युगगीता - (भाग-२)

गहना कर्मणोगति

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि जो कर्म करके भी उसमें अपने चित्त को शांति की स्थिति में रख सकता है और बाहरी कोई कर्म न करके भी अंतर में जिसके आत्मचिंतन का प्रवाह चलता रहता है, वही मनुष्यों में बुद्धिमान है, योगी है और सबके सब कर्म उसके संपन्न हो गए हैं। कभी एक चर्चा में उन्होंने अपने शिष्य से कहा था, ‘‘जानते हो भगवान् कृष्ण कैसे थे? समस्त गीता अपने आप में एक तरह से मूर्तिमान ज्ञान (पर्सोनीफाइड नालेज) है। जब अर्जुन का मन अज्ञानता और कायरता से भर गया था, तब योगेश्वर ने गीता सुनाई। उस समय उनका मुख्य भाव- कर्म का मर्म उनके शरीर के कण- कण से फूट कर निकल रहा था। कर्म, कर्म, अनंत कर्म एवं उसके फल की ओर ध्यान न देकर ‘ममबुद्धि’ को उन्हीं के चरण कमलों में संलग्र रख कर्म करना ही कर्मयोग है। चारों योगों का सामंजस्य आवश्यक है, नहीं तो मन- बुद्धि को तू उन्हीं में कैसे लगाए रखेगा। इस प्रकार वैदिक धर्मानुष्ठान- साधन आदि भी जो दिन- रात किए जाते हैं, हर साँस में, प्रत्येक चेष्टा में किए जाते हैं,सभी कर्म हैं।’’

कितनी सुंदर व सरल, सटीक व स्पष्ट व्याख्या है उन तीनों श्लोकों की। जिनकी चर्चा विगत अध्याय में की गयी। इसी प्रकार विनोबा ने भी बड़ी निराली व सुंदर व्याख्या की है, कर्म व अकर्म की। वे कहते हैं, ‘‘सूर्य उदय होता है, पर उसके मन में क्या यह कभी भाव आता है कि मैं अँधेरा मिटाऊँगा, पंछियों को उड़ने की प्रेरणाएँ दूँगा। वह तो उदय होता है बस। उसका अस्तित्व मात्र विश्व को गति देता है। इसका कर्म सहज स्वभाव का होने के कारण अकर्म हो जाता है। उसमें उसे कष्ट या त्रास नहीं होता। तभी गीता में कहा है भगवान् कृष्ण ने—मैंने कर्मयोग का यह रहस्य पहले- पहल विवस्वान को सिखाया। विवस्वान का अर्थ है—‘सूर्य’। सूर्य कर्म करता है, जो अकर्म हो जाता है। सूर्य ने मनु को सिखाया अर्थात् सूर्य से यह ‘करके न करने का’ गुर मनुष्य ने सीखा, क्योंकि मनु मानव का प्रतीक है। मनु ने इक्ष्वाकु- सूर्यवंशी राजा को और फिर सारे जगत् को दिया।

कोई भी ज्ञानी यदि कहता है कि मैं उपकार नहीं करूँगा, तो उसके लिए यह असंभव है। वह कर्म करते- करते यदि अकर्म की दिशा में पहुँच गया है, यह उसके स्वभाव का एक अंग बन गया है। वह उपकार किए बिना रह नहीं सकता। संत पुरुष कर्म उसी तरह करते हैं, जैसे सूर्य का प्रकाश देना। कर्म- कर्म तो तब लगे जब उसमें भार हो। जब मालूम ही न हो कि मैंने कर्म किया एवं यह स्वभाव का अंग बन जाए तो कर्म अकर्म हो जाता है। ’’ बड़ी सुंदर उक्तियों के साथ विनोबा, जो गीता को गीताई (गीता माता) कहते थे, ने जटिल विषय की व्याख्या की है। वे कहते हैं, ‘‘मान लीजिए हमें गुस्सा आ गया। जिसकी भूल से गुस्सा आया है, उसके पास आने पर हम बोलते ही नहीं। इस अबोल का कर्म, त्याग का कितना प्रचंड परिणाम होता है, यह समझा जा सकता है। बच्चे की गलती पर माँ- बाप बोलना बंद कर दें, तो जबर्दस्त फलश्रुति देखी जाती है। यह है अकर्म में छिपा हुआ कर्म।’’
अष्टावक्र गीता (१८,६१) कहती है—

निवृत्तिरपि
मूढस्य प्रवृत्तिरूपजायते
प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिर्फलदायिनी


