प्रज्ञोपनिषद -2


एक बार मुनि मनीषियों का एक उत्तम ज्ञान संगम नैमिषारण्य क्षेत्र में हुआ, जो अपने आप में बड़ा अद्भुत था। आर्यावर्त, ब्रह्मावर्त, काशी, कपिलवस्तु, पाटलिपुत्र आदि समीपवर्ती क्षेत्रों के सभी मूर्द्धन्य उत्तम जीवनयापन करने वाले प्रज्ञा पुरुष उसमें एकत्र हुए॥ १- ३॥
ज्ञान संगम इस भूमि की, ऋषि युग की विशेषता रही है। ज्ञान की अनेक धाराएँ हैं। अपने- अपने विषयों के विशेषज्ञ उन्हें समयानुरूप विकसित करते रहते हैं। विकसित धाराओं का उपयोग जनहित के लिए किया जाता है। वह तभी संभव है, जब भिन्न- भिन्न धाराओं में हुए विकास को जन आवश्यकता के अनुरूप मिलाकर जन साधारण तक पहुँचाने योग्य बनाया जाए। प्राचीनकाल में अध्यात्म और इस युग में विज्ञान का विकास इसी ढंग से संभव हुआ हे।
ज्ञान धाराओं का संगम तब संभव हो पाता है, जब उन्हें समझने और अपनाने वाले मूर्द्धन्य श्रेष्ठ व्यक्ति उसमें रुचि लें। जिन्होंने उन्हें विकसित किया, ऐसे प्रज्ञा- पुरुष, और जिन्होंने उन्हें जीवन सिद्ध बनाया, ऐसे उत्तम जीवन जीने वाले अग्रगामी दोनों ही प्रकार के सत्पुरुष इस संगम में एकत्रित हुए हैं।
औषधियाँ बनाई जाती हैं फिर उन्हें निश्चित क्षेत्र में प्रयुक्त किया जाता है। सेना के लिए अस्त्र विकसित किए जाते हैं, कुशल व्यक्ति यों द्वारा उनका प्रयोग- परीक्षण किया जाता है। उनके आधार पर विकसित करने वाले तथा प्रयोग करने वाले गंभीर परामर्श करते हैं, संशोधन करते हैं, तब वह संगम बनता है, जिससे व्यापक स्तर पर उन उपलब्धियों को व्यवहार में लाया जा सके।

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