़कर मरने का होता है। लोग स्वयं विलासी जीवन जीते हैं और वैसी ही आदतें बच्चों को भी डालते हैं। फलतः अपव्यय का सिलसिला चल पड़ता है और अनीति की कमाई के लिए अनाचारों के विषय में सोचना और प्रयास करना होता है। दूसरों के पतन व अनुभवों से लाभ उठाया गया और उस चिंतन तथा प्रचलन का घर में प्रवेश नहीं होने दिया गया। इस प्रकार अपव्यय भी नहीं हुआ, दुर्गुण भी नहीं बढ़े, कुप्रचलन भी नहीं चला, सुसंस्कारी परिवार विकसित होता चला गया।

तीसरा पक्ष अहंता का है। शेखीखोरी, बड़प्पन, ठाट-बाट, सजधज, फैशन आदि में लोग ढेरों समय और धन खर्च करते हैं। निजी जीवन तथा परिवार में नम्रता और सादगी का ऐसा ब्राह्मणोचित माहौल बनाए रखा गया कि अहंकार के प्रदर्शन की कोई गुंजायश नहीं थी। हाथ से घरेलू काम करने की आदत अपनाई गई। माताजी ने मुद्दतों हाथ से चक्की पीसी है। घर का तथा अतिथियों का भोजन तो वे मुद्दतों बनाती रही हैं। घरेलू नौकर की आवश्यकता तो तब पड़ी जब बाहरी कामों का असाधारण विस्तार होने लगा और उनमें व्यस्त रहने के कारण माताजी का उसमें समय दे सकना सम्भव नहीं रह गया।

यह अनुमान गलत निकला कि ठाट-बाट से रहने वालों को बड़ा आदमी समझा जाता है और गरीबी से गुजारा करने वाले उद्विग्न, अभागे, पिछड़े पाए जाते हैं। हमारे सम्बन्ध में यह बात कभी लागू नहीं हुई। आलस्य और अयोग्यतावश गरीबी अपनाई गई होती, तो अवश्य वैसा होता, पर स्तर उपार्जन योग्य होते हुए भी यदि सादगी का हर पक्ष स्वेच्छापूर्वक अपनाया गया है, तो उसमें सिद्धांतों का परिपालन ही लक्षित होता है। जो भी अतिथि आए, जिन भी मित्र सम्बन्धियों को रहन-सहन का पता चलता रहा, उनमें से किसी ने भी इसे दरिद्रता नहीं कहा, वरन् ब्राह्मण परम्परा का निर्वाह ही माना। मिर्च न खाने, खड़ाऊ पहनने जैसे एकाध नियम सादगी के नाम पर अपनाकर लोग सात्त्विकता का विज्ञापन भर करते हैं। वस्तुतः आध्यात्मिकता निभती है सर्वतोमुखी संयम और अनुशासन से। उसमें समग्र जीवनचर्या को ब्राह्मण जैसी बनाना एवं अभ्यास में उतारने के लिए सहमत करना होता है। यह लंबे समय की और क्रमिक साधना है। हमने इसके लिए अपने को साधा और जो भी अपने साथ जुड़े रहे उन्हें यथा सम्भव सधाया।

संचित कुसंस्कारों का दौर हर किसी पर चढ़ता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर अपनी उपस्थिति देते रहे, पर उन्हें उभरते ही दबोच लिया गया। बेखबर रहने, दर-गुजर करने से ही वे पनपते और कब्जा जमाने में सफल होते। वैसा अवसर जब-जब आया उन्हें खदेड़ दिया गया। गुण, कर्म, स्वभाव तीनों पर ध्यान रखा गया कि इसमें साधक के अनुसार सात्विकता का समावेश है या नहीं। संतोष की बात है कि इस आंतरिक महाभारत को जीवन भर लड़ते रहने के कारण अब चलते समय अपने को विजयी घोषित कर सके।