अर्थात् मूर्खों की निवृत्ति एक प्रकार की प्रवृत्ति है और धीरवृत्ति के व्यक्ति की प्रवृत्ति का फल भी निवृत्ति जैसा होता है। संभवतः यही कारण है कि श्रीकृष्ण ने सत्रहवें- अठारहवें श्लोक में कहा है कि कर्म, अकर्म- विकर्म में बड़ी पेचीदा बातें हैं। कर्म में अकर्म तथा विकर्म एवं अकर्म में कर्म तथा विकर्म आ मिलते हैं। सामान्य मनुष्य को कर्म करते रहना है, निष्काम कर्म सतत करते रहना है, अकर्म व विकर्म से बचना है। कर्म कब विकृत रूप लेकर निषिद्ध कर्म (विकर्म) बन जाय मालूम नहीं। जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को समझ लेता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान होते हुए परमात्म चेतना में स्थित हो, स्वयं को महापुरुषों की गिनती में बिठा लेता है।

कर्म की गति बड़ी गहन है

उपर्युक्त विवेचनाओं को आत्मसात् कर लेने के पश्चात् ‘गहना कर्मणो गतिः’ को समझने का प्रयास करेंगे। इस विषय में गोस्वामी तुलसीदास जी की एक चौपाई से इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है।

वे लिखते हैं—

औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु
अति विचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु


परमपिता परमात्मा के विधान को, उनके कार्य की गति को कौन समझ सकता है? कर्म की गति इतनी गहन है कि अपराध कोई और करता है और फल किसी को भोगना पड़ता है। यह भगवान् की न्याय व्यवस्था भी बड़ी निराली है। अर्जुन जैसा मनीषी विद्वान् महारथी भी एक अति आवश्यक कर्म को घोर युद्ध मान बैठा है एवं भगवान् को उलाहना दे रहा है कि क्यों आप मुझे इस घोर कर्म में प्रवृत्त कर रहे हैं। कर्म की गति अति गहन होने के कारण वह इस महाभारत के मर्म को नहीं समझ पा रहा।

भगवान् कहते हैं कि दीप से जलते धुएँ के आवरण में कर्म के जाल फँसे रहते हैं। उन्हें सामान्य मनुष्य समझ नहीं सकता। भारतीय पौराणिक इतिहास में एक महाराजा नृग हुए हैं। वे बड़े दानी व यशस्वी राजा थे। गोदान में एक ब्राह्मण को उन्होंने सैकड़ों गायें दे दीं। इन गायों में एक ऐसी गाय भी थी, जो किसी ने राजा को दान में दी थी। अब राजा द्वारा जब भी दान किया जाता था, वह विशुद्ध रूप से उनके द्वारा खरीदी हुई गायों का ही किया जाता था। त्रुटिवश यह गाय उसमें मिल गई। जिस व्यक्ति ने महाराज को दान में गाय दी थी, वह राजा के पास पहुँचा और उसने शिकायत की कि आपने मेरे द्वारा दिए गए दान को किसी और को कैसे दे दिया। राजा बोले—भाई! कर्मचारियों से गलती हो गई। हम तो जानते भी नहीं थे। उसने कहा कि निश्चित ही आपको दंड भुगतना पड़ेगा। कर्मचारियों की गलती आपकी गलती है। आप सर्वोच्च पद पर हैं, दान जैसे कार्य में आपको सावधानी रखनी चाहिए थी। खैर! मृत्यु के पश्चात् धर्मराज के यहाँ न्याय हुआ। धर्मराज बोले—राजा नृग आपके पास बड़े पुण्य हैं। आपका जीवन धर्मप्रधान रहा है, पर आपके साथ एक छोटा सा पाप भी जुड़ा है। आप दान वाले प्रकरण में दोनों ब्राह्मणों का समाधान भी नहीं कर पाए व अनजाने ही गलती आपसे हो गई। पहले पाप का फल भोगना चाहते हैं या पुण्य का। राजा नृग की आत्मा बोली, ‘‘पहले पाप का फल भोग करवा दीजिए।’’ उन्हें गिरगिट की योनि में जन्म लेना पड़ा। द्वारिका में जन्मे। एक बड़े गिरगिट के रूप में कुएँ में रहते थे। भगवान् कृष्ण क्रीड़ा हेतु सहयोगियों के साथ उधर आए। देखा कि कुछ यादव पुत्र उसे कुए से बाहर निकालने का प्रयास कर रहे हैं। बाहर निकलते ही उसने भगवान् के ज्योतिरूप में दर्शन कर लिए एवं उन्हीं की ज्योति में शरीर छोड़कर समा गये। राजा नृग ने पाप का फल भी भोगा एवं पुण्यों के फल स्वरूप थोड़ी ही जीवनावधि में भोग पूरा कर परम सत्ता के साथ अपने संचित पुण्यों के कारण एकाकार हो गए।

