प्रतिष्ठा का उच्च सोपान

दूसरा पाठ

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दूसरा पाठ

ईमानदार, खरे और भले मानस बनिये !

             इस जमाने में चापलूसी और कायरता बढ़ गई है। खुशामदी लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए उसकी प्रशंसा के पुल बाँध देते हैं, जिससे मतलब निकालना होता है। कायर लोग डरते हैं, खरी बात मुँह सामने कहने में उनकी नानी मरती है। प्रभावशाली, दवङ्ग, अमीर या बलवान के सामने उसकी खरी आलोचना करते हुए कायरों का दिल धड़कने लगता है, पैर काँपने लगते हैं, इसलिए वे अपनी खैर इसी में समझते हैं कि चुप रहें और समय को टाल दें। तीसरे लोग घोर स्वार्थी दर्जे के होते हैं, खुद उनके ऊपर कुछ बीते तो भले ही चें- में करें, पर यदि उनके पडौ़सी, मित्र या भाई पर कुछ अन्याय होता हो तो 'कौन झगडे़ में पडे़" या हमें "अपने मतलब से मतलब" कहकर चुप ही रहते हैं। इस जमाने में उपरोक्त तीन तरह के लोगों की अधिकता है। 
  
             जो बुराई का सेहरा अपने सिर ओढ़ने को तैयार हों, झगडे़ से न डरते हों, सताये हुए लोगों का निस्वार्थ भाव से पक्ष लेते हों, अनुचित काम करने वाले की खरी समालोचना करने का जिनमें साहस हो, ऐसे वीर पुरुषों का प्रायः अभाव ही हो गया। चापलूसी, कायरता और खुदगर्जी की अतिशय वृद्धि को जाने के कारण अनुचित काम करने वालों को समालोचना या विरोध का बहुत कम सामना करना पड़ता है। यदि एक आदमी ने कुछ कहा सुना भी तो अन्याय करने वाले के दस गुण्डे उठ खडे़ होते हैं और उसका मुँह बन्द कर देते हैं। 
  
            यह ठीक है कि अनुचित काम करने वाले बेईमान लोग अपना काम मजे में चलाते रहते हैं। उन्हें विरोध का बहुत थोडा़ सामना करना पड़ता है और पैसे के बल पर बहुत से सहायक मिल जाते हैं। इन सब बातों को रोज आँखों के सामने हम देखते हैं तो भी यह स्पष्ट है कि वह बेईमान आदमी किसी की दृष्टि में इज्जतदार नहीं बन सका। किसी के दिल में उसके लिए श्रद्धा या सम्मान का एक कण भी नहीं होता। चापलूस अपना मतलब निकालने के लिए तारीफ करता है, कायर डर के मारे कुछ नहीं कहता, खुदगर्ज को अंधा अपाहिज समझिये, उसे अपने सिवाय और कुछ दिखाई नहीं पड़ता। कसाई के कुत्ते रोटी के टुकडे़ लिए पक्ष लेते हैं, चोर- चोर मौसेरे भाई इसलिए अन्यायी की हिमायत लेते हैं कि कल यह मेरी हिमायत लेकर बदला चुका देगा। यह सब क्रम चलता है, परन्तु इनका दिल टटोला जाय तो सबके मन में घृणा विराज रही होगी। मतलब की गुटबन्दी भले ही बनी रहे, पर भीतर ही भीतर दिल फटे रहते हैं। हर आदमी विवेक और विचार रखता है, ईश्वर ने सबको बुद्धि दी है, सब जानते हैं कि यह अनर्थ हो रहा है, अनर्थ- समर्थक का भी अन्तःकरण उससे घृणा करता है। काम को कोई स्वार्थवश करता भले रहे, पर उसका हृदय उसे बुरा ही समझेगा और बुरे कर्म से घृणा करने की जो आध्यात्मिक प्रवृत्ति है, वह अपना काम करती रहेगी। यही कारण है कि बदमाशों के गिरोह अधिक दिन नहीं चलते, उनमें भीतरी फूट पड़ जाती है और वह गुट छिन्न- भिन्न हो जाता है। उद्देश्य, सच्चाई और कर्त्तव्य के लिए काम करने वाले साथी एक दूसरे के लिए प्राण निछावर कर सकते हैं, अपने सर्वस्व की बाजी लगा सकते हैं, परन्तु बदमाशों का गुट जरा आघात में तितर- बितर हो जाता है। 
  
             अनुचित आचरण करने वाले संगी- साथी, कुटुम्बी, स्त्री, पुत्र तक मन में उससे घृणा करते हैं। जिसको सताया गया है, ठगा गया है, वह तो अत्यन्त तिरस्कार के भाव उगलेगा इस तरह अदृश्य लोक में चारों ओर से तिरस्कार, अनादर और दुर्भाव उसके ऊपर उड़- उड़ कर जमा हो जाते हैं। जैसे रेतीले प्रदेश की आँधी में पड़कर वस्त्र रहित व्यक्ति घबराता है। आँख, नाक मुँह में धूल के अम्बार प्रबल वेग से धँसकर बेचेन करते हैं, वैसे ही चारों ओर से उड़- उड़कर आने वाली दुर्भावनायें उसे अधिक व्यथित करती हैं और अर्धविक्षिप्त की तरह वह परेशानी में डूबता उतरता रहता है। बेईमानी गुप्त रूप से की जाय तो भी अपनी खुद की आत्मा धिक्कारने को मौजूद है, करने वाले का नाम भले ही छिपा रहे, पर बेइमानी का कार्य अधिक समय तक छिपा नहीं रहता। सताये हुए व्यक्ति का दिमाग भले ही यह न जान पावे कि किसने मेरे साथ अनर्थ किया है, पर उसके मन में से जो हाय, घृणा, श्रापवाणी निकलती है, वह लक्षवेधी वाण की तरह सीधी उसी के ऊपर टूट पड़ती है, जिसने प्रकट रूप से या गुप्त रूप से वह कुकृत्य किया था। तात्पर्य यह है कि कितनी भी होशियारी से, चालाकी से, सफाई से, गुप्त रूप से बेईमानी की जाय, वह करने वाले के लिए अदृश्य रूप से घातक और दुःखदायी परिणाम लाती है। अधर्मी मनुष्य, चाहे वह कितना ही चतुर क्यों न हो,    आत्मसम्मान का स्वर्गीय, तृप्तिदायक आहार प्राप्त नहीं कर सकता। बेईमानी से जमा की हुई सम्पत्ति ऐसी है, जैसी मृग की कस्तूरी। माना कि कस्तूरी बहुमूल्य है, पर जिस दिन मृग के शरीर में पड़ती है, उसी दिन से उस गरीब का सोना छूट जाता है, विश्राम बन्द हो जाता है। भूख प्यास की चिन्ता छोड़कर हर घडी़ अनिश्चत गति से चारों ओर भागता फिरता है। यह कस्तूरी मृग के किसी काम नहीं आती, उलटा शिकारियों द्वारा वध करा देने का कारण बन जाती है। वह सम्पदा किस काम की जो कस्तूरी की तरह दुःखदायी हो।

आत्मसम्मान को प्राप्त करने और उसे सुरक्षित रखने का एक ही मार्ग है- वह यह कि 'ईमानदारी' को जीवन की सर्वोपरि नीति बना लिया जाय। आप जो भी काम करें, उसमें सच्चाई की पर्याप्त मात्रा होनी चाहिए। लोगों को जैसा विश्वास दिलाते हैं, उस विश्वास की रक्षा कीजिए। विश्वासघात, दगाबाजी, वचन पलटना, कुछ कहना और कुछ करना मानवता का सबसे बडा़ पातक है। आजकल वचन पलटना एक फैशन सा बनता जा रहा है, इसे हल्के दर्जे का पाप समझा जाता है, पर वस्तुतः अपने वचन का पालन न करना, जो विश्वास दिलाता है उसे पूरा न करना बहुत ही भयानक, आत्मघाती, समाजिक पाप है। धर्म आचरण की ' आ, ' वचन- पालन से आरम्भ होती है। यह प्रथम सीढी़ है जिस पर पैर रखकर ही कोई मनुष्य धर्म की ओर, आध्यात्मिकता की ओर, उच्चता की ओर, ईश्वर की ओर बढ़  सकता है। 

           अपने बारे में जबान से कहकर या बिना जबान से कहकर किसी अन्य प्रकार जो कुछ दूसरों को विश्वास दिलाते हैं, शक्ति भर उसे पूरा करने का प्रयत्न कीजिए, यह मनुष्यता का प्रथम लक्षण है। जिसमें यह लक्षण नहीं वह सच्चे अर्थों में मनुष्य नहीं हो सकता। कहा जा सकता है कि उसे वह सम्मान प्राप्त नहीं हो सकता, जो कि एक मनुष्य को होना चाहिए। आप जो भी कारोबार करें, उसमें ईमानदारी का अधिक से अधिक अंश रखें, इससे अपने सम्मान की वृद्धि होगी और   कारोबार खूब चलेगा। उन कमीनी अकल के लोगों को क्या कहा जाय, जो भाट सा मुँह फाड़कर यह कह दिया करते हैं कि व्यापार में बेईमानी बिना काम नहीं चलता, ईमानदारी से रहने में गुजारा नहीं हो सकता।" असल में ऐसा कहने वाले ओछी बुद्धि के, नासमझ और विवेक बुद्धि से सर्वथा रहित होते हैं। भला बेईमानी भी व्यापार का कोई जरिया है? यह तो कुकर्म है, जिसके लिए दफा ४२० के अनुसार सात साल तक के लिए जेलखाने की चक्की पीसनी पड़ती है, सरे बाजार जूते पड़ते  हैं और इतनी बदनामी मिलती है, जिसके कारण कोई भला आदमी उसे अपने पास  नहीं बैठने देता। जो कारोबार ऐसी ओछी नीति के ऊपर खडा़ हुआ है, वह बालू के महल की तरह बहुत शीघ्र ढह जाता है। 

           जो समझते है कि हमने बेईमानी से पैसा कमाया है, वे गलत समझते हैं। असल में उन्होंने ईमानदारी की ओट लेकर अनुचित लाभ उठाया होता है। कोई व्यक्ति साफ- साफ यह घोषणा करदे कि "मैं बेइमान हूँ और धोखेबाजी का कारोबार  करता हूँ," तब फिर अपने व्यापार में लाभ करके दिखाये तो यह समझा जा सकता   है कि हाँ, बेईमानी भी कोई लाभदायक नीति है। यदि ईमानदारी की आड़ लेकर, बार- बार सच्चाई की दुहाई देकर अनुचित रूप से कुछ कमा लिया तो वह ईमानदारी को ही निचोड़ लेना हुआ। यह क्रम तभी तक चलता रह सकता है, जब तक कि पर्दाफाश नहीं होता। जिस दिन यह प्रकट हो जयगा कि भलमनसाहत की आड़ में बदमाशी हो रही है तो उस कलनेमी माया का अन्त समझिये।

आप टुच्चे मत बनिए, ओछे मत बनिए, कमीने मत बनिए। प्रतिष्ठित हूजिए और अपने लिए प्रतिष्ठा की भावनाएँ फैलने दीजिए। यह सब होना ईमानदारी पर निर्भर है, आप छोटा काम करते हैं कुछ हर्ज नहीं। कम पूँजी का, कम लाभ का, अधिक परिश्रम का, गरीबी सूचक काम- काज करने में कोई बुराई नहीं है। जो भी कामअपके हाथ में है उसी में अपना गौरव प्रकट होने दीजिए। यदि आप दुकानदार हैं, तो पूरा तोलिए, नियत कीमत रखिए, जो चीज जैसी है उसे वैसी ही कहकर बेचिए। इन तीन नियमों पर अपने काम को अविलम्ब कर दीजिए। मत डरिये कि ऐसा करने से हानि होगी। हम कहते हैं कि कुछ ही दिनों में अपका काम आशातीत उन्नति करने लगेगा। कम तोलकर या कीमत ठहराने में अपना या ग्राहक का बहुत  समय बर्वाद करके जो लाभ कमाया जाता है, असल में वह हानि के बराबर है। कम  तोलने में जो जल्दबाजी की जाती है, उसे ग्राहक भांप लेता है, बालक और पागल भले ही उस चालाकी को न समझ पावें, समझदार आदमी के मन में उस जल्दबाजी के कारण सन्देह अवश्य उत्पन्न होता है। भले ही वह किसी वजह से मुँह से कुछ न कहे पर भीतर ही भीतर गुनगुनाने लगेगा। उस बार तो माल ले जायेगा पर दूसरी बार फिर आने में बहुत हिचहिच करेगा। ग्राहक मुहँ से चुप है। दुकानदार के प्रति ग्राहक के मन में सन्देह उत्पन्न हुआ तो समझ लीजिए कि उसके दुबारा आने की तीन चौथाई आशा चली गई। इसी प्रकार मोल भाव करने में यदि बहुत मगजपच्ची की गई। पहली बार माँगे गये दामों को घटाया है, तो उस समय भले ही वह ग्राहक पट जाय, पर मन में यही धकपक करता रहेगा कि कहीं इसमें भी अधिक दाम तो नहीं चले गये? ठग तो नहीं लिया गया हूँ? क्योंकि बार- बार दामों का घटाया जाना यह साबित करता है कि दुकानदार झूठा और ठग है। ग्राहक सोचता है कि यदि इसकी बात पर विश्वास करके पहली बार माँगे हुए दाम दे  दिये होते तो मैं बुरी तरह ठग गया होता। भले ही वह बाजार भाव से कुछ सस्ते दाम पर माल खरीद ले चला हो, पर संदेह यही करता रहेगा कि कहीं इस झूठे आदमी ने इसमें भी ठग तो नहीं लिया? ऐसे संकल्प- विकल्प, शंका- संदेह लेकर जो ग्राहक गया है, उसके दुबारा आने की आशा कौन कर सकता है? लूट खसोट करना तो चोर डाकुओं का काम है, दुकानदार उस नीति को अपनाकर अपने कारोबार को विस्तृत और दृढ़ नहीं बना सकता। 

           कुछ बताकर कुछ चीज देना एक बडा़ ही लुच्चापन है, जिससे सारी प्रतिष्ठा धूलि में मिल जाती है। दूध में पानी, घी में वेजीटेबिल, अनाज में कंकड़, आटे में मिट्टी मिलाकर देना आजकल खूब चलता है, असली कहकर नकली और खराब चीजें बेची जाती हैं। खाद्य पदार्थों और औषधियों तक की प्रामाणिकता नष्ट हो  गई है। मनमाने दाम वसूल करना और नकली चीजें देना यह बहुत बडी़ धोखा धडी़  है। अच्छी चीज को ऊँचे दाम पर बेचना चाहिए, यह अपडर झूँठा है कि अच्छी चीज मँहगे दाम पर न बिकेगी। यदि यह प्रमाणित किया जा सके। कि वस्तु असली है तो ग्राहक उसको कुछ अधिक पैसे देकर भी खरीद सकता है। विदेशों में जिन व्यापारियों ने व्यापार का असली मर्म समझा है, उन्होंने पूरा तोलने, एक दाम रखने और जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही बताने की अपनी नीति बनाई है और  अपने कारोबार को सुविस्तृत करके पर्याप्त लाभ उठाया है। सदियों की पराधीनता ने  हमारे चरित्र बल को नष्ट कर डाला है, तदनुसार हमारे कारोबार झूठे, नकली, दगा फरेब से भरे हुए होने लगे हैं। लुच्चेपन से न तो बडे़ पैमाने पर लाभ ही उठाया जा सकता और न प्रतिष्ठा ही प्राप्त की जा सकती है। व्यापार में धोखे बाजी की नीति बहुत ही बुरी नीति है। इस क्षेत्र में कायरों और कमीने स्वभाव के लोगों के घुस पड़ने के कारण भारतीय उद्योग धन्धे, व्यापार नष्ट हो गये। इस देश में प्रचुर परिमाण में शहद उत्पन्न होता है, पर शहद की जरूरत है, वह यूरोप और अमेरिका से आया हुआ शहद कैमिष्ट की दुकान से जाकर खरीदेगा। घी इस देश में पर्याप्त मात्रा में उत्पन्न होता है, पर अविश्वास के कारण लोग रूखा- सूखा खाना या  वेजिटेबिल प्रयोग करना पसन्द करते हैं। हमारे व्यापारिक चरित्र का यह कैसा शर्मनाक पतन है। 

           यही बात श्रमजीवी क्षेत्र में चल रही है। दैनिक वेतन ठहराकर मजदूरबुलाइये तो आठ घन्टे में पाँच घन्टे की बराबर काम करेंगे। ठेके पर काम दे दीजिए  तो चार दिन का काम एक दिन में बडी़ जल्दबाजी से करके रख देंगे। अपने लिए अनुचित लाभ कमाने की खातिर दूसरे का काम बिगाड़कर रख देने में उन्हें जरा भी  परवाह न होगी। आधे मन से, आधे परिश्रम से, आधी जिम्मेदारी से, काम करने वाले श्रमजीवी अधिक दिखाई पड़ते हैं। ऐसे लोगों के लिए काम करने वालों के मन में भला क्या आदर हो सकता है? उन्हें काहिल कामचोर, निकम्मा और हरामी समझा जाता है। लेने को तो वे अपनी मजदूरी के पैसे ले ही जाते हैं पर काम करने  वालों के आदर और सहयोग से वंचित रह जाते हैं। मानव प्राणी में दैवी अंश प्रचुर मात्रा में भरा हुआ है, यदि कमजोर आर्थिक स्थिति वाले श्रमजीवी, अपनी सच्चाई के द्वारा काम कराने वालों के मन में अपने लिए थोडा़ सा स्थान प्राप्त करलें तो उनका प्रेम और सहयोग भी प्राप्त कर सकते हैं। उस प्रेम तथा सहयोग के आधार पर अधिक लाभदायक स्थिति के अवसर भी प्राप्त हो ही सकते हैं। हमें ऐसे अनेक उदाहरण मालूम हैं, जिनमें अपनी ईमानदारी से मजदूर ने काम कराने वाले के दिल में स्थान प्राप्त किया और फिर उनके सहयोग से उन्नत अवस्था में पहुँच गये।  अदूरदर्शी मजदूर इन बातों को नहीं समझता, वह हरामखोरी से मेहनत बचाकर, चोरी से पैसे बचाकर, गैर जिम्मेदारी से बुद्धि का खर्च बचाकर कुछ आसानी और आराम अनुभव करता है, पर वह नहीं जानता कि इसके बदले में कितनी हानि कर रहा हूँ।

धर्म प्रचारक, उपदेशक, ब्राह्मण, लेखक, कवि, नेता, साधुसन्त, वकील, डॉक्टर, शासक आदि बुद्धिजीवी श्रेणी के लोगों का उत्तरदायित्व सबसे महान है। मस्तिष्क की शक्ति से मनुष्य का जीवन सुव्यवस्थित रूप से चलता है और बुद्धिजीवियों की प्रेरणा से समाज की व्यवस्था बनती है, पागल और विक्षिप्त मनुष्य का जीवन क्रम  बेसिलसिले हो जाता है, इसी प्रकार जिस देश के बुद्धिजीवी लोग अपनी बुद्धि का प्रयोग ईमानदारी के साथ करना छोड़ देते हैं, वह देश- जाति सब प्रकार दीन- हीन और नष्ट- भ्रट हो जाते हैं। योरोप, अमेरिका आदि देशों के निवासियों की व्यक्तिगत  विशेषताऐं ऐसी नहीं हैं कि वे इतने एश आराम भोगते। उन देशों के बुद्धिजीवी लोगों  ने अपने मस्तिष्कों का उपयोग अपने निजी स्वार्थ तक ही सीमित न रक्खा, बल्कि उनकी शक्ति से जो काम हो सकते थे, उसका लाभ अपने देशवासियों को उदारतापूर्वक बाँट दिया। मुगल सम्राट की लड़की को चिकित्सा करके अच्छा कर देने के उपरान्त अंग्रेज अधिकारी ने यह इनाम माँगा कि मेरे देश से आने वाले माल पर चुंगी न ली जाय। वह चाहता तो अपने निज के लिए धन- दौलत माँगकर  स्वयं मालदार बन सकता था, पर उसने ऐसा नहीं किया। वैज्ञानिकों ने जीवन भर खोज करके बडे़बडे़ अन्वेषण किया हैं, अविष्कारों को प्रकट किया है, महत्त्वपूर्ण यन्त्र बनाये हैं, यदि वे लोग चाहते तो उन खोजों के आधार पर खुद मालोमाल बन  सकते थे, पर क्या उन्होंने ऐसा किया? उन लोगों ने अपने सम्पूर्ण बुद्धि कौशल का  लाभ अपने देश वासियों को उठाने दिया तदनुसार वे देश लक्ष्मी के, आरोग्य के, विद्या के, ऐश आराम के भंडार बने हुए हैं, जल- थल और आकाश के एक बडे़ भाग  पर शासन कर रहे हैं। 

           बुद्धि तत्त्व दैवी विभूतियों में उच्चकोटि का वरदान है। इसका उपयोग अधिक से अधिक ईमानदारी से होना चाहिए। श्रम और व्यापार के दुरुपयोग से जो हानि होती है वह सीमित है क्योंकि उनका दायरा छोटा और शक्ति स्वल्प है, वह सीमित है परन्तु बुद्धि तो गैसे या बारूद की तरह है। सदुपयोग से बलवान शत्रु को आसानी से इसके द्वारा मार भगाया जा सकता है और यदि दुरुपयोग किया जाय तो   अपना सर्वनाश होने में भी कुछ देर नहीं लगेगी। नादानी से गैस या बारूद के गोदाम को भड़का दिया जाय तो क्षण भर में विस्फोट उपस्थित हो जायगा। मस्तिष्क से निकलने वाली बिजली बहुत ही सावधानी और सतर्कता से बरती जानी चाहिए, अन्यथा असंख्य जन- समूह के भाग्य पर उसका घातक प्रभाव हो सकता है। जो ब्राह्मण आत्मविश्वास की जगह अंधविश्वास नहीं फैलाते हैं, जो वकील  न्याय वृद्धि के स्थान पर झूँठी मुकदमेबाजी खडी़ कराते हैं, जो डॉक्टर प्रकृति नियमों पर चलने का उपदेश न देकर दवाओं की गुलामी सिखाते हैं, जो लेखक विकारों को भड़काने वाली निकृष्ट रचनायें रचते हैं, जो कवि मातृत्व को अपमानित  करने वाले निर्लज्ज गीत गाते हैं, जो प्रचारक कलहकारी प्रचार करते हैं, जो नेता अनुयायियों को उल्लू बनाते हैं, जो साधु- सन्त योग का सच्चा मर्म प्रकट करने की अपेक्षा अपने को और दूसरों को भ्रम में डालते हैं, जो शासक प्रजा की उन्नति सुरक्षा करने के स्थान पर लूट- खसोट पर उतर आते हैं, जो पथ- प्रदर्शक अनजानों को गुमराह करते हैं वे अपने बुद्धि व्यवसाय में भयंकर बेइमानी करते हैं। इस बेईमानी के कारण वे कुछ समय के लिए ऐश आराम के साधन इकट्ठे कर सकते हैं, पर जनता जनार्दन के साथ वे ऐसा अन्याय करते हैं, जिसकी तुलना और किसी पातक से नहीं हो सकती। बुद्धि का दुरुपयोग करके लोगों को उलटे मार्ग  पर भटका देना, पहले दर्जे का शैतानी कर्म है ऐसे लोगों के लिए भारतीयधर्मवेत्ताओं ने 'ब्रह्म- राक्षस' शब्द का प्रयोग किया है 

           दुनियाँ में प्रमुखतः तीन वर्ण हैं, चौथे वर्ण को हम इसलिए छोड़ देते हैं कि उनकी मनुष्यता अभी बहुत अधूरी है। उन तक पुस्तकों का और उपदेशों का प्रभाव नहीं पहुँच सकता। बुद्धिजीवी- ब्राह्मण, श्रमजीवी- क्षत्रिय, व्यापारजीवी- वैश्य, यह तीन श्रेणियाँ ही बुद्धि संस्कार युक्त होने के कारण द्विज कहलाती है। शूद्र शब्द करीब- करीब पशुत्व का बोधक है। जो लोग विचार, बुद्धि, ज्ञान एवं अन्तःकरण की दृष्टि से पशु हैं, उन्हीं के लिए शूद्र शब्द काम में लाया गया है, लोभ  और भय ही इनका पथ प्रदर्शन करता है। चूंकि शूद्र लोग अध्यात्म ज्ञान को समझने में असमर्थ हैं, इसलिए उन्हें इसका अनाधिकारी ठहराया गया है। शूद्रों को  छोड़कर हमारा हर एक द्विज से अनुरोध है कि वे अपने जीवन व्यवसाय में- बुद्धि, श्रम, व्यापार में ईमानदारी बरतें। अपने व्यवहार को ऐसा रखें जिससे जन- समाज  के सामने सिर ऊँचा उठाकर यह कहा जा सके कि "मैं मनुष्य हूँ- मैं मनुष्यता को कलंकित नहीं करता- मैं मनुष्यता का गौरव जानता हूँ और उसे तिरष्कृत नहींकरता।"

आत्म सम्मान का राजपथ यही है कि कारोबार में, आचरण में प्रमाणिकता रखिये। बुद्धिजीवी हैं तो अपने ज्ञान का अपने लिए, दूसरों के लिए ऐसा प्रयोग करिये जिससे पथ भ्रष्टता, अनीति, छल, दुराव कपट, शोषण, भ्रम, अज्ञान और अशान्ति  की वृद्धि न हो सके। बुद्धि को पवित्र तत्त्व समझिये और उसे धर्म के साथ ही प्रयुक्त होने दीजिए। वैश्य अपने शरीर के एक भाग का अनुचित उपयोग होने देती है इसलिए उसे तिरष्कृत एवं घृणित एवं पापपूर्ण ठहराया जाता है, बुद्धि को व्यभिचारिणी होने देना वेश्यावृत्ति से अनेक गुना घृणित एवं पापपूर्ण है। सच्चाई से  अन्तःकरण की साक्षी देकर जो बात आप जिस प्रकार ठीक समझते हैं, उसे उसी प्रकार प्रकट करिये। इससे आपकी आमदनी कदापि कम नहीं होगी। अनीति का पैसा चोरों के घर, वकीलों के घर, डॉक्टरों के घर, वैश्याओं के घर चला जाता है मुफ्तखोर उसे उडा़ते हैं, अपने लिए वह क्लेश ही छोड़ता है। धर्म पूर्वक यदि कम पैसा कमाया गया है तो विश्वास रखिये वह आपके काम आवेगा, आपके आनन्द की वृद्धि का साधन होगा। 

           यदि आप श्रमजीवी हैं तो खरा काम कीजिए, जितना समय निश्चित है उसमें से एक मिनट भी कम करने का प्रयत्न मत कीजिए, जो काम आपको करने के लिए दिया गया है, उसे बेगार की तरह मत टालिए वरन सारी दिलचस्पी, योग्यता और मेहनत के साथ इस तरह कीजिए मानों अपना निजी काम है, आपकी  सुरुचि, कला बुद्धिमानी और महत्ता का वह कार्य प्रतिबिम्ब होना चाहिए। धूल पर बने हुए पैरों के निशानों को देखकर यह पहचान लिया जा सकता है, कि इस रास्ते कुत्ता गया है या घोडा़। काम को देखकर यह जान लिया जाता है कि इसका करने वाला किस आचरण का है, उसकी मनोवृत्तियाँ मनुष्यतायुक्त हैं या कमीनी। खराब या कम काम करने पर भी मजदूरी तो सम्भवतः आपको मिल जायेगी, पर जो काम आपने किया है, वह चिरकाल तक एक विश्वसनीय गवाह की तरह खडा़ हुआ दिन- रात यह घोषणा करता रहेगा कि "मुझे कमीने हाथों से बनाया गया है।" यहबडी़ ही लज्जास्पद और डूब मरने की बात है। माना आपको उसमें कम मजदूरी मिली है, मालिक का स्वभाव आच्छा नही हैं। यह दोष दूसरों के हैं, इसका दण्ड आप अपने को क्यों दें? अपनी प्रतिष्ठा क्यों खोवें? अपने को फूहड़, नालायक या हरामखोर साबित क्यों करें? काम खराब करने से तो आपका पक्ष और भी कमजोर होता है और यह साबित होता है कि ऐसे नालायक को तो और भी कम मजदूरी मिलनी चाहिए थी, इसके साथ तो और भी खराब व्यवहार होना चाहिए था। अपने लिए ऐसी धारणायें फैलने देना भला कौन स्वाभिमानी श्रमजीवी पसंद करेगा? 

           प्रमाणिकता के साथ व्यापार करना एक प्रकार के यज्ञ के समान है। उसमें निजी लाभ भी है और दूसरों का लाभ भी है। व्यापारी को मुनाफा मिल जाता  है और ग्राहक को संतोषजनक वस्तु, दोनों ही प्रसन्न रहते हैं और आगे के लिए दोनों का मन मिला रहता है। प्रशंसा और आदर भाव का द्वार खुला रहता है सो अलग। किसी ग्राहक से एक दिन अनुचित लाभ लेकर बहुत सा मुनाफा ले लेने की अपेक्षा व्यापारी को इसमें अधिक लाभ है कि उचित रीति से थोडा़ लाभ ले। अधिक  ठगा हुआ ग्राहक एक दो बार से अधिक न आवेगाकिन्तु थोडा़ लाभ लेने पर वह बार- बार आवेगा, चिरकाल तक सम्बन्ध रखेगा और नये ग्राहक लावेगा। हिसाब लगाकर देख लीजिए, अन्ततः वही व्यापारी अधिक लाभ में रहेगा, जो थोडा़मुनाफा लेता है, पूरा तोलकर देता है और कुछ कहकर कुछ वस्तु नहीं भेड़ता। 

           आप न्याय- परायण बुद्धिजीवी बनिए, आप ईमानदार व्यापारी बनिए, क्योंकि इसी में सब दृष्टि से लाभ रहेगा। पैसे की दृष्टि से नफे में रहेंगे, समाज में आपको ऊँची निगाह से देखा जायगा, ख्याति बढे़गी, प्रतिष्ठा प्राप्त होगी, झंझटों से बचेंगे और सबसे बडा़ लाभ यह होगा कि आपका अन्तःकरण शान्ति और स्वस्थता  अनुभव करेगा। आदर और प्रतिष्ठायुक्त आशीर्वाणीमलयाचल की शीतल सुगन्धित  वायु की तरह आपके चारों ओर प्रवाहित होगी। जिसके दिव्य प्रभाव से रोम- रोम में उल्लास भर जावेगा। 

          प्रतिष्ठा, सम्मान, आदर और इज्जत का जीवन ही जीवन है। आप जो कुछ भी काम करते हैं, उसको ईमानदारी और प्रमाणिकता से भर दीजिए। खरे बनिए, खरा काम कीजिए, खरी बात कहिए। इससे आपका हृदय हलका रहेगा और  निर्भयता अनुभव करेगा। ईमानदार, खरा आदमी, भलामानस यह तीन उपाधि यदि आपको जनता के अन्तःस्थल से मिलती हैं तो समझ लीजिए कि आपने जीवन- फल प्राप्त कर लिया, स्वर्ग का राज्य अपनी मुट्ठी में ले लिया। 
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