जन्मतः सभी अनगढ़ होते हैं। जन्म-जन्मांतरों के कुसंस्कार सभी पर न्यूनाधिक मात्रा में लदे होते हैं। वे अनायास ही हट या भग नहीं जाते। गुरु कृपा या पूजा-पाठ से भी वह प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। उनके समाधान का एक ही उपाय है-जूझना। जैसे ही कुविचार उठें, उनके प्रतिपक्षी सद्विचारों की सेना को पहले ही प्रशिक्षित, कटिबद्ध रखा जाए और विरोधियों से लड़ने को छोड़ दिया जाए। जड़ जमाने का अवसर न मिले तो कुविचार या कुसंस्कार बहुत समय तक ठहरते नहीं। उनकी सामर्थ्य स्वल्प होती है। वे आदतों और प्रचलनों पर निर्भर रहते हैं। जबकि सद्विचारों के पीछे तर्क, तथ्य, प्रमाण, विवेक आदि अनेकों का मजबूत समर्थन रहता है। इसलिए शास्त्रकार की उक्ति ऐसे अवसरों पर सर्वथा खरी उतरती है, जिनमें कहा गया है कि ‘‘सत्य ही जीतता है, असत्य नहीं।’’ इसी बात को यों भी कहा जाता है कि ‘‘परिपक्व किए गए सुसंस्कार ही जीतते हैं, आधार रहित कुसंस्कार नहीं।’’ जब सरकस के रीछ-वानरों को आश्चर्यजनक कौतुक, कौतूहल दिखाने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है, तो कोई कारण नहीं कि अनगढ़ मन और जीवन क्रम को संकल्पवान साधनों के हंटर से सुसंस्कारी न बनाया जा सके।

आराधना जिसे निरन्तर अपनाए रहा गया

गंगा, यमुना, सरस्वती के मिलने से त्रिवेणी संगम बनने और उसमें स्नान करने वाले का काया-कल्प होने की बात कही गई है। बगुले का हंस और कौए का कोयल आकृति से बदल जाना तो सम्भव नहीं है, पर इस आधार पर विनिर्मित हुई अध्यात्म धारा का अवगाहन करने से मनुष्य का अंतरंग और बहिरंग जीवन असाधारण रूप से बदल सकता है, यह निश्चित है। यह त्रिवेणी उपासना, साधना और आराधना के समन्वय से बनती है। यह तीनों कोई क्रियाकाण्ड नहीं हैं जिन्हें इतने समय में, इस विधि से, इस प्रकार बैठकर सम्पन्न करते रहा जा सके। यह चिंतन, चरित्र और व्यवहार में होने वाले उच्चस्तरीय परिवर्तन हैं, जिनके लिए अपनी शारीरिक और मानसिक गतिविधियों पर निरंतर ध्यान देना पड़ता है। दुरितों के संशोधन में प्रखरता का उपयोग करना पड़ता है और नई विचारधारा में अपने गुण, कर्म, स्वभाव को इस प्रकार अभ्यस्त करना पड़ता है जैसे अनगढ़ पशु-पक्षियों को सरकस के करतब दिखाने के लिए जिस तिस प्रकार प्रशिक्षित किया जाता है। पूजा कुछ थोड़े समय की हो सकती है, पर साधना तो ऐसी है, जिसके लिए गोदी के बच्चे को पालने के लिए निरंतर ध्यान रखना पड़ता है। फलवती भी वही होती है। जो लोग पूजा को बाजीगरी समझते हैं और जिस-तिस प्रकार के क्रिया-कृत्य करने भर के बदले ऋद्धि-सिद्धियों के दिवास्वप्न देखते हैं, वे भूल करते हैं।

