प्रतिष्ठा का उच्च सोपान

तीसरा पाठ

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तीसरा पाठ

आबरू की रक्षा के लिए वीरोचित कार्य का अवलम्बन कीजिए !


           मूल्यवान वस्तुओं को पास रखने पर उनकी रक्षा की जिम्मेदारी भी उठानी पड़ती है। घर में धन रखा हो तो उसकी हिफाजत के लिए तिजोरी की व्यवस्था करनी पड़ती है। चौकीदार, पहरे वाले रखने पड़ते हैं। चोरों डाकुओं से बचने का उपाय करना पड़ता है, आ पडे़ तो उनका मुकाबिला करने के लिए भी तैयार रहना होता है। यह सब जिम्मेदारी धन के साथ ही हैं। यदि धन न हो तो इनमें से एक भी बात की चिन्ता नहीं होती। मनुष्य के लिए आत्मगौरव, आत्म सम्मान ऐसी ही धन राशि हैं। उनकी रक्षा के लिए कुछ व्यवस्था करनी पड़ती है कुछ जिम्मेदारी उठानी होती है। स्वाभिमान से हीन व्यक्ति अपमानजनक स्थिति में पडा़ रह सकता है। पग- पग पर पद दलित और तिरस्कृत होना पसंद कर सकता है। झूठन खा सकता है, रोटी के टुकडे़ के लिए कुत्ते की तरह दुम हिला सकता है, पर जिसका आत्माभिमान जीवित है, उससे यह सब किसी प्रकार न हो सकेगा। हलवाइयों की दुकान के आस- पास कुछ कंगले बैठे रहते हैं, खाने वाले ने पत्तल दौने फेंके कि उनसे चिपकी हुई झूठन को चाटने के लिए वे लोग लपके। कभी- कभी तो इसीलिए वे आपस में लड़- झगड़ भी पड़ते हैं। विवाह, मृतभोज आदि की दावतों का समाचार सुनकर कुछ मनुष्य दरवाजे पर आ बैठते हैं और कुछ भोजन माँगने के लिए बुरी तरह दाँत घिसते हैं, दुत्कारे जाते हैं, गालियाँ चखते हैं, तब कुछ पाते हैं अन्यथा खाली हाथों लौट आते हैं। यह मनुष्यता को कलंकित करने वाली स्थिति है। झूठन खाकर पेट भरने की अपेक्षा घासपात खाकर रह जाना अच्छा है। सतीत्व बेचकर उदरपूर्ति करने की अपेक्षा उपवास कर लेना अच्छा है।

            जिसने मनुष्यता का मूल्य और गौरव नहीं समझा, वह इस प्रकार के कार्यों द्वारा भी जीवन- निर्वाह करता रहेगा और मन में कुछ ग्लानि न करेगा। ऐसी नौकरी करने वाले हमने देखे हैं, जो कटु शब्द सुनते रहते हैं, गालियाँ खाते रहते हैं, पिटते रहते हैं, पर उस नौकरी को नहीं छोड़ते, उस नौकरी में कोई बडा़ भारी लाभ हो, सो बात नहीं और न यही बात है कि उन्हें वैसी नौकरी दूसरी जगह न मिलेगी, बल्कि कारण यह है कि उसका दिल इतना कायर और मलीन हो गया है कि प्रतिदिन ठोकरें खाकर भी सोया हुआ स्वाभिमान जागता नहीं। यह उदाहरण हमने छोटे दर्जे के लोगों के दिये हैं। ऊँचे दर्जे के लोगों में भी ऐसे असंख्य व्यक्ति भरे पडे़ हैं, जो सभ्य भाषा में किये अपमानों का हालाहल नीचे उतारते रहते हैं। सभ्य लोगों के बीच में रहने के कारण कुछ थोड़ा स्वाभिमान उनमें होता है। वह अपमान की लात खाकर जरा सी करवट बदलता है, अँगडा़ई लेता है और कुछ क्षण बाद फिर पूर्ववत् सो जाता है। गीता में' "आत्म- हनन" इसी को कहा गया है। अपमान और तिरस्कारों की ठोकरें खाते- खाते उनकी आध्यात्मिक भूमिका ऐसी निस्तेज, निर्बल एवं हतवीर्य हो जाती है कि उसमें अन्य उच्च गुणों को धारण करने की क्षमता नहीं रहती। अत्यन्त निर्बल और रोगिणी स्त्रियों को गर्भ नहीं रहता और रह भी जाय तो वह स्थिर नहीं रहता, अधूरी अवधि में ही नष्ट हो जाता हैं। इसी प्रकार अपमान सहने वालों में या तो अन्य अच्छे गुण आते नहीं, यदि आते हैं तो चन्द रोज में ही वे विलीन हो जाते हैं। जो बालक स्कूल में अधिक पिटते हैं, बडे़ होकर यदि वे अध्यापक बन जावें तो अपनी कक्षा के बालकों को खूब पीटते हैं। जो बहू घर वालों द्वारा सताई जाती है, वह जब सास बनती है तो अपने बेटे को बहू को खास तौर से सताती है, बिना इसके उसे चैन नहीं पड़ता। इसी प्रकार जो लोग अपमानित होते रहते हैं, वे अपने से छोटे लोगों को सताने और अपमानित करने में खूब निपुण हो जाते हैं, बदबूदार वस्तुऐं जमा होती रहेंगी, वह स्थान दुर्गन्ध से भर जायगा और जिस जगह सुगन्धित पदार्थ जमा होंगे, वहाँ वैसी ही मँहक उठेगी। अपमान के दूषित तत्वों को जो व्यक्ति पीता रहता है, उनमें नीच कोटि की तामसी, पाप पूर्ण आदतों की भरमार हो जाती है। ज्वालामुखी पर्वत के पेट में गंधक भरा होता है, इसलिए वह अग्नि या भस्म ही उगल सकता है, उससे किसी वस्तु के जलने की आशा करना व्यर्थ है। अपमान के घूँट पी- पीकर जिसने अपना पेट भरा है, उसके मन, वचन और कर्म से सदा आसुरी तत्व ही निकलते रहेंगे। ऐसा मनुष्य न तो कभी खुद संतोष पा सकता है और न अपने सम्बन्धित व्यक्तियों को खुश रख सकता है।

