हमारी वसीयत और विरासत

जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
हमारे जीवन का पचहत्तरवाँ वर्ष पूरा हो चुका। इस लम्बी अवधि में मात्र एक काम करने का मन हुआ और उसी को करने में जुट गए। वह प्रयोजन था ‘‘साधना से सिद्धि’’ का अन्वेषण-पर्यवेक्षण। इसके लिए यही उपयुक्त लगा कि जिस प्रकार अनेक वैज्ञानिकों ने पूरी-पूरी जिंदगियाँ लगाकर अन्वेषण कार्य किया और उसके द्वारा समूची मानव जाति की महती सेवा सम्भव हो सकी, ठीक उसी प्रकार यह देखा जाना चाहिए कि पुरातन काल से चली आ रही ‘‘साधना से सिद्धि’’ की प्रक्रिया का सिद्धांत सही है या गलत? इसका परीक्षण दूसरों के ऊपर न करके अपने ऊपर किया जाए। यह विचारणा दस वर्ष की उम्र से उठी एवं पंद्रह वर्ष की आयु तक निरंतर विचार क्षेत्र में चलती रही। इसी बीच अन्यान्य घटनाक्रमों का परिचय देना हो, तो इतना ही बताया जा सकता है कि हमारे पिताजी अपने सहपाठी महामना मालवीय जी के पास हमारा उपनयन संस्कार कराके लाए। उसी को ‘‘गायत्री दीक्षा’’ कहा गया। ग्राम के स्कूल में प्राइमरी पाठशाला तक की पढ़ाई की। पिताजी ने ही लघु कौमुदी सिद्धांत के आधार पर संस्कृत व्याकरण पढ़ा दिया। वे श्रीमद्भागवत् की कथाएँ कहने राजा-महाराजाओं के यहाँ जाया करते थे। मुझे भी साथ ले जाते। इस प्रकार भागवत् का आद्योपान्त वृत्तांत याद हो गया।

इसी बीच विवाह भी हो गया। पत्नी अनुशासन प्रिय, परिश्रमी, सेवाभावी और हमारे निर्धारणों में सहयोगिनी थी। बस समझना चाहिए कि पंद्रह वर्ष समाप्त हुए।

संध्या वंदन हमारा नियमित क्रम था। मालवीय जी ने गायत्री मंत्र की विधिवत् दीक्षा दी थी और कहा था कि ‘‘यह ब्राह्मण की कामधेनु है। इसे बिना नागा किए जपते रहना। पाँच माला अनिवार्य, अधिक जितनी हो जाएँ, उतनी उत्तम।’’ उसी आदेश को मैंने गाँठ बाँध लिया और उसी क्रम को अनवरत चलाता रहा।

भगवान् की अनुकंपा ही कह सकते हैं कि जो अनायास ही हमारे ऊपर पंद्रह वर्ष की उम्र में बरसी और वैसा ही सुयोग बनता चला गया, जो हमारे लिए विधि द्वारा पूर्व से ही नियोजित था। हमारे बचपन में सोचे गए संकल्प को प्रयास के रूप में परिणत होने का सुयोग मिल गया।

पंद्रह वर्ष की आयु थी, प्रातः की उपासना चल रही थी। वसंत पर्व का दिन था। उस दिन ब्रह्म मुहूर्त में कोठरी में ही सामने प्रकाश-पुंज के दर्शन हुए। आँखें मलकर देखा कि कहीं कोई भ्रम तो नहीं है। प्रकाश प्रत्यक्ष था। सोचा, कोई भूत-प्रेत या देव-दानव का विग्रह तो नहीं है। ध्यान से देखने पर भी वैसा कुछ लगा नहीं। विस्मय भी हो रहा था और डर भी लग रहा था। स्तब्ध था।

प्रकाश के मध्य में ऐसे एक योगी का सूक्ष्म शरीर उभरा, सूक्ष्म इसलिए कि छवि तो दीख पड़ी, पर वह प्रकाश-पुंज के मध्य अधर में लटकी हुई थी। यह कौन है? आश्चर्य।