हमारे मार्गदर्शक ने प्रथम दिन ही त्रिपदा गायत्री का व्यवहार, स्वरूप-उपासना, साधना, आराधना के रूप में भली प्रकार बता दिया था, नियमित जप-ध्यान करने का अनुबंधों सहित पालन करने के निर्देश के अतिरिक्त यह भी बताया था कि चिंतन में उपासना, चरित्र में साधना और व्यवहार में आराधना का समावेश करने में पूरी-पूरी सतर्कता और तत्परता बरती जाए। उस निर्देशन का अद्यावधि यथासम्भव ठीक तरह ही परिपालन हुआ है। उसी के कारण अध्यात्म-अवलंबन का प्रतिफल इस रूप में सामने आया कि उसका सहज उपहास नहीं उड़ाया जा सकता।

आराधना का अर्थ है-लोकमंगल में निरत रहना। जीवन साधना प्रकारांतर से संयम साधना है। उसके द्वारा न्यूनतम में निर्वाह चलाया और अधिकतम बचाया जाता है। समय, श्रम, धन और मन मात्र इतनी ही मात्रा का शरीर तथा परिवार के लिए खर्च करना पड़ता है, जिसके बिना काम न चले। काम न चलने की कसौटी है-औसत देशवासियों का स्तर। इस कसौटी पर कसने के उपरांत किसी भी श्रमशील और शिक्षित व्यक्ति का उपार्जन इतना हो जाता है कि काम चलाने के अतिरिक्त भी बहुत कुछ बच सके। इसी के सदुपयोग को आराधना कहते हैं। आमतौर से लोग इस बचत को विलास में, अपव्यय में अथवा कुटुंबियों में बिखेर देते हैं। उन्हें सूझ नहीं पड़ता कि इस संसार में और भी कोई अपने हैं, औरों की भी कुछ जरूरतें हैं। यदि दृष्टि में इतनी विशालता आई होती, तो उस बचत को ऐसे कार्यों में खर्च किया गया होता जिससे अनेकों का वास्तविक हित साधन होता और समय की माँग पूरी होने में सहायता मिलती।

ईश्वर का एक रूप साकार है, जो ध्यान धारणा के लिए अपनी रुचि और मान्यता के अनुरूप गढ़ा जाता है। यह मनुष्य से मिलती-जुलती आकृति-प्रकृति का होता है। यह गठन उस प्रयोजन के लिए है तो उपयोगी, आवश्यक किंतु साथ ही यह ध्यान रखने योग्य भी है कि वास्तविक नहीं, काल्पनिक है। ईश्वर एक है, उसकी इतनी आकृतियाँ नहीं हो सकतीं, जितनी कि भिन्न-भिन्न संप्रदायों में गढ़ी गई हैं। उपयोग मन की एकाग्रता का अभ्यास करने तक ही सीमित रखा जाना चाहिए। प्रतिमा पूजन के पीछे आद्योपान्त प्रतिपादन इतना ही है कि दृश्य प्रतीक के माध्यम से अदृश्य दर्शन और प्रतिपादन को समझने हृदयंगम करने का प्रयत्न किया जाए।

सर्वव्यापी ईश्वर निराकार हो सकता है। उसे परमात्मा कहा गया है। परमात्मा अर्थात आत्माओं का परम समुच्चय। इसे आदर्श का एकाकार कहने में भी हर्ज नहीं। यही विराट् ब्रह्म या विराट विश्व है। कृष्ण ने अर्जुन और यशोदा को अपने इसी रूप का दर्शन कराया था। राम ने कौशल्या तथा काकभुशुण्डि को इसी रूप को झलक के रूप में दिखाया था और प्राणियों को उनका दृश्य स्वरूप। इसी मान्यता के अनुसार यह लोक सेवा ही विराट् ब्रह्म की आराधना बन जाती है। विश्व उद्यान को सुखी-समुन्नत बनाने के लिए ही परमात्मा ने बहुमूल्य जीवन देकर अपने युवराज की तरह यहाँ भेजा है। इसकी पूर्ति में ही जीवन की सार्थकता है। इसी मार्ग का अधिक श्रद्धापूर्वक अवलम्बन करने से अध्यात्म उत्कर्ष का वह प्रयोजन सधता है, जिसे आराधना कहा गया है।

