प्रज्ञोपनिषद -4

अध्याय -2

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वर्णाश्रम- धर्म प्रकरण
द्वितीये दिवसे चाद्य सत्रस्यास्यास्तु संस्कृते:।
उत्साह: संगतानां स संतोष: श्लाघ्यतां गतौ॥ १॥
द्वितीयस्थ दिनस्याथ सत्रं शिक्षणदं शुभम्।
प्रारब्धं बोधयन् सर्वान् विदुषोऽध्यक्ष आलपत्॥ २॥

टीका—आज संस्कृति सत्र का दूसरा दिन सम्मिलित होने वालों का उत्साह और संतोष देखते बनता था। दूसरे दिन का सत्र शिक्षण आरंभ हुआ। सभी विद्वानों को संबोधित करते हुए सभाध्यक्ष कात्यायन बोले॥ १- २॥
कात्यायन उवाच
धर्मलग्ना: साधका हे भारतोत्पन्नसंस्कृते:।
विद्यते मेरुदंडस्तु धर्मो वर्णाश्रमानुग: ॥ ३॥
ब्राह्मण: क्षत्रियो वैश्य: शूद्रश्चेति चतुर्विध:।
वर्णोऽस्ति संति चत्वार आश्रमा: क्रमशस्त्विमे॥ ४॥
ब्रह्मचर्यं गृहस्थो स वानप्रस्थोऽथ शोभन:।
संन्यासश्चेति सर्वेऽपि परस्परगता इव॥ ५॥
विभाजनमिदं देवसंस्कृतेरनुयायिभि: ।।
स्वीकार्यं स महत्त्वं च विचार्यमपि संततम्॥ ६॥
अस्योपयोगितायां तु सगांभीर्यं च गौरवे।
अद्य मुख्यश्च जिज्ञासुरभूदारण्यको मुनि:॥ ७॥
विशेषेण तमेवाथ संबोध्याध्यक्ष उक्तवान्।
कात्यायनो महर्षिस्तु ज्वलन् स ब्रह्मतेजसा॥ ८॥
गुणकर्मस्वभावानामाधारेण विभाजनम्।
वर्णानां भवति प्रायो जन्मना न महत्त्वगम्॥ ९।
कर्मकौशलगं चैतन्मंतव्य: जन्मनैव चेत्।
मन्यते कर्म नैवं चेद् वंध्यवृक्ष इव स्मृत: ॥ १०॥
महत्त्वेनाभियोज्याश्च सर्वे चत्वार एव तु।
कर्तुं नियोजितामत्र व्यवस्थां तु समाजगम्॥ ११॥
श्रेय: सम्मानमप्येते लभन्तां वर्णसंगता:।
पुरुषा अत्र नो ग्राह्यो भावोऽयमुच्चनीचयो:॥ १२॥

टीका—कात्यायन बोले हे धर्म परायण सद्ज्ञान साधको भारतीय संस्कृति का मेरुदंड वर्णाश्रम धर्म है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र यह चार वर्ण हैं और ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास यह चार आश्रम, जो परस्पर क्रमबद्ध हैं। देवसंस्कृति के अनुयायियों को, इस विभाजन को समुचित महत्व देना चाहिए और उनकी उपयोगिता- आवश्यकता एवं गरिमा पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। आज के प्रमुख जिज्ञासु मुनिवर आरण्यक थे, उन्हीं को विशेष रूप से संबोधित कर ब्रह्मतेज से दुर्धर्ष सत्राध्यक्ष कात्यायन ने कहा वर्णों का विभाजन गुण- कर्म के आधार पर होता है। यह वर्गीकरण जन्मजात रूप में महत्वपूर्ण नहीं है। इन्हें कर्म- कौशल के अनुरूप समझा जाना चाहिए। यदि जन्म से किसी वर्ण में है, पर कर्म तदनुकूल नहीं है, तो वह बाँझ- वृक्ष के समान है। समाज- व्यवस्था को सुनियोजित रखने के लिए इन चारों को की महत्व मिलना चाहिए। इन सभी वर्णों के लोगों को समान- श्रेय सम्मान मिलना चाहिए। इनमें छोटे बड़े या ऊँच- नीच जैसे भेद- भाव नहीं बरतने चाहिए॥ ३- १२॥