करम गति टारे नाहिं टरै

उपरोक्त कथा यों तो पौराणिक है, पर कर्म की गति कितनी गहन है टारे नहीं टरती, इस तथ्य को स्पष्ट करती है। हम कभी- कभी ऊहापोह में फँस जाते हैं। कौन- से हमारे पुण्य थे जिनके कारण इस जन्म में भौतिकता के जंजाल से निकलकर हम भगवद् कर्म में जुड़ गए। गायत्री परिवार से जुड़कर एक महान् सत्कर्म में, ज्ञानयज्ञ में निरत हो गए, जहाँ हमें चारों ओर भगवान्- ही दिखाई देता है, यह सारा हमारा विगत जन्मों के पुण्यों का फल है। कुछ व्यक्ति अध्यात्म से जुड़ने के बाद भी उसके मर्म को- स्वरूप को समझ नहीं पाते, फिर भौतिकवाद में, लौकिक दुनिया की चकल्लस में उलझ जाते हैं, उनके पुण्य क्षीण होते चले जाते हैं, इस जन्म की साधना के अभाव में वे कुछ अर्जित भी नहीं कर पाते, अतः दुर्बुद्धि हावी हो जाती है, वह कर्म कराने लगती है, जो कभी सोचा भी नहीं था। कर्म की गति बड़ी गहन है। कर्म फल विधाता का बड़ा अकाट्य सिद्धांत है।

परम पूज्य गुरुदेव एक स्थान पर लिखते हैं कि हमने जो जीवन भर लोगों को अनुदान बाँटे हैं, उनके बदले में यदि हमें और माताजी को बीमार होकर शरीर छोड़ना पड़े, तो कोई आश्चर्य नहीं। गुरुदेव- माताजी ने सचेत स्थिति में सभी भोगकर शरीर छोड़ा, महासमाधि ली। रामकृष्ण परमहंस ने गले के कैंसर से पीड़ित होकर शरीर छोड़ा। जब महापुरुष अपवाद नहीं हुए, तो हम कैसे बच सकते हैं। हाँ, परमात्म चेतना में स्थित होकर आज से ही श्रेष्ठ कर्म करते हुए हमें अपने पुण्यों के ‘अकाउंट’ में वृद्धि करने हेतु संकल्पित हो जाना चाहिए। निषिद्ध कर्मों से बचना चाहिए एवं निष्काम कर्म में लिप्त हो जाना चाहिए।

परम पूज्य गुरुदेव की लिखी एक पुस्तक है—‘गहना कर्मणो गति।’ इसकी भूमिका में वे लिखते हैं, ‘‘निस्संदेह कर्म की गति बड़ी गहन है। धर्मात्माओं को दुःख, पापियों को सुख, आलसियों को सफलता, उद्योगशीलों को असफलता, विवेकवानों पर विपत्ति, मूर्खों के यहाँ संपत्ति, दंभियों को प्रतिष्ठा, सत्यनिष्ठों को तिरस्कार प्राप्त होने के अनेक उदाहरण इस दुनिया में देखे जाते हैं। कोई जन्म से ही वैभव लेकर पैदा होते हैं, किन्हीं को जीवन भर दुःख- ही भोगने पड़ते हैं। सुख और सफलता के जो नियम निर्धरित हैं, वे सर्वांश पूरे नहीं उतरते। इन सब बातों को देखकर भाग्य- ईश्वर की मर्जी, कर्म की गति संबंधी प्रश्र व संदेह उठ खड़े होते हैं। वैज्ञानिक और आधुनिक दृष्टि से ही कर्म की गहन गति पर विचार किया जाए, तो यह प्रतिपादित हो सकता है कि जो कुछ भी फल प्राप्त होता है, वह अपने कर्मों के कारण ही है।’’