हम करते रहे हैं। सामान्य दिनचर्या के अनुसार रात्रि में शयन, नित्य कर्म के अतिरिक्त दैनिक उपासना भी उन्हीं बारह घण्टों में भली प्रकार सम्पन्न होती रही है। बारह घण्टे इन तीनों कर्मों के लिए पर्याप्त रहे हैं। चार घण्टा प्रातःकाल का भजन इसी अवधि में होता रहा है। शेष आठ घण्टे में नित्य कर्म और शयन। इसमें शयन की कोताही कहीं नहीं पड़ी। आलस्य-प्रमाद बरतने पर तो पूरा समय ही ऐंड-बेंड में चला जाता है, पर एक-एक मिनट पर घोड़े की तरह सवार रहा जाए, तो प्रतीत होता है कि जागरूक व्यक्तियों ने इसी में तत्परता बरतते हुए वे कार्य कर लिए होते जितने के लिए साथियों को आश्चर्य चकित रहना पड़ता है।

यह रात्रि का प्रसंग हुआ, अब दिन आता है। उसे भी मोटे रूप में बारह घण्टे का माना जा सकता है। इसमें से दो घंटे भोजन, विश्राम के लिए कट जाने पर दस घण्टे विशुद्ध बचत के रह जाते हैं। इनका उपयोग परमार्थ प्रयोजनों की लोकमंगल आराधना में नियमित रूप से होता रहा है। संक्षेप में इन्हें इस प्रकार कहा जा सकता है। १-जनमानस के परिष्कार के लिए युग चेतना के अनुरूप विचारणा का निर्धारण-साहित्य सृजन २-संगठन जागृत आत्माओं को युग धर्म के अनुरूप गतिविधियाँ अपनाने के लिए उत्तेजना मार्गदर्शन, ३-व्यक्तिगत कठिनाइयों में से निकलने तथा सुखी भविष्य विनिर्मित करने हेतु परामर्श योगदान। हमारी सेवा साधना इन तीन विभागों में बँटी है। इनमें दूसरी और तीसरी धारा के लिए असंख्य व्यक्तियों से संपर्क साधना और पाना चलता रहा है। इनमें से अधिकांश को प्रकाश और परिवर्तन का अवसर मिला है। इनके नामोल्लेख और घटनाक्रमों का विवरण सम्भव नहीं क्योंकि एक तो जिनकी सहायता की जाए, इनका स्मरण भी रखा जाए। यह अपनी आदत नहीं, फिर उनकी संख्या और विनिर्मित उतनी है कि जितने स्मरण है उनके वर्णन से ही एक महापुराण लिखा जा सकता है। फिर उनको आपत्ति भी हो सकती है। इन दिनों कृतज्ञता व्यक्त करने का प्रचलन समाप्त हो गया। दूसरों की सहायता को महत्त्व कम दिया। अपने भाग्य या पुरुषार्थ का ही बखान किया जाए। दूसरों की सहायता के उल्लेख में हेटी लगती है। ऐसी दशा में अपनी ओर से उन घटनाओं का उल्लेख करना जिसमें लोगों के कष्ट घटें या प्रगति के अवसर मिलें, उचित न होगा। फिर एक बात भी है कि बखान करने के बाद पुण्य घट जाता है। इतने व्यवधानों के रहते उस प्रकार की घटनाओं के सम्बन्ध में मौन धारण करना ही उपयुक्त समझा जा रहा है और कुछ न कह कर ही प्रसंग समाप्त किया जा रहा है।