उस छवि ने बोलना आरम्भ किया व कहा-‘‘हम तुम्हारे साथ कई जन्मों से जुड़े हैं। मार्गदर्शन करते आ रहे हैं। अब तुम्हारा बचपन छूटते ही आवश्यक मार्गदर्शन करने आए हैं। सम्भवतः तुम्हें पूर्व जन्मों की स्मृति नहीं है, इसी से भय और आश्चर्य हो रहा है। पिछले जन्मों का विवरण देखो और अपना संदेह निवारण करो।’’ उनकी अनुकंपा हुई और योगनिद्रा जैसी झपकी आने लगी। बैठा रहा, पर स्थिति ऐसी हो गई मानों मैं निद्राग्रस्त हूँ। तंद्रा सी आने लगी। योग निद्रा कैसी होती है, इसका अनुभव मैंने जीवन में पहली बार किया। ऐसी स्थिति को ही जाग्रत समाधि भी कहते हैं। इस स्थिति में डुबकी लगाते ही एक-एक करके मुझे अपने पिछले कई जन्मों का दृश्य क्रमशः ऐसा दृष्टिगोचर होने लगा मानो वह कोई स्वप्न न होकर प्रत्यक्ष घटनाक्रम ही हो। कई जन्मों की कई फिल्में आँखों के सामने से गुजर गईं।

पहला जीवन - सन्त कबीर का, सपत्नीक काशी निवास। धर्मों के नाम पर चल रही विडम्बना का आजीवन उच्छेदन। सरल अध्यात्म का प्रतिपादन।

दूसरा जन्म- समर्थ रामदास के रूप में दक्षिण भारत में विच्छ्रंखलित राष्ट्र को शिवाजी के माध्यम से संगठित करना। स्वतन्त्रता हेतु वातावरण बनाना एवं स्थान-स्थान पर व्यायामशालाओं एवं सत्संग भवनों का निर्माण।

तीसरा जन्म - रामकृष्ण परमहंस, सपत्नी कलकत्ता निवास। इस बार पुनः गृहस्थ में रहकर विवेकानन्द जैसे अनेकों महापुरुष गढ़ना व उनके माध्यम से संस्कृति के नव-जागरण का कार्य सम्पन्न कराना।

आज याद आता है कि जिस सिद्ध पुरुष-अंशधर ने हमारी पंद्रह वर्ष की आयु में घर पधार कर पूजा की कोठरी में प्रकाश रूप में दर्शन दिया था, उनका दर्शन करते ही मन ही मन तत्काल अनेक प्रश्न सहसा उठ खड़े हुए थे। सद्गुरुओं की तलाश में आमतौर से जिज्ञासु गण मारे-मारे फिरते हैं। जिस-तिस से पूछते हैं। कोई कामना होती है, तो उसकी पूर्ति के वरदान माँगते हैं, पर अपने साथ जो घटित हो रहा था, वह उसके सर्वथा विपरीत था। महामना मालवीय जी से गायत्री मंत्र की दीक्षा पिताजी ने आठ वर्ष की आयु में ही दिलवा दी थी। उसी को प्राण दीक्षा बताया गया था। गुरु वरण होने की बात भी वहीं समाप्त हो गई थी और किसी गुरु प्राप्त होने की कभी कल्पना भी नहीं उठी। फिर अनायास ही वह लाभ कैसे मिला, जिसके सम्बन्ध में अनेक किंवदंतियाँ सुनकर हमें भी आश्चर्यचकित होना पड़ा है।

शिष्य गुरुओं की खोज में रहते हैं। मनुहार करते हैं। कभी उनकी अनुकम्पा भेंट-दर्शन हो जाए, तो अपने को धन्य मानते हैं। उनसे कुछ प्राप्त करने की आकाँक्षा रखते हैं। फिर क्या कारण है कि मुझे अनायास ही ऐसे सिद्ध पुरुष का अनुग्रह प्राप्त हुआ? यह कोई छद्म तो नहीं है? अदृश्य में प्रकटीकरण की बात भूत-प्रेत से सम्बंधित सुनी जातीं हैं और उनसे भेंट होना किसी अशुभ अनिष्ट का निमित्त कारण माना जाता है। दर्शन होने के उपरान्त मन में यही संकल्प उठने लगे। संदेह उठा, किसी विपत्ति में फँसने जैसा कोई अशुभ तो पीछे नहीं पड़ा।