         
स्वाभिमानी मनुष्य को यह जिम्मेदारी अपने ऊपर लेनी पडे़गी कि वह अपमान का कड़वा घूँट पीने से इनकार करदेदौपदी के अपमान का बदला चुकाने के लिए कुरुक्षेत्र का मैदान खून से लाल कर दिया गया था। भीम ने दुर्योधन की जाँघ को गदा से तोड़कर ही दम लिया था। हमारा तात्पर्य किसी को ऐसे ही भीम कर्म करने के लिए उत्तेजित करने का नहीं वरन् यह बताने का है कि अपमान कितना कड़वा घूँट है और उसका प्रतिरोध करने में लोग कितनी बडी़ जोखिम उठाने में नहीं हिचकते। जो आत्म त्याग की इतनी बडी़ जोखिम उठाने को तैयार रहें, वे ही आत्म गौरव जैसी बहुमूल्य सम्पत्ति की रक्षा कर सकते हैं। खजाने के पहरेदारों को डाकुओं से लड़ने के लिए जान की बाजी लगाकर बन्दूक पकड़नी होती है। स्वाभिमान के खजाने की रक्षा में भी जोखिम है। जो जोखिम और जिम्मेदारी से डरते हैं, उनके लिए सम्मान को सुरक्षित रखना कठिन है।

आप दूसरों का सम्मान करना सीखिये, इससे आपके सम्मान की रक्षा होगी। नियम है कि दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार करिये जैसा अपने लिए चाहते है"। किसी को "तू" कहकर मत पुकारिये। यह असभ्य भाषा का शब्द है, जिसको आध्यात्म मार्ग के पथिक को जल्द अपने शब्दकोष में से निकालकर बाहर कर देना चाहिए। अच्छा हो कि आप आज से अभी से, इस घडी़ से ही 'तू' का उच्चारण भुला- देने का प्रयत्न करना आरम्भ करदें। नौकरों को, बालकों को, स्त्रियों को छोटों को, किसी को भी 'तू' कहकर मत पुकारिये। यह अपमान सूचक शब्द जिसके लिए कहा जाता है, उसके गौरव को गिरा देता है, कम कर देता है। वैसे तो 'आप' शब्द ही सबके लिए ठीक है, पर अधिक से अधिक ढील यह रखी जा सकती है कि 'तुम' शब्द का प्रयोग कर लिया जाय। यह 'तुम' भी मधुर स्वर में हलके ढंग से इस प्रकार प्रयोग करना चाहिए जिसमें आदर सूचक ध्वनि निकलती हो। कटु शब्द बोलकर अपना और दूसरों का दिल दुखाने से क्या लाभ? जब उसी बात को नरमी के साथ कहा जा सकता है और उसका प्रभाव भी अधिक होता है, तब नाराज होकर अपना खून सुखाने, बढा़ने और दूसरे को चिढा़ने की मूर्खता करने से क्या फायदा होता है, हम नहीं समझते। गाली देना और खासकर गंदी, अश्लील गाली देना तो बिल्कुल हैवानियत है। माँ, बहिन और बेटियों के प्रति सरे आम बेइज्जति के वचन बोलना यह घोर असभ्यता और निर्लज्जता का चिह्न है। यदि लड़ना है तो आप लोग सिर फोड़कर लड़लें, पर बहिन बेटियों को बीच में न घसीटें। जिह्वा अन्न खाने और विवेक- बोलने के लिए है, इससे कोई अभक्ष नहीं खाता, उचित है कि इसी श्रेणी के काम 'गन्दी गाली देने' को भी उससे न किया जाय।