सही दृष्टि विकसित करें

प्रस्तुत पुस्तक में उन्होंने पंचाध्यायी के माध्यम से पाठकों को चित्रगुप्त का परिचय कराया है, दैहिक- दैविक तापों का वर्णन किया है, ये किस कारण आते हैं, यह बताया है। कर्मों के संचित, प्रारब्ध, क्रियमाण तीनों स्वरूपों की व्याख्या की है एवं यह लिखा है कि आप सत्कर्मों द्वारा अपनी दुनिया स्वयं बना सकते हैं। इस पुस्तक के समापन पृष्ठों में वे लिखते हैं, ‘‘हर मौज मारने वाले को पूर्व जन्म का धर्मात्मा और हर कठिनाई में पड़े हुए व्यक्ति को पूर्व जन्म का पापी कह देना उचित नहीं। सत्पुरुषों को पग- पग पर कष्ट झेलने पड़ते हैं। यह पुण्य संचय कराने वाले, तपश्चर्या के निमित्त एवं अपनी सत्यता की परीक्षा स्वर्ण समान निखारने वाले दुःख हैं। जब भी कोई विपत्ति आए, यह नहीं सोचना चाहिए कि हम पापी हैं अभागे हैं, ईश्वर के कोपभाजन हैं। संभव है वह कष्ट हमारे हित के लिए आया हो। कर्म की गति गहन है, उसे हम ठीक प्रकार नहीं जानते, केवल परमात्मा ही जानता है। ’’
श्री कबीरदास जी ने इसी बात को इस तरह लिखा है—

करता था सो क्यूँ किया, अब करि क्यूँ पछिताइ
बोवै पेड़ बबूल का, आम कहाँ ते खाइ॥

‘‘जब
बुरे कर्म करता था, तो क्यों किया? करने के बाद अफसोस क्यों करता है? जब बबूल का पेड़ बोया है, तो आम कहाँ से खाएगा? साधन साध्य के अनुरूप होना चाहिए।’’
बहुत सरल भाषा में संत कबीर ने कर्मों की गति हम सबको समझा दी है। भगवान् कहते हैं कि जो उनके साथ योगयुक्त होकर कर्म करता है, उसके कर्मों के स्वामी भगवान् होते हैं। वह उन कर्मों का निमित्त मात्र होता है, जो उसकी प्रकृति अपने स्वामी को जानते हुए, उन्हीं के वश में रहते हुए करती है। उस ज्ञान की धधकती हुई प्रबलता और पवित्रता में उसके कर्म अग्रि में ईंधन की तरह जलकर भस्म हो जाते हैं। इसका उसके मन पर कोई लेप या दाग नहीं लगता। वह स्थिर, शांत, अचल, निर्मल, शुभ और पवित्र बना रहता है। ऐसे दिव्यकर्मी का, महामानव का यही प्रथम लक्षण है कि वह कर्तृत्व अभिमान से मुक्त रह मोक्षदायक ज्ञान में स्थित होकर समस्त कर्म करता चला जाता है। यह व्याख्या उन्नीसवें, बीसवें एवं इक्कीसवें श्लोक के भावार्थ के रूप में प्रस्तुत की गयी है, जिन्हें अब यहाँ उद्धृत किया जा रहा है।

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः
ज्ञानाग्रिदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः॥
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्रोति किल्बिषम्॥

(१९,२०,२१/४)

‘‘जिसके सभी कार्य (शास्त्रसम्मत) बिना कामना और मानसिक उद्वेगों के होते हैं और जिसके समस्त कर्म ज्ञान रूपी अग्रि के द्वारा भस्म हो गए हैं, उस महापुरुष को ऋषिगणों, ज्ञानीजनों द्वारा बुद्धिमान (पंडित) कहा जाता है।’’ (४/१९)

‘‘ऐसा व्यक्ति सब प्रकार की कर्मफल की आसक्ति छोड़कर सदैव प्रभु भक्ति में लीन रहता है, प्रभु के अतिरिक्त किसी अन्य पर आश्रित न होकर वह सब प्रकार के कर्मों को करते हुए भी वस्तुतः कुछ भी नहीं करता।’’ (४/२०)

‘‘जिसका अंतःकरण और इंद्रियों सहित सारा शरीर जीता हुआ है, जिसने समस्त भोगों की सामग्री का—संग्रह वृत्ति का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित (उद्विग्रता से मुक्त)व्यक्ति केवल शारीरिक कर्म करता हुआ भी किसी प्रकार के पापों को प्राप्त नहीं होता।’’
(४/२१)

