प्रज्ञोपनिषद -3
एक बार पुण्यदायी कुंभपर्व पर हरिद्वार क्षेत्र में विशाल पर्व स्नान
का धर्म समारोह हुआ। देश- देशांतरों से अगणित सद्गृहस्थ उस अवसर पर पुण्य-
लाभ पाने के लिए एकत्रित हुए। साधु- संतों को भी परस्पर मिल- जुलकर सामयिक
परिस्थितियों के संदर्भ में उपाय खोजने थे, साथ ही अपने संपर्क क्षेत्र के
लोगों की समस्याएँ सुलझाने एवं सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने के संदर्भ में
राष्ट्र कल्याणकारी मार्गदर्शन भी करना था। भागीरथी के तट पर अपार भीड़ थी,
तीर्थ आरण्यकों और देवालयों में पहुँचकर धर्म- प्रेमी उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ
प्राप्त कर रहे थे॥ १- ६॥
कुंभ आदि पर्वों पर
तीर्थस्थानों पर भारी संख्या में संतों और गृहस्थों के संगम होते रहने के
प्रमाण स्थान- स्थान पर मिलते रहते हैं। मोटी मान्यता यह है कि समय विशेष
पर स्नान आदि का विशेष पुण्य प्राप्त करने के लिए ही लोग पहुँचते हैं। वह
भी एक पुण्य हो सकता है, किंतु प्रस्तुत संदर्भ में अनेक महत्त्वपूर्ण
उद्देश्यों की चर्चा की गई है।
अनादिकाल से ऋषियों का संतों का एक
देशव्यापी तंत्र कार्य करता रहा है। अपनी- अपनी साधनाओं से उपलब्ध
महत्त्वपूर्ण सूत्रों का एकीकरण, बदलती परिस्थितियों के अनुरूप धर्मतंत्र
के क्रियात्मक सूत्रों का निर्धारण, सामाजिक राष्ट्रीय समस्याओं के संदर्भ
में सर्वसम्मत हल तथा तदनुरूप मार्गदर्शन की व्यवस्था जैसे महत्त्वपूर्ण
पुण्यदायी कार्य ऐसे अवसरों पर किए जाते थे। इनका लाभ जनसामान्य भी उठाते
थे और जन- जन तक पहुँचाने का क्रम भी चलता रहता था।
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