           
मधुर बोलने की आदत डालेंगे तो दूसरे लोग आपके साथ भी करीब- करीब उसी तरह पेश आयेंगे। कहते हैं कि अपनी इज्जत अपने हाथ है। जब भलमनसाहत, नम्रता, मधुरता और प्रतिष्ठा पूर्ण शब्दावली दूसरों के साथ प्रयोग करेंगे तो विश्वास रखिये, वैसा ही मधुर बर्ताव आपके साथ भी होगा। यह दुनियाँ दर्पण के समान है, हर एक को अपना ही मुँंह सामने खडा़ हुआ दिखाई पड़ता है। दुनियाँ की वाणी कुए की प्रतिध्वनि के समान है। पक्के कुए की मुंडेर पर खडे़ होकर जैसे शब्द बोलेंगे, कुए से वैसे ही शब्द प्रतिध्वनित होकर लौट आवेंगे। जबान से मीठा बोलेंगे तो कान से मीठा सुनेंगे। 'इस हाथ दे' उस हाथ ले' का सीधा सौदा दुनियाँ की हाट में बिका करता है। इस खेत में अपने बोये बीज अनेक गुने होकर उग जाते हैं। यदि आप इस तरह भाषण करते हैं, जो, दूसरों को आदर सूचक प्रतीत हो तो विश्वास रखिये, आप भी अपने लिए वैसा ही व्यवहार पावेंगे, जिसमें आदर- भाव की प्रर्याप्त मात्रा होगी। व्यवहार के साथ आचरण का भी सम्बन्ध हैं। केवल वाणी नहीं, आचरण में भी नम्रता, सृजनता और शिष्टता का सम्मिश्रण होना चाहिए। यथास्थान बिठाना, स्वागत करना, मिलने की प्रसन्नता प्रकट करना, शिष्टाचार और सभ्यता का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए ।। हँसी- मजाक का स्वभाव अच्छा है, पर उसमें ऐसी उद्दण्डता, उच्छृंखलता न होनी चाहिए, जो दूसरों को अपमानित करे, उनके ऊपर ऐसा प्रभाव डाले कि मुझे तिरस्कृत किया जा रहा है।

           ईमानदारी से चलने और मधुर भाषण एवं शिष्ट व्यवहार के आधार पर आत्म सम्मान का तीन चौथाई प्रश्न हल हो जाता है। जब अपनी ओर से बेईमानी या असभ्य व्यवहार का आरम्भ नहीं किया जाता तो संघर्ष के अवसर प्रायः बहुत कम आते हैं। बदले के रूप में जो झगडे़ उठ खडे़ होते हैं, उनकी मधुर व्यवहार के कारण जड़ ही कट जाती है। कहते हैं कि एक हाथ से ताली नहीं बजती, अपना पक्ष यदि स्वच्छ हो तो विपक्षी की झगडा़लू वृत्ति भी शान्त हो जाती है। ईंधन न मिलने पर अग्नि अपने आप बुझ जाती है। इसी प्रकार से लोग यदि बुरे स्वभाव के हों तो भी अपनी सृजनता के कारण उन्हें अनुचित व्यवहार करने का न तो अवसर मिलता है और न साहस होता है। इस प्रकार सत्तर- अस्सी प्रतिशत वे अवसर टल जाते हैं जिनमें पड़कर मनुष्य प्रायः अपमानित हुआ करता है।