मेरे इस असमंजस को उन्होंने जाना। रुष्ट नहीं हुए। वरन् वस्तु स्थिति को जानने के उपरान्त किसी निष्कर्ष पर पहुँचने और बाद में कदम उठाने की बात उन्हें पसंद आई। यह बात उनकी प्रसन्न मुख-मुद्रा को देखने से स्पष्ट झलकती थी। कारण पूछने में समय नष्ट करने के स्थान पर उन्हें यह अच्छा लगा कि अपना परिचय, आने का कारण और मुझे पूर्व जन्म की स्मृति दिलाकर विशेष प्रयोजन निमित्त चुनने का हेतु स्वतः ही समझा दें। कोई घर आता है, तो उसका परिचय और आगमन का निमित्त कारण पूछने का लोक व्यवहार भी है। फिर कोई वजनदार आगंतुक जिसके घर आते हैं, उसका भी वजन तोलते हैं। अकारण हल्के और ओछे आदमी के यहाँ जा पहुँचना उनका महत्त्व भी घटाता है और किसी तर्क बुद्धि वाले के मन में ऐसा कुछ घटित होने के पीछे कोई कारण न होने की बात पर संदेह होता है और आश्चर्य भी।

पूजा की कोठरी में प्रकाश-पुंज उस मानव ने कहा-‘‘तुम्हारा सोचना सही है। देवात्माएँ जिनके साथ सम्बन्ध जोड़ती हैं, उन्हें परखती हैं। अपनी शक्ति और समय खर्च करने से पूर्व कुछ जाँच-पड़ताल भी करती हैं। जो भी चाहे उसके आगे प्रकट होने लगे और उसका इच्छित प्रयोजन पूरा करने लगें, ऐसा नहीं होता। पात्र-कुपात्र का अंतर किए बिना चाहे जिसके साथ सम्बन्ध जोड़ना किसी बुद्धिमान और सामर्थ्यवान के लिए कभी कहीं सम्भव नहीं होता। कई लोग ऐसा सोचते तो हैं कि किसी सम्पन्न महामानव के साथ सम्बन्ध जोड़ने में लाभ है, पर यह भूल जाते हैं कि दूसरा पक्ष अपनी सामर्थ्य किसी निरर्थक व्यक्ति के निमित्त क्यों गँवाएँगे?’’

‘‘हम सूक्ष्म दृष्टि से ऐसे सत्पात्र की तलाश करते रहे, जिसे सामयिक लोक-कल्याण का निमित्त कारण बनाने के लिए प्रत्यक्ष कारण बताएँ। हमारा यह सूक्ष्म शरीर है। सूक्ष्म शरीर से स्थूल कार्य नहीं बन पड़ते। इसके लिए किसी स्थूल शरीर धारी को ही माध्यम और शस्त्र की तरह प्रयुक्त करना पड़ता है। यह विषम समय है। इसमें मनुष्य का अहित होने की अधिक सम्भावनाएँ हैं। उन्हीं का समाधान करने के निमित्त तुम्हें माध्यम बनाना है। जो कमी है, उसे दूर करना है। अपना मार्गदर्शन और सहयोग देना है। इसी निमित्त तुम्हारे पास आना हुआ है। अब तक तुम अपने सामान्य जीवन से ही परिचित थे। अपने को साधारण व्यक्ति ही देखते थे। असमंजस का एक कारण यह भी है। तुम्हारी पात्रता का वर्णन करें, तो भी कदाचित तुम्हारा संदेह निवारण न हो। कोई किसी बात पर अनायास ही विश्वास करे, ऐसा समय भी कहाँ है? इसीलिए तुम्हें पिछले तीन जन्मों की जानकारी दी गई।’’

सभी पूर्व जन्मों का विस्तृत विवरण जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत तक का दर्शाने के बाद उन्होंने बताया कि किस प्रकार वे इन सभी में हमारे साथ रहे और सहायक बने।

वे बोले-‘‘यह तुम्हारा दिव्य जन्म है। तुम्हारे इस जन्म में भी सहायक रहेंगे और इस शरीर से वह कराएँगे, जो समय की दृष्टि से आवश्यक है, सूक्ष्म शरीरधारी प्रत्यक्ष जन-संपर्क नहीं कर सकते और न घटनाक्रम स्थूल शरीरधारियों द्वारा ही सम्पन्न होते हैं, इसलिए योगियों को उन्हीं का सहारा लेना पड़ता है।