इतने पर भी वे सेवाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक प्रज्ञा परिवार से प्रायः २४ लाख से भी अधिक व्यक्ति सम्बन्धित हैं। उनमें से जो मात्र सिद्धांतों, आदर्शों से प्रभावित होकर इस ओर आकर्षित हुए हैं, वे कम हैं। संख्या उनकी ज्यादा है, जिनने व्यक्तिगत जीवन में प्रकाश, दुलार, सहयोग, परामर्श एवं अनुदान प्राप्त किया है। ऐसे प्रसंग मनुष्य के अंतराल में स्थान बनाते हैं। विशेषतया तब जब सहायता करने वाला अपनी प्रामाणिकता एवं निस्वार्थता की दृष्टि से हर कसौटी पर खरा उतरता हो। संपर्क परिकर में मुश्किल से आधे तिहाई ऐसे होंगे, जिन्हें मिशन के आदर्शों और हमारे प्रतिपादनों का गंभीरतापूर्वक बोध है। शेष तो हैरानियों में दौड़ते और जलती परिस्थितियों में शान्तिदायक अनुभूतियाँ लेकर वापस लौटते रहे हैं। यही कारण है जिससे इतना बड़ा परिकर बनकर खड़ा हो गया। अन्यथा मात्र सिद्धांत पर ही सब कुछ हो रहा होता, तो आर्यसमाज, सर्वोदय की तरह सीमित सदस्य होते और व्यक्तिगत आत्मीयता, घनिष्ठता का जो वातावरण दीखता है, वह न दीखता। आगंतुकों की संख्या अधिक, समय-कुसमय आगमन, ठहरने-भोजन कराने जैसी व्यवस्थाओं का अभाव जैसे कारणों से इस दबाव का सर्वाधिक भार माताजी को सहन करना पड़ा है, पर उस असुविधा के बदले जितनों की जितनी आत्मीयता अर्जित की है, उसे देखते हुए हम लोग धन्य हो गए हैं। लगता है, जो किया गया वह ब्याज समेत वसूल हो रहा है। पैसे की दृष्टि से न सही भावना की दृष्टि से भी यदि कोई कुछ कम ले, तो उसके लिए घाटे का सौदा नहीं समझा जाना चाहिए।

आराधना के लिए, लोकमंगल साधना के लिए, गिरह की पूँजी चाहिए। उसके बिना भूखा क्या खाए? क्या बाँटे? यह पूँजी कहाँ से आई? कहाँ से जुटाई? इसके लिए मार्गदर्शक ने पहले ही दिन कहा था-जो पास में है, उसे बीज की तरह भगवान के खेत में बोना सीखो? उसे जितनी बार बोया गया, सौ गुना होता चला गया अभीष्ट प्रयोजन में कभी किसी बात की कमी न पड़ेगी। उन्होंने बाबा जलाराम का उदाहरण दिया था, जो किसान थे, अपने पेट से बचने वाली सारी आमदनी जरूरतमन्दों को खिलाते थे। भगवान इस सच्ची साधना से अतिशय प्रसन्न हुए और एक ऐसी अक्षय झोली दे गए, जिसका अन्न कभी निपटा ही नहीं और अभी भी वीरपुर (गुजरात) में उनका अन्न सत्र चलता रहता है, जिसमें हजारों भक्तजन प्रतिदिन भोजन करते हैं। जो अपना लगा देता है, उसे बाहर का सहयोग बिना माँगे मिलता है, पर जो अपनी पूँजी सुरक्षित रखता है, दूसरों से माँगता फिरता है, उस चंदा उगाहने वाले पर लोग व्यंग्य ही करते हैं और यत्किंचित् देकर पल्ला छुड़ाते रहते हैं।

गुरुदेव के निर्देशन में अपनी चारों ही सम्पदाओं को भगवान के चरणों में अर्पित करने का निश्चय किया। १-शारीरिक श्रम, २-मानसिक श्रम, ३-भाव संवेदनाएँ, ४-पूर्वजों का उपार्जित धन। अपना कमाया तो कुछ था ही नहीं। चारों को अनन्य निष्ठा के साथ निर्धारित लक्ष्य के लिए लगाते चले आए हैं। फलतः सचमुच ही वे सौ गुने होकर वापस लौटते रहे हैं। शरीर से बाहर घण्टा नित्य श्रम किया है। इससे थकान नहीं आई। वरन् कार्य क्षमता बढ़ी ही है। इन दिनों इस बुढ़ापे में भी जवानों जैसी कार्य क्षमता है। मानसिक श्रम भी शारीरिक श्रम के साथ सँजोए रखा। उसकी परिणति यह है कि मनोबल में-मस्तिष्कीय क्षमता में कहीं कोई ऐसे लक्षण प्रकट नहीं हुए जैसे कि आमतौर से बुढ़ापे में प्रकट होते हैं। हमने खुलकर प्यार बाँटा और बिखेरा है। फलस्वरूप दूसरी ओर से भी कमी नहीं रही है, व्यक्तिगत स्नेह, सम्मान, सद्भाव ही नहीं, मिशन के लिए जब-जब, जो-जो अपील, अनुरोध प्रस्तुत किए जाते रहे हैं, उनमें कमी नहीं पड़ी है।