दिव्यकर्मी के लक्षण

उपर्युक्त तीनों श्लोक दिव्यकर्मी महामानवों के लक्षण बता रहे हैं। जहाँ कामना से मुक्ति मिल गई वहाँ मानसिक उद्विग्रता का क्या काम। जहाँ कर्त्ता का व्यक्तिगत अहंकार नहीं होता, वहाँ कामना का रहना असंभव हो जाता है। ऐसी स्थिति में कामना निराहार हो जाती है, क्षीण होकर नष्ट हो जाती है। बाह्यतः मुक्त पुरुष भी दूसरे लोगों की तरह समस्त कर्म करता दिखाई पड़ता है एवं संभवतः वह इन्हें बड़े पैमाने पर और अधिक शक्तिशाली संकल्प एवं वेगवती शक्ति के साथ करता है, क्योंकि उसके साथ भगवत्संकल्प का बल जुड़ा होता है। परंतु इन सभी उपक्रमों में, पुरुषार्थों में कामना से जुड़ी निम्रकोटि की इच्छाओं का अभाव होता है, ‘‘सर्वे समारंभाः कामसंकल्पवर्जिताः।’’ उसको कर्मों के फल के प्रति आसक्ति नहीं होती। फल के लिए कर्म नहीं किया जाता, बल्कि सब कर्मों के स्वामी परमात्मा का एक यंत्र बनकर सारा कर्म किया जाता है। वहाँ कामना- वासना के लिए कोई स्थान नहीं होता। चूँकि यथार्थ में कर्मी तो स्वयं भगवान् हैं, मुक्त पुरुष का अंतःकरण और अंतरात्मा कुछ भी नहीं करता (नैव किंचित् करोति )। कर्म करती है वह प्रकृति, वह चिन्मय भगवती जो अंतर्यामी भगवान् के द्वारा नियंत्रित होती है।

शब्दावली कठिन अवश्य है, पर बहुत कठिन नहीं है इन तीन श्लोकों के भाव को समझना। अभी तक चर्चा हुई कर्मों के विषय में। उनके वर्गीकरण व उनके स्वरूप के विषय में। अब यहाँ भगवान् जिस विषय पर चर्चा आरंभ कर रहे हैं, वह है कि ‘कर्मों में पूर्ण पारंगत’ ‘कर्मषुः कौशलम्’ वाले दिव्यकर्मी महामानवों को कैसे पहचाना जाए? कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अंदर से ही अव्यवस्थित होते हैं, अपने कर्मों को विषाक्त बना देते हैं। उनके द्वारा पूरा परिश्रम करते हुए भी अपूर्ण कर्मों का ही संपादन हो पाता है, जबकि अन्य लोग अपनी सुव्यवस्थित आत्मसत्ता एवं इच्छाशक्ति के द्वारा कर्मों को वरदान का स्वरूप दे देते हैं। किसी भी कर्म की महिमा उस कर्म में नहीं, लेकिन कर्त्ता के हृदय की श्रेष्ठता एवं पवित्रता में ही निहित होती है।
तमाहुः पंडितं बुधाः’

ऐसे व्यक्तियों को गीताकार ने पंडित (बुद्धिमान) कहा है, जो बिना व्यक्तिगत कामना के एवं न किसी प्रकार की मानसिक उथल- पुथल के कर्मों को करते रहते हैं। इसका एकमेव कारण यही है कि उनकी सभी वासनाएँ स्वाध्याय जनित समझ और ध्यानजनित अनुभव में अर्थात् ज्ञानाग्रि में दग्ध हो गई हैं, जलकर भस्म हो गई हैं (ज्ञानाग्रिदग्ध कर्माणं) जो जिस कार्य को हाथ में ले, उसे दिव्यता प्रदान करे, वही सही अर्थों में ज्ञानी है, पंडित है। परम पूज्य गुरुदेव ने जीवन भर यही किया। उन्होंने कहा, ‘‘यह कार्य महाकाल का है। युग के नवनिर्माण की योजना परमसत्ता की है। हमारा संकल्प इनके साथ मिला हुआ है। हम निमित्त मात्र हैं। तुम भी हमारे साथ इस कार्य में जुड़ जाओ।’’ यही हुआ। जो जुड़ता चला गया, उसके कर्म दिव्य हो गए। ज्ञान की अग्रि में उसकी वासनाएँ दग्ध होती चली गईं।

किसी का संकल्प व्यक्तिगत तब होता है, जब उसके साथ कामना जुड़ी हो। कामना अर्थात् अंधी दौड़- अतृप्ति। अंतर्जगत् में तीव्र हलचल। यह नहीं मिला तो कैसे काम चलेगा? कामना का अर्थ है, अपनी इंद्रियों को तृप्ति मिले, ऐसा प्रयास करना। अपने अंदर से शांति खोज पाने में असमर्थता एवं साधक वृत्ति का अभाव इसके लक्षण होते हैं। तृप्ति- तुष्टि अपने अंदर खोज पाने में असमर्थता, दूसरों को देख- देखकर पागल हो जाना, अंतहीन कामनाएँ अपने अंदर पाल लेना कामना से जुड़कर कर्म करने वालों की निशानी हैं। किंतु जिनके संकल्प समष्टिगत हैं, जो औरों के दुःख में भागीदार बनते हैं, वे ज्ञानी- दिव्यकर्मी कहलाते हैं, सदैव प्रभु में लीन रहते हैं तथा कभी पापों को प्राप्त नहीं होते।





<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118