अब एक चौथाई प्रश्न शेष रह जाता है। बीस- तीस प्रतिशत अवसर ऐसे लोगों की ओर से आते हैं, जिनकी वृत्तियाँ अत्यन्त क्रूर, शोषक और अन्याय ग्रस्त हो गईं हैं। किसी कमीने आदमी को धन, अधिकार, ऊँचा पद, शारीरिक बल, तेज, मस्तिष्क, कोई फायदेमन्द काम मिल आये तो उसका अहंकार अत्यन्त विकराल रूप से बढ़ने लगता है। उस बाढ़ में यदि कोई रोकथाम न लगे, नियन्त्रण न हो तो कुछ समय में ही वह इतना उग्र हो जाता है कि अपनी समता में किसी को भी नहीं ठहराता। शतरंज के खेल में प्यादा जब फर्जी हो जाता है तो वह टेढा़- टेढा़ चलने लगता है। नीच वृत्तियों के लोग अपनी औकात से अधिक सम्पदा प्राप्त करलें तो उनके घमंड का ठिकाना नहीं रहता। उस घमंड में उतावले होकर वे शिष्टाचार, सभ्यता और मनुष्यता तीनों को ही भूल जाते हैं और अज्ञानता के कारण या कभी- कभी बिना कारण भी दूसरों का अपमान करते हैं, क्योंकि उनमें सद्गुण तो होते नहीं, जिनके आधार पर सच्चा सम्मान प्राप्त कर सकें। आत्मा की भूख सम्मान प्राप्त करने की होती है। उसे बुझाये बिना चैन नहीं पड़ता, तब वे दूसरों का अपमान करके अपना बड़प्पन प्रकट करना शुरू करते हैं और बढ़ते- बढ़ते इतने आगे बढ़ जाते हैं कि दूसरों का अपमान करना उनके बायें हाथ का खेल हो जाता है। आदम खोर बाघ की दाढ़ में जब आदमी के खून का चस्का लग जाता है तो वह इस फिराक में लगा रहता है कि कहाँ आदमी पाऊं और कब अपनी लपक बुझाऊँ। ठीक इसी प्रकार की आदत उन कमीनों को पड़ जाती है, जब मौका पाते हैं, बिना उचित कारण दूसरों पर बरस पड़ते हैं और गुण्डेपन से उसकी इज्जत आबरू खराब करते हैं। ऐसे लोगों पर साधारण विनय, सभ्यता भलमनसाहत का कुछ प्रभाव नहीं पड़ता। या तो उन्हें पिघलाने के लिए असाधारण धैर्य वाला चिर तपस्वी आध्यात्मिक योगी चाहिए या फिर लात का जबाब घूंसे से देकर उन्हें झुकाया जा सकता है।

           इस प्रकार के उद्दण्ड और अहंकारी व्यक्ति आतंक फैलाकर उसका अधिक लाभ भी उठाते हैं। गरीब और निर्बल लोगों का शोषण करना- यह एक बे पूँजी का बहुत ही सरल तथा लाभदायक व्यवसाय साबित होता है। वे अपना आतंक जमाते हैं, अपने जैसे लोगों की गिरोहबन्दी करते हैं और उसे डरा धमकाकर साधारण श्रेणी के असंगठित लोगों को लूटते खसोटते हैं, हर स्थान पर ऐसे लोग मिल सकते हैं, जो आतंक के बल पर पेट भरते और सम्पत्ति जमा करते हैं। लडा़ई, झगडे़ मार- पीट, गाली- गलौच, चोरी- चारी करना- कराना इनके बाएं हाथ का खेल होता है, अपने पडौ़सियों को चैन से न बैठने देने में, उलझाये रखने में ही इनका चौधरीपन चल सकता हैं, अतऐव अपनी उपयोगिता कायम रखने के लिए नाना प्रकार के उपद्रवों की सृष्टि करते रहते हैं।

           तीसरे प्रकार के वे कपटी और मायावी लोग हैं जो धर्म की भलमनसाहत की, विद्वता की, बुजुर्गी की आड़ में छिपकर शिकार खलते हैं। सभ्यता उनमें होती नहीं इसलिए अपनी असभ्य एवं काली भावनाओं को धर्म, ईश्वर- भक्ति बुजुर्गी आदि का चोला पहनकर लोगों की आँखों में धूल झोंकते हैं और ऐसे विचार एवं कार्यों में प्रोत्साहन देते हैं, जिससे उनके व्यक्तिगत अहंकार की पूर्ति हो। भले ही उनकी क्रिया से किसी का कितना ही अनिष्ट क्यों न होता हो, किसी को कितना ही कष्ट क्यों न सहना पड़ता हो। बाहर से दया धर्म की चादर ओढ़कर अन्दर घोर पाषाण हृदय छिपाये रहते हैं, वह पाखंडी लोग बुरे से बुरे कर्म कर और करा सकते हैं, पर होने चाहिए वे पर्दे की आड़ में। यदि कोई अपनी अन्तर्वाणी को स्पष्ट रूप से प्रकट करे और वह इनकी कपटी चादर में छिपे हुए सिद्धान्तों के विपरीत पड़ते हों तो बस समझ लीजिए- अनर्थ उपस्थित कर देंगे। ऐसी चीख- पुकार मचावेंगे मानों सारी पृथ्वी की धर्म धुरी इन्हीं की छाती पर रखी हुई है और यदि ये उसे संभाले रहेंगे तो दुनियाँ से धर्म का लोप ही हो जायगा।

ऐसे लोग मानवीय स्वाभिमान के लिए एक चुनौती के समान हैं। इनकी प्रवृत्तियों को सहन कर लेने का अर्थ है, उनके कार्य में सहयोग देना। यह लोग साधारण तर्क, दलील, प्रमाण और प्रार्थना से पिघलते नहीं। रिश्वत देकर या तो इन्हें शान्त किया जा सकता है या फिर दंड देकर। उनका अन्याय सहन कर लेने या रिश्वत देकर शान्त करने से कुछ समय भले ही चल जाय पर कुछ समय बाद दूसरे रूप में या दूसरों पर उनका असुरत्व प्रकट होगा और फिर पूर्ववत् यन्त्रणाओं की सृष्टि होने लगेगी। पूर्ववत् ही नहीं पहले से भी अधिक तीव्र गति से, क्योंकि प्रत्येक सफलता के साथ उसकी हिम्मत, निरंकुशता बढ़ती जाती है। अन्याय और निरंकुश अहंकार के सामने आत्मसमर्पण कर देना बेइज्जति का दूसरा रूप है। बेईमानी का आचरण करके जिस प्रकार मनुष्य अपने स्वाभिमान को खो देता है, उस प्रकार अत्याचारी के आगे नाक रगड़ने से भी आत्मगौरव नष्ट होता है। आपके आत्म- समर्पण का परिणाम यह होगा कि अपना स्वाभिमान, साहस, तेज नष्ट हो जायेगा, बदनामी फैलेगी, लोग कायर और नपुंसक समझेंगे, आगे के लिए दिल कमजोर हो जायगा, निराशा, गिरावट और काहिली की हलकी सी सतह ऊपर छाने लगेगी, अपनी पराजय को देखकर दूसरे अनेक लोग भी उसी तरह डर जायेंगे, जो मानस- भूमिका में थोडे़ ही समय पूर्व जन्मे थे। और अपरिपक्व थे। अन्याय के आगे माथा टेक देने का परिणाम करीब- करीब उतना ही भयंकर होता है जितना कि स्वयं अन्याय करने का। सच तो यह है कि अन्याय सहने वाला अन्याय करने वाले से भी अधिक पापी है। कहते हैं कि- "जालिम का बाप बुजदिल" होता है। यदि अन्याय सहने के लिए लोग तैयार न हों, उसका विरोध प्रतिरोध करने को तत्पर हो जावें तो निस्संदेह जुल्मों का अन्त हो सकता है।

           हो सकता है कि आपको योग्य, सुसम्पन्न, बुद्धिमान देखकर व्यक्तिगत रूप से वे अधर्मी लोग कुछ रियायत करदें और संघर्ष की सम्भावना देखकर बचकर निकल जायें अथवा सहयोग प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष कृपा प्रदर्शित करें। उनकी इन चालों में फँस जाने का अर्थ अप्रत्यक्ष रूप से अपने आत्म गौरव को खोना है। ईश्वर ने आपको बल, बुद्धि, विद्या तथा योग्यता देते हुए यह जिम्मेदारी भी दी है कि अपने से अल्प- शक्ति वालों की इन योग्यताओं द्वारा रक्षा की जाय। केवल अपने व्यक्तिगत लाभ तक ही दृष्टि को सीमित रखना, मनुष्यता को कलंकित करना है। खजूर का वह पेड़ किस काम का जो खुद ही आकाश में चढा़ रहता है, पर उसकी छाया में बैठने का लाभ किसी को प्राप्त नहीं होता।