२४०० प्रज्ञापीठों का दो वर्ष में बनकर खड़े हो जाना इसका जीवंत उदाहरण है। आरम्भ में मात्र अपना ही धन था। पैतृक संपत्ति से ही गायत्री तपोभूमि का निर्माण हुआ। जन्मभूमि में हाईस्कूल खड़ा किया गया, बाद में एक और शक्तिपीठ वहाँ विनिर्मित हो गया। आशा कम ही थी कि लोग बिना माँगे देंगे और निर्माण का इतना बड़ा स्वरूप खड़ा हो जाएगा। आज गायत्री तपोभूमि, शान्तिकुञ्ज गायत्री तीर्थ, ब्रह्मवर्चस् की इमारतों को देखकर भी यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बोया हुआ बीज सौ गुना होकर फलता है या नहीं। यह श्रद्धा का अभाव ही है, जिसमें लोग अपना संचय बगल में दबाए रखना चाहते हैं, भगवान से लाटरी अथवा लोगों से चंदा माँगते हैं। यदि बात आत्मसमर्पण से प्रारंभ की जा सके तो उसका आश्चर्यजनक परिणाम होगा। विनिर्मित गायत्री शक्ति पीठों में से जूनागढ़ के निर्माता ने अपने बर्तन बेचकर कार्य आरम्भ किया था और वही अब तक विनिर्मित, सभी इमारतों में मूर्धन्यों में से एक है।

बाजरे का-मक्का का एक दाना सौ दाने होकर पकता है। यह उदाहरण हमने अपनी संचित सम्पदा के उत्सर्ग करने जैसा दुस्साहस करने में देखा। जो था, वह परिवार के लिए उतनी ही मात्रा में, उतनी ही अवधि तक दिया, जब तक कि वे लोग हाथ पैरों से कमाने-खाने लायक नहीं बन गए। उत्तराधिकार में समर्थ संतान हेतु सम्पदा छोड़ मरना, अपना श्रम मनोयोग उन्हीं के लिए खपाते रहना हमने सदा अनैतिक माना और विरोध किया है। फिर स्वयं वैसा करते भी कैसे? मुफ्त की कमाई हराम की होती है, भले ही वह पूर्वजों की खड़ी की हुई हो। हराम की कमाई न पचती है, न फलती है। इस आदर्श पर परिपूर्ण विश्वास रखते हुए हमने शारीरिक श्रम, मनोयोग, भाव संवेदना और संग्रहीत धन की चारों सम्पदाओं में से किसी को भी कुपात्रों के हाथ नहीं जाने दिया है। उसका एक-एक कण सज्जनता के सम्वर्धन में, भगवान की आराधना में लगाया है। परिणाम सामने है। जो पास में था, उससे अगणित लाभ उठा चुके। यदि कृपणों की तरह उन उपलब्धियों को विलास में, लालच में, संग्रह में, परिवार वालों को धन-कुबेर बनाने में खर्च किया होता, तो वह सब कुछ बेकार चला जाता। कोई महत्त्वपूर्ण काम न बनता, वरन् जो भी उस मुफ्त के श्रम साधन का उपयोग करते वे दुर्गुण, दुर्व्यसनी बनकर नफे में नहीं, घाटे में ही रहते। कितने पुण्य फल ऐसे हैं, जिनके सत्परिणाम प्राप्त करने के लिए अगले जन्म की प्रतीक्षा करनी पड़ती है, पर लोक साधना का परमार्थ ऐसा है, जिसका प्रतिफल हाथों-हाथ मिलता है। किसी दुःखी के आँसू पोंछते समय असाधारण आत्म-संतोष होता है। कोई बदला न चुका सके, तो भी उपकारी का मन ही मन सम्मान करता है, आशीर्वाद देता है, इसके अतिरिक्त और एक ऐसा दैवी विधान जिसके अनुसार उपकारी का भण्डार खाली नहीं होता, उस पर ईश्वरीय अनुग्रह बरसता रहता है और जो खर्चा गया है, उसकी भरपाई करता रहता है।