तुम्हारा विवाह हो गया सो ठीक हुआ। यह समय ऐसा है, जिसमें एकाकी रहने से लाभ कम और जोखिम अधिक है। प्राचीन काल में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, गणेश, इन्द्र आदि सभी सपत्नीक थे। सातों ऋषियों की पत्नियाँ थीं, कारण कि गुरुकुल आरण्यक स्तर के आश्रम चलाने में माता की भी आवश्यकता पड़ती है और पिता की भी। भोजन, निवास, वस्त्र, दुलार आदि के लिए भी माता चाहिए और अनुशासन, अध्यापन, अनुदान पिता की ओर से ही मिलता है। गुरु ही पिता है और गुरु की पत्नी ही माता है, उसी ऋषि परम्परा के निर्वाह के लिए यह उचित भी है, आवश्यक भी। आजकल भजन के नाम पर जिस प्रकार आलसी लोग संत का बाना पहनते और भ्रम जंजाल फैलाते हैं, तुम्हारे विवाहित होने से मैं प्रसन्न हूँ। इसमें बीच में व्यवधान तो आ सकता है, पर पुनः तुम्हें पूर्व जन्म में तुम्हारे साथ रही सहयोगिनी पत्नी के रूप में मिलेगी, जो आजीवन तुम्हारे साथ रहकर महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहेगी। पिछले दो जन्मों में तुम्हें सपत्नीक रहना पड़ा है। यह न सोचना कि इससे कार्य में बाधा पड़ेगी। वस्तुतः इससे आज, परिस्थितियों में सुविधा ही रहेगी एवं युगपरिवर्तन के प्रयोजन में भी सहायता मिलेगी।’’


वह पावन दिन वसंत पर्व का दिन था। प्रातः ब्रह्म मुहूर्त था। नित्य की तरह संध्या वंदन का नियम निर्वाह चल रहा था। प्रकाश पुंज के रूप में देवात्मा का दिव्य-दर्शन, उसी कौतूहल से मन में उठी जिज्ञासा और उसके समाधान का यह उपक्रम चल रहा था। नया भाव जगा उस प्रकाश पुंज से घनिष्ठ आत्मीयता का। उनकी महानता, अनुकम्पा और साथ ही अपनी कृतज्ञता का। इस स्थिति ने मन का कायाकल्प कर दिया था। कल तक जो परिवार अपना लगता था, वह पराया होने लगा और जो प्रकाश पुंज अभी-अभी सामने आया था, वह प्रतीत होने लगा कि मानों यही हमारी आत्मा है। इसी के साथ हमारा भूतकाल बँधा हुआ था और अब जितने दिन जीना है, वह अधिक अवधि भी इसी के साथ जुड़ी रहेगी। अपनी ओर से कुछ कहना नहीं। कुछ चाहना नहीं, किंतु दूसरे का जो आदेश हो उसे प्राण-प्रण से पालन करना। इसी का नाम समर्पण है। समर्पण मैंने उसी दिन प्रकाश पुँज देवात्मा को किया और उन्हीं को न केवल मार्गदर्शक वरन् भगवान् के समतुल्य माना। उस सम्बन्ध निर्वाह को प्रायः साठ वर्ष से अधिक होने को आते हैं। बिना कोई तर्क बुद्धि लड़ाए, बिना कुछ नननुच किए, उनके इशारे पर एक ही मार्ग पर गतिशीलता होती रही है। सम्भव है या नहीं अपने बूते यह हो सकेगा या नहीं, इसके परिणाम क्या होंगे? इन प्रश्नों में से एक भी प्रश्न आज तक मन में उठा नहीं।