देवसंस्कृति को अनायास ही सर्वश्रेष्ठ होने का सुयोग नहीं मिला। इसके अंतर्गत हुए समाजपरक सभी निर्धारण ब्रह्मवर्चस् संपन्न दूरद्रष्टा ऋषियों की अन्वेषण बुद्धि के परिणाम हैं। ऋषिगणों ने वर्ण एवं आश्रम के रूप में समुदाय एवं वैयक्ति क जीवन का चार वर्गों में विभाजन किया है, वह सर्वकालीन, सार्वभौम एवं हर परिस्थितियों में सत्य की कसौटी पर उतरने वाला है। सुव्यवस्थित समाज, जिसमें सभी के लिए उनके कर्मों के अनुरूप उत्तरदायित्वों का निर्धारण किया गया हो, सांस्कृतिक सुदृढ़ता एवं एकता के लिए उत्तरदायी है। यह पूर्व निर्धारित सुनियोजन देवसंस्कृति की ही विशेषता है। एवं इसी कारण यह मानवी गरिमा की ज्ञान- गंगा आदि काल से प्रवाहित होती चली आई है।

भारतीय धर्म को वर्णाश्रम धर्म कहा गया है। चार वर्णों से तात्पर्य है क्रिया- कलापों में उच्चस्तरीय प्रयोजनों के लिए निर्धारण। चार आश्रमों से तात्पर्य है, आयुष्य का भौतिक एवं आत्मिक उद्देश्यों के लिए सुनियोजन। यह विभाजन बड़ा ही वैज्ञानिक, प्रगतिशील और उपयोगी रहा है। चार वर्णों में विभाजित ऋषि कालीन समुदाय एक आर्य जाति के सूत्र में आबद्ध था। सब आर्य थे और सबको समान अधिकार मिले हुए थे। यदि यह विभाजन ऊँच- नीच अथवा छोटे- बड़े के आधार पर हुआ होता, तो संभवत: समाज का कोई भी सदस्य इसे मानने को तैयार न होता। यदि जोर- जबरदस्ती के आधार पर किया गया होता, तो संभवत: विद्रोह पनप उठता एवं भयानक गृहयुद्ध होता। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए महर्षि कात्यायन यहाँ समझाते हैं कि ऋषियों द्वारा स्थापित इस विज्ञान सम्मत वर्ण व्यवस्था का निर्धारण बड़ा सोच- समझकर सर्वसम्मति से हुआ था। इस सर्वसम्मत विधान को सारा समाज शिरोधार्य करता हुआ अपना कर्त्तव्य करता चला आया। वस्तुत: संस्कृति की यह सर्वश्रेष्ठ अवधारणा वर्ण- व्यवस्था सामाजिक विघटन का कारण नहीं है। इसका कारण तो वे विकृतियाँ हैं, जो वे कालांतर में उपद्रवों, आक्रमणों एवं सामाजिक अस्त- व्यस्तता के कारण उत्पन्न हो गई एवं मध्यकाल में निवारण हेतु जिनके लिए नहीं के बराबर प्रयास हुए।

आदिकालीन भारतवर्ष में आर्यों की अपेक्षा अनार्यों की संख्या अधिक रही है जहाँ आर्य सृजनात्मक विचारधारा के अनुरूप कर्म करते हुए सभ्य, सुसंस्कृत विकासोन्मुख व उन्नत समाज का निर्माण करते हुए एक स्थायित्व लाने का प्रयास करते थे, वहाँ लूटमार करके अपनी आजीविका चलाने वाले अनार्य आए दिन उन पर आक्रमण कर दिया करते थे। उनका सामना करने हेतु सारे आर्य समुदाय को निर्माण कार्य छोड़कर युद्ध में लग जाना पड़ता था और इस प्रकार सभी बनी- बनाई व्यवस्था बिगड़ जाती थी। फिर नए सिरे से काम शुरू करना पड़ता था। खेत उजड़ जाते थे, शिल्प नष्ट हो जाते थे और योजनाएँ बिगड़ जाती थीं। साथ ही सैकड़ों महान मस्तिष्क कटकर रणभूमि में गिर जाते थे, जिससे इनमें चल रही विकास की विचारधाराएँ जहाँ की तहाँ समाप्त हो जाती थीं। इस प्रकार आए दिन बड़ी- बड़ी हानियाँ होती रहती थीं। जितना आगे बढ़ पाते थे, उतना ही पीछे हट जाना पड़ता था।

निदान अनार्यों की इस बर्बरता से परेशान होकर समाज के मनीषी महात्माओं ने गहराई से विचार कर इस समस्या का कोई स्थायी हल निकालने का निश्चय किया।

अस्तु उन्होंने विचार किया और समाज को चार वर्णों के नाम से चार वर्