भेड़ ऊन कटाती रहती है, हर वर्ष उसे नई ऊन मिलती है। पेड़ फल देते हैं, अगली बार टहनियाँ फिर उसी तरह लद जाती हैं, बादल बरसते हैं, पर खाली नहीं होते। अगले दिनों वे फिर उतनी ही जल सम्पदा बरसाने के लिए समुद्र से प्राप्त कर लेते हैं, उदारचेताओं के भण्डार कभी खाली नहीं हुए। किसी ने कुपात्रों को अपना श्रम-समय देकर भ्रमवश दुष्प्रवृत्तियों का पोषण किया हो और उसे भी पुण्य समझा हो तो फिर बात दूसरी है। अन्यथा लोक साधना के परमार्थ का प्रतिफल ऐसा है, जो हाथों-हाथ मिलता है। आत्मसंतोष, लोक सम्मान, दैवी अनुग्रह के रूप में तीन गुना सत्परिणाम प्रदान करने वाला व्यवसाय ऐसा है, जिसने भी हाथ डाला कृत-कृत्य होकर रहा है। कृपण ही हैं, जो चतुरता का दम भरते किंतु हर दृष्टि से घाटा उठाते हैं।

लोक साधना का महत्त्व तब घटता है, जब उसके बदले नामवरी लूटने की ललक होती है। यह तो अखबारों में इश्तहार छपा कर विज्ञापन बाजी करने जैसा व्यवसाय है। एहसान जताने और बदला चाहने से भी पुण्यफल नष्ट होता है। दोस्तों के दबाव से किसी भी काम के लिए चंदा दे बैठने से भी दान की भावना पूर्ण नहीं होती। देखा यह जाना चाहिए कि इस प्रयास के फलस्वरूप सद्भावनाओं का सम्वर्धन होता है या नहीं, सत्प्रवृत्तियों को आगे बढ़ाने में जो कार्य सहायक हों उन्हीं की सार्थकता है। अन्यथा मुफ्तखोरी बढ़ाने और छल प्रपंच से भोले-भाले लोगों को लूटते खाते रहने के लिए इन दिनों अगणित आडम्बर चल पड़े हैं। उनमें धन या सम्मान देने से पूर्व हजार बार यह विचार करना चाहिए कि अपने प्रयत्नों की अंतिम परिणति क्या होगी? इस दूरदर्शी विवेकशीलता का अपनाया जाना इन दिनों विशेष रूप से आवश्यक है। हमने ऐसे प्रसंगों में स्पष्ट इनकारी भी व्यक्त की है। औचित्य-सनी उदारता के साथ-साथ अनौचित्य की गंध पाने पर अनुदारता अपनाने और नाराजी का खतरा लेने का साहस किया है। आराधना में इन तथ्यों का समावेश भी नितांत आवश्यक है।

उपरोक्त तीनों प्रसंगों में हमारे जीवन दर्शन की एक झलक मिलती है। यह वह मार्ग है, जिस पर सभी महामानव चले एवं लक्ष्य प्राप्ति में सफल हो यश के भागी बने हैं। किसी प्रकार के ‘‘शार्ट कट’’ का इसमें कोई स्थान नहीं है।



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