उस दिन मैंने एक और नई बात समझी कि सिद्ध पुरुषों की अनुकम्पा मात्र लोक-हित के लिए, सत्प्रवृत्ति-संवर्धन के निमित्त होती है। उनका न कोई सगा सम्बन्धी होता है न उदासीन विरोधी। किसी को ख्याति, सम्पदा या कीर्ति दिलाने के लिए उनकी कृपा नहीं बरसती। विराट ब्रह्म-विश्व मानव ही उनका आराध्य होता है। उसी के निमित्त अपने स्वजनों को वे लगाते हैं, अपनी इस नवोदित मान्यता के पीछे रामकृष्ण-विवेकानन्द का, समर्थ रामदास-शिवाजी का, चाणक्य-चंद्रगुप्त का, गाँधी-बिनोवा का, बुद्ध-अशोक का गुरु-शिष्य सम्बन्ध स्मरण हो आया। जिनकी आत्मीयता में ऐसा कुछ न हो, सिद्धि-चमत्कार, कौतुक-कौतूहल, दिखाने या सिखाने का क्रिया-कलाप चलता रहा हो, समझना चाहिए कि वहाँ गुरु और शिष्य की क्षुद्र प्रवृत्ति है और जादूगर-बाजीगर जैसा कोई खेल-खिलवाड़ चल रहा है। गंध-बाबा चाहे जिसे सुगंधित फूल सुँघा देते थे। बाघ बाबा-अपनी कुटी में बाघ को बुलाकर बिठा लेते थे। समाधि बाबा कई दिन तक जमीन में गड़े रहते थे। सिद्ध बाबा-आगंतुकों की मनोकामना पूरी करते थे। ऐसी-ऐसी जनश्रुतियाँ भी दिमाग में घूम गईं और समझ में आया कि यदि इन घटनाओं के पीछे मेस्मेरिज्म स्तर की जादूगरी थी, तो महान् कैसे हो सकते हैं? ठण्डे प्रदेश में गुफा में रहना जैसी घटनाएँ भी कौतूहल वर्धक ही है। जो काम साधारण आदमी न कर सके, उसे कोई एक करामात की तरह कर दिखाए तो इसमें कहने भर की सिद्धाई है। मौन रहना, हाथ पर रखकर भोजन करना, एक हाथ ऊपर रखना, झूले पर पड़े-पड़े समय गुजारना जैसे असाधारण करतब दिखाने वाले बाजीगर सिद्ध हो सकते हैं, पर यदि कोई वास्तविक सिद्ध या शिष्य होगा, तो उसे पुरातन काल के, लोक मंगल के लिए जीवन उत्सर्ग करने वाले ऋषियों के राजमार्ग पर चलना पड़ा होगा। आधुनिक काल में भी विवेकानन्द, दयानन्द, कबीर, चैतन्य, समर्थ की तरह उस मार्ग पर चलना पड़ा होगा। भगवान् अपना नाम जपने मात्र से प्रसन्न नहीं होते, न उन्हें पूजा-प्रसाद आदि की आवश्यकता है। जो उनके इस विश्व उद्यान को सुरम्य, सुविकसित करने में लगते हैं, उन्हीं का नाम-जप सार्थक है। यह विचार मेरे मन में उसी वसंत पर्व के दिन, दिन-भर उठते रहे, क्योंकि उनने स्पष्ट कहा था कि ‘‘पात्रता में जो कमी है, उसे पूरा करने के साथ-साथ लोकमंगल का कार्य भी साथ-साथ करना है। एक के बाद दूसरा नहीं दोनों साथ-साथ।’’ चौबीस वर्ष पालन करने योग्य नियम बताए, साथ ही स्वतंत्रता संग्राम में एक सच्चे स्वयं सेवक की तरह काम करते रहने के लिए कहा।

उस दिन उन्होंने हमारा समूचा जीवनक्रम किस प्रकार चलना चाहिए, इसका स्वरूप एवं पूरा विवरण बताया। बताया ही नहीं, स्वयं लगाम हाथ में लेकर चलाया भी। चलाया ही नहीं, हर प्रयास को सफल भी बनाया।

उस दिन हमने सच्चे मन से उन्हें समर्पण किया। वाणी ने नहीं, आत्मा ने कहा-‘‘जो कुछ पास में है, आपके निमित्त ही अर्पण। भगवान् को हमने देखा नहीं, पर वह जो कल्याण कर सकता था, वही कर रहे हैं। इसलिए आप हमारे भगवान् हैं। जो आज सारे जीवन का ढाँचा आपने बताया है, उसमें राई-रत्ती प्रमाद न होगा।’’      

उस दिन उनने भावी जीवन सम्बन्धी थोड़ी सी बातें विस्तार से समझाईं। १-गायत्री महाशक्ति के चौबीस वर्ष में चौबीस महापुरश्चरण, २-अखण्ड घृत दीप की स्थापना, ३-चौबीस वर्ष में एवं उसके बाद समय-समय पर क्रमबद्ध मार्गदर्शन के लिए चार बार हिमालय अपने स्थान पर बुलाना, प्रायः छः माह से एक वर्ष तक अपने समीपवर्ती क्षेत्र में ठहराना।

इस संदर्भ में और भी विस्तृत विवरण जो उनको बताना था, सो बता दिया। विज्ञ पाठकों को इतनी ही जानकारी पर्याप्त है, जितना ऊपर उल्लेख है। उनके बताए निर्देशानुसार सारे काम जीवन भर निभते चले गए एवं वे उपलब्धियाँ हस्तगत होती रहीं, जिन्होंने आज हमें वर्तमान स्थिति में ला बिठाया है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118