           अन्यायी और अत्याचारी की करतूतें मनुष्यता के नाम एक खुली चुनौती हैं जिसे वीर पुरुषों को स्वीकार करना ही चाहिए। अपने ऊपर न सही, दूसरे निर्दोष व्यक्तियों के ऊपर यदि अन्याय होता है तो उसका प्रतिरोध करना आवश्यक है। बुराई से लड़ना हर स्वाभिमानी का फर्ज है। आप अन्याय के साथ बहादुर सेनापति की तरह जूझ पडि़ये। बुद्धिमानी से हाथ पैर बचाकर पेंतरा बदलकर युद्ध करिये और एक योद्धा जिन कुशलताओं से काम लेता है, आप इनका प्रयोग कर सफलता को सरल बनाइये। साथ ही इसके लिए भी तैयार रहिए कि उस युद्ध में यदि जूझ जाना पडे़, सर्वस्व नष्ट हो जाय, वीरगति प्राप्त हो तो उसे हँसकर स्वीकार किया जाय, योद्धा के लिए विजय और वीरगति एक समान ही आनंददायी हैं, क्योंकि दोनों में ही एक समान आत्मगौरव की रक्षा होती है। विजयी वीरों के नाम इतिहास में गौरव के साथ लिखे हुए हैं, पर पराजित वीरों के नाम उनसे भी अधिक आदर के साथ स्वर्णाक्षरों में लिखे हुए हैं। ईसामसीह दुष्टों के आगे हार गया, वीर हकीकतराय, बन्दा वैरागी, राणाप्रताप, पराजित कहे जा सकते हैं, परन्तु जिनकी आँखें हों वह देखें कि वह पराजय, विजय से अधिक मूल्यवान है। उन महापुरुषों का आत्मगौरव इन पराजयों ने और भी चमका दिया। क्या वह पराजय विजय से कम महत्वपूर्ण है? अन्याय के विरुद्ध लड़ते रहना वास्तव में एक बडी़ ही सम्माननीय वीरोचित जीवन प्रणाली है, जिसे हर मनुष्य को अपने जीवन का अंग बना लेना चाहिए। संसार में अन्याय और जुल्मों की सृष्टि ईश्वर ने इसीलिए की है कि उनसे सुयोग्य मनुष्य अधिक उन्नति करें, अधिक आनंद पावें।

अखाडे़
में भारी- भारी पत्थर और मुन्दर इसलिये रखे जाते हैं कि इनसे जूझ- जूझ कर पहलवान लोग अधिक बलवान बनें। आपके आस- पास जो अन्याय, अत्याचार फैले पडे़ हैं उनसे लड़ पडि़येजूझिये, प्रतिरोध कीजिए, संघर्ष करिए और मिटाने के लिए हर संभव एवं उचित प्रयत्न को काम में लाइये कदाचित् आप अपने को अकेला एवं निर्बल अनुभव करते हों और परिस्थितिवश उस समय संघर्ष करने की अवस्था में न हों तो इतना अवश्य करिये कि अन्तःकरण को पराजित मत होने दीजिए। आत्म- समर्पण मत करिये। अन्याय के विरुद्ध घृणा रखिये, विरोध रखिये और लड़ने का अवसर तलाश करते रहिए, जब जितने अंशों में, जुल्म से विरोध करना सम्भव हो, करने में मत चूकिये। शारीरिक न सही तो मानसिक युद्ध अवश्य जारी रखिये। इस प्रकार एक योद्धा की तरह जीवन रूपी कर्मभूमी में अन्याय के विरुद्ध सदैव करते रहिए। यह आपके लिए प्रतिष्ठा की बात होगी। इस मार्ग में जो कष्ट प्रहार, आघात और घाव सहने पडेंगे, वह अपमान सूचक नहीं वरन् स्वर्ण पदकों के समान सुशोभित होंगे। इस संघर्ष में खाई हुई प्रत्येक चोट आपके आत्म सम्मान को अधिक ऊँचा उठाने वाली सिद्ध होगी।

           आत्म सम्मान की प्राप्ति और रक्षा के तीन उपाय हैं- () अपने विचार और व्यवसाय ईमानदारी से भरा रखिये। () अपने भाषण और व्यवहार को सादा और सभ्यता पूर्ण रखिये। () जुल्म और ज्यादती के खिलाफ धर्म युद्ध जारी रखिये। इस त्रिवेणी में स्नान करते हुए आप सच्चे आनन्द का लाभ करेंगे और मानव जीवन की सबसे बडी़ आत्मसम्मान की प्राप्ति और रक्षा में समर्थ हो सकेंगे।
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