प्रतिष्ठा का उच्च सोपान

पहला पाठ

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पहला पाठ
आत्म- सम्मान प्राप्त कीजिए, इज्जतदार जीवन बिताइये !

"तुम कुत्ते हो" ऐसा कडुआ वचन यदि कोई कहे तो जिससे कहा गया है, वह लड़ने मरने को तैयार हो जाएगा। इसे अपनी बेइज्जती समझेगा और बदला लेने पर तुल जायगा। किसी को 'कुत्ता' कहना भारतीय विचारधारा के अनुसार एक गाली है, जिसे कोई स्वाभिमानी सहन नहीं कर सकता।

           क्या आपने कभी विचार किया है कि एक सीधे साधे निर्दोष जानवर की उपमा दे देने से इतनी चिढ़ क्यों उत्पन्न होती है? कुत्ते में वैसे कोई खास बुराई नहीं मालूम होती। जो रूखा- सूखा मिल जाता है, उसी में संतोष कर लेता है। रातभर जागकर कडी़ मेहनत की चौकीदारी करता है। किसी को सताता नहीं, मालिक से मुहब्बत करता है, इतने गुण होने के कारण ही लोग उसे खुशी के साथ पालते हैं। यदि अवगुण अधिक होते तो उसे कोई पास भी खडा़ नहीं होने देता। श्रंगाल, भेडि़या आदि भी कुत्ते जाति के और उसी रंग रूप के हैं, पर वे मनुष्य के लिए, लाभ दायक नहीं हैं, इसलिये कोई उन्हें पालने का साहस नहीं करता। कुत्ता निस्संदेह कोई उत्तमगुण रखता है, तभी उसे पाला जाता है। तभी उसे पाला जाता है। वरना व्यापार कुशल मनुष्य उसे कभी अपने घर में स्थान न देता। इतना होने पर भी कोई खास त्रुटि उसके अन्दर मालूम पड़ती है, जिसके कारण कुत्ते से अपनी उपमा दिये जाने पर मनुष्य तिलमिला उठता है। घोडा़, हाथी, शेर, गाय, हिरन, खरगोश आदि भी जानवर हैं, उसी पशु जाति के हैं जिसका कि कुत्ता है। किसी को घोडा़, हाथी, शेर, गाय, हिरन, खरगोश की उपमा दी जाय तो वह इसे मनोरंजन समझकर हँसी में टाल देगा, परन्तु यदि 'कुत्ता' कहा जाय तो आग बवूला हो जायगा।
           जिस दोष के कारण कुत्ते को इतना नीच समझा जाता है कि उसकी तुलना अपने से होना गाली जैसी प्रतीत होती है, "आत्म सम्मान का अभाव"। कुत्ता रोटी के टुकडे़ के लिए दुम हिलाता है, मालिक के पैर चाटता है, हजारों बार अपमानित होने पर भी कुछ नहीं कहता। मनुष्य की अन्तरात्मा कहती है कि "बेइज्जती सहन करना" सबसे बडा़ असह्य आघात है। उसे कुत्ता सहन कर सकता है, मनुष्य नहीं। कहते हैं कि "तलवार का घाव भर जाता है, पर अपमान का घाव नहीं भरता" अपमानित होने की अपेक्षा लोग प्राण दे देना अच्छा समझते हैं। ठोकर खाकर साँप जैसा नाचीज कीडा़ बदला लेता है, चींटी जैसी तुच्छ हस्ती काट खाती है, मनुष्य भी स्वाभिमान की रक्षा के लिए सर्वस्व की बाजी लगा देता है। अपमानित करने वाले को नीचा दिखाने के लिए विवाद करता है, मुकदमा लड़ता है, लाठी चलाता है, खून बहाता है और जो कुछ उससे हो सकता है, सब कुछ करता है। मानव प्रकृति सब कुछ सहन कर सकती है, परन्तु अपमान का, बेइज्जती का घूँट गले से नीचे नहीं उतार सकती। मनुष्य इज्जतदार प्राणी है, बेइज्जत होना उसके आध्यात्मिक अधिकार पर कुठाराघात होना है। जिस रुपये, पैसे, घर जमीन, जायदाद पर अपना अधिकार है, उसे छिनाये जाने पर मनुष्य शक्ति भर विरोध करता है।

आत्मा का मूलभूत अधिकार सम्मान है। मछली स्वच्छ पानी में जीना चाहती है। धुँए में हमारा दम घुटता है और हम उस स्थान में रहना पसंद नहीं करते है, हमारा अन्तःकरण अपमानजनक स्थिति को सहन करने के लिए कदापि प्रस्तुत नहीं होता। जिनने अपने अन्तःकरण को कुचल- कुचल कर मृतप्राय बना डाला है, नित्य पद दलित कर करके अन्धा, गूँगा, बहरा बना लिया है, उसकी बात हम नहीं कहते। शेष वे लोग जिनमें जरा सा भी मनुष्यत्व बाकी है, बेइज्जती को पसंद न करेंगे और अप्रिय परिस्थिति का जितना विरोध कर सकेंगे, बच सकने का जितना प्रयत्न कर सकेंगे, करेंगे। यही कारण है कि मनुष्य कुत्ते से अपनी तुलना पसंद नहीं करता। किसी में चाहे कितने गुण क्यों न हों, परन्तु यदि वह अपने सम्मान की रक्षा नहीं करता तो घृणित, नीच, पतित और अधम समझा जायगा। इस सच्चाई को मनुष्य माँ के गृभ में सीखकर आता है। गुरु के उपदेश शास्त्र के आदेश को सुने बिना भी हर एक मनुष्य आत्म गौरव के सत्य सिद्धान्त को भली प्रकार जाँचता है। मनुष्यता के अत्यन्त आवश्यक एवं सर्वोपरि गुण को जब वह कुत्ते में नहीं देखता तो उसकी तुलना कराके अपनी बेइज्जति नहीं करना चाहता। 'कुत्ता' कहने को गाली समझने का यही कारण है।


आत्म गौरव की महत्ता पहली पुस्तक में प्रकट की जा चुकी है। गौरवशालिनी आत्मा निस्सन्देह सम्मान की पात्र है। सम्माननीय वस्तु को उसके अनुरूप स्थान देना उचित है। भोजन को पवित्र स्थान पर रखते हैं, पूजा की सामिग्री को रखने के लिए शुद्ध स्थान चुना जाता है, गुरुजनों को उच्च आसन देते हैं। कारण यह है कि आदरणीय, उत्तम और प्रतिष्ठित वस्तु को उच्च स्थिति में रखने की आवश्यकता सर्व विदित है। मानव- शरीर में प्रतिष्ठित गौरवशालनी आत्मा को सम्माननीय परिस्थिति में रखने की आवश्यकता से भी हमें परिचित होना चाहिए। जीवन धारण करने की शान इसमें है कि सम्मान के साथ जिया जाय, लोगों की दृष्टि में श्रद्धा और आदर का पक्ष बनकर रहा जाय।

           जीवन को सम्माननीय स्थिति में रखना सर्वोपरि सुखद अवस्था है, क्योंकि इसमें सुस्वादु और पौष्टिक, आध्यात्मिक खुराक प्रचुर मात्रा में प्राप्त होती है। सात्विक, पुष्टिकर आहार ठीक रीति से यदि प्राप्त होता जाय तो शरीर की बल वृद्धि होती है। स्फूर्ति आती है, अंग सुदृढ़ होते हैं, जीवनी शक्ति बढ़ती है और तेज बढ़ने लगता है। इसी प्रकार यदि आत्मसम्मान का सात्विक पोषण पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होता रहे तो मानसिक स्वास्थ्य की उन्नति होती है, बुद्धि बढ़ती है, सद्गुण विकसित होते हैं। कार्य- शक्ति उन्नति करती है और बडी़- बडी़ दुर्गम बाधाओं को पार करता हुआ वह सफलता के उन्नत शिखर पर तीव्र गती से बढ़ता जाता है।

          आपने देखा होगा कि आव- हवा में ऐसे तत्त्व होते हैं, जिनका स्वास्थ्य पर बडा़ भारी प्रभाव पड़ता है। किन्हीं स्थानों की जलवायु ऐसी स्वास्थ्यकर होती है कि बीमार आदमी अच्छे हो जाते हैं और अच्छों की तन्दुरुस्ती बढ़ती है। किन्ही स्थानों की जलवायु में ऐसे तत्व होते हैं कि वहाँ रहने से जीवनी शक्ति घटती है और बीमार पड़ जाने की आशंका बनी रहती है। समुद्र तटों पर तथा पहाडो़ं पर कुछ समय के लिए बडे़ लोग वायु सेवनार्थ जाया करते हैं ताकि उनका स्वास्थ्य सुधर जाय। जहाँ नमी और सील रहती है, वहाँ की तराइयों में अक्सर ज्वर जूडी़ और कै- दस्त की बीमारियाँ फैला करती हैं। एक पञ्जावी और एक बंगाली को पास- पास खडा़ करके यह स्पष्ट रूप से जाना जा सकता है कि जलवायु के अन्तर का स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है?
         
 मोटी दृष्टि से देखा जाय तो स्वास्थ्यप्रद और हानिकर स्थानों के पानी का रंग रूप तथा स्वाद एक ही तरह का मालूम पड़ता है। इसी प्रकार साँस लेने वाली हवा भी एक ही तरह की जान पड़ती है, मामूली परीक्षा करने वाला उस अन्तर को नहीं जान सकता। जबान से चखकर पानी का फर्क मालूम नहीं किया जा सकता और न नाक से सूँघकर हवा का अन्तर प्रकट होता है। साधारण बुद्धि उस फर्क को जानने में प्रायः असमर्थ ही रहती है। तो भी वह अन्तर अस्वीकार नहीं किया जा सकता। विवेक पूर्वक अन्य साधनों से परीक्षा करने पर वह अन्तर समझ में आ जाता है और अन्ततः यह मान लेना पड़ता है कि उन स्थानों की जलवायु में कुछ ऐसे तत्व अदृश्य रूप से मिले हुए हैं, जो तन्दुरुस्ती पर बडा़ भारी प्रभाव डालते हैं, अदृश्य और अगम्य होने पर भी उन तत्वों का होना इतना सत्य है, जितना कि दिखाई पड़ने वाले प्रकट पदार्थों का होना।
          
आत्म सम्मान और आत्म- तिरस्कार भी ऐसे ही दो परस्पर विरोधी भाव हैं, जिनका मानसिक स्वास्थ्य पर बडा़ भारी प्रभाव पड़ता है। लोगों के हृदय में से जब किसी के लिए श्रद्धा, आदर- भावना, मित्र- दृष्टि, मंगल- कामना, आशीर्वाणी उठती है तो वह उच्च कोटि के सात्विक एवं आनन्दमय तत्वों से भरपूर होती है। यह सद्भावनाऐं बिजली की लहरों की तरह आकाश के ईथर तत्व में प्रवाहित होती हुई उसी आदमी के पास जा पहुँचती हैं, जिसके लिए उनका जन्म हुआ था। बन्दूक की गोली निशाने पर लगती है, छोडा़ हुआ तीर अपने लक्ष पर पहुँचता है। गोली और तीर तो निशाना चूक सकते हैं परन्तु श्राप और वरदान की, तिरष्कार और सम्मान की, भलाई और बुराई की भावनाऐं कभी नहीं चूकतीं। जिसके लिए वे उत्पन्न हुई हैं, उसके पास निर्वाध गति से जा पहुँचती है। यही वह आहार है जिसके ऊपर आत्मिक स्वास्थ्य घटता बढ़ता है। किसान खेत में बीज बोता है, समय पर फसल कटती है और उसी अन्न से वह अपना पेट भरता है। गेहूँ बोया है तो गेहूँ खाता है, मक्का बोई है तो मक्का पर निर्वाह करता है। मनुष्य संसार रूपी खेत में कर्त्तव्य कर्मों का बीज बोता है और उस व्यवहार के कारण जो श्राप वरदान प्राप्त होते हैं, उसी आहार से आत्मिक भूख बुझती है। यदि दूसरों के साथ बुराई की गई है, तो वह मन ही मन तुम्हारे प्रति घृणा उगा लेगा। श्राप देगा, दुःखी होगा और तिरस्कार के भाव उत्पन्न करेगा। यह घृणा, श्राप, दुः़ख तिरस्कार मिलकर जब सामने आवेंगे और अपनी कमाई हुई इस फसल पर ही आत्मिक भूख बुझाने को विवश होना पडे़गा, तब यह तामसी अखाद्य और विषैला अदृश्य आहार वैसा ही प्रभाव करेगा जैसा कि ताराइयों का जलवायु हानिकर असर करता है। धुऐं से भरे हुए स्थान पर सुखपूर्वक नहीं रहा जा सकता, इस प्रकार यदि चारों ओर से उड़- उड़ कर श्राप तिरष्कार की भावनायें आती रहें तो उस अनिष्टकर वातावरण में सांस लेते ही एक दिन आत्मिक स्वास्थ्य नष्ट होकर मानसिक रोगों की भरमार हो जायगी

           अशान्ति, बेचैनी, झुंझलाहट, चिड़चिड़ापन, उदासी, निराशा, क्षोभ, असन्तोष, ग्लानि, चिन्ता, भय, आशंका यह सब "तिरस्कार" नामक मानसिक रोग के लक्षण हैं। जिसने दूसरों के साथ अनुचित व्यवहार किये हैं, दूसरे के हृदयों में अपने लिए घृणा उपजाई है और सम्बन्धित लोगों के मन में तिरस्कार का पात्र बना हुआ है, वह कभी शान्त चित्त न रह सकेगा और मानसिक स्वस्थ्ता के द्वारा मिलने वाले आनन्द का उपभोग कर सकेगा। उसे उपरोक्त मानसिक विक्षोभ सदैव पीडि़त किये रहेंगे और एक क्षण के लिए भी सन्तोष की साँस न लेने देंगे। रोगी कभी कराहता है, कभी चिल्लाता है, कभी हड़फूटन बताता है, कभी- कभी सिर दर्द से बेचैन होता है। उसे न रात को चैन पड़ता है न दिन को। इसी प्रकार तिरस्कारपूर्ण दुर्भावों के रोग जिस पर हर घडी़ आक्रमण कर रहे हैं, वह मानसिक रोगी बडी़ दुखदायी एवं दयनीय स्थिति में निर्वाह करता है। भले ही उसके पास ढेर की ढेर धन- दौलत जमा हो, भले ही- शानदार महल, बढि़या वस्त्र, स्वादिष्ट भोजन का उपभोग करता हो, परन्तु सचमुच देखा जाय तो वह एक गरीब मजदूर से भी बुरा जीवन व्यतीत करता है। जो शान्तिदायक नींद गरीब मजदूर सोता है, वह उस रोगी और अमीर का नसीब नहीं हो सकती। शरीर का रोगी होना जीवन का अभिशाप है। जिसने अपना मानसिक स्वास्थ्य नष्ट कर डाला समझिए कि उसने अमृत को नाली में बहाकर बरबाद कर दिया।

दूसरों के मन में यदि आपके लिए आदर है, सम्मान है, सद्भाव है तो वे ऐसी शीतल, शान्तिदायक, आनन्दमयी विद्युतधारा अदृश्य रूप से प्रवाहित करेंगे, जो आप तक पहुँचते- पहुँचते ऐसी स्वास्थ्यप्रद बन जायेगी, जैसी समुद्रतट एवं पर्वतीय प्रदेशों की जलवायु। जिसने किसी से अनुचित व्यवहार नहीं किया, ठगा नहीं, अनिष्ट नहीं किया, धोखा नहीं दिया वह कभी दुःखी, उदास और असन्तुष्ट दिखाई न देगा, क्योंकि उसका अन्तःकरण जानता है कि मैंने अखाद्य नहीं खाया है, अकर्म नहीं किया है, अधर्म नहीं फैलाया है, अनर्थ नहीं बढा़या है। मन से, वचन से, कर्म से जिसने दूसरों का हित चाहा है, स्वार्थ की अपेक्षा परर्माथ को प्रधानता दी है। नम्रता उदारता, प्रेत भलमनसाहत, ईमानदारी का व्यवहार करके सम्बन्धित लोगों को सन्तुष्ट रखा है, वह सच्चा सम्मान का पत्र है। अपनी दृष्टि में जैसा कि वह वास्तव में है कुछ लोग भी उसे वैसा ही समझेंगे जैसा कि वह वास्तव में है कुछ लोग कुछ समय के लिए भ्रम में रह सकते हैं, पर अन्त में सच्चाई प्रकट होती ही है, भला आदमी सदैव भला रहेगा। उसे अपने आप से और दूसरों से सच्चा सम्मान प्राप्त होगा, वह सम्मानपूर्ण वातावरण उसके मानसिक स्वास्थ्य की पुष्टि करेगा। प्रसन्नता, सन्तोष, शान्ति, स्थिरता, आनन्द से उसका चित्त उमंगें लेता रहेगा। यह जीवन ही उसके लिए स्वर्ग होगा, भले ही वह धन दौलत की दृष्टि से गरीब बना रहे।

           महात्मा इमरसन कहा करते थे कि अपमान पूर्वक हजार वर्ष जीने की अपेक्षा सम्मान के साथ एक घडी़ भर जीना अच्छा है, सचमुच जिन्दगी का आनन्द गौरव के साथ सम्मान के साथ, स्वाभिमान के साथ जीने में है। इस बात को भली प्रकार समझ लीजिए कि यदि आपके अन्तःकरण में सजीवता मौजूद है, तो वह आत्म सम्मान की प्राप्ति के लिए सदैव लालायित रहेगा। इज्जतदार जिन्दगी बशर करना चाहेगा और कमियों को किसी प्रकार बर्दाश्त किया जा सकता है पर जागृत हृदय इज्जत का अभाव सहन नहीं कर सकता है। यह भूख आध्यात्मिक है स्वाभाविक है, ईश्वरदत्त है। पेट की भूख बुझाने के लिए हम उद्योग करते हैं, आत्मा की भूख बुझाने के लिए, सम्मान, सम्पादन करने का प्रयत्न करना भी कर्त्तव्य है। इस कर्त्तव्य को पालन करके ही हम आत्मिक बेचैनी से छुटकारा पाकर तृप्ति लाभ कर सकते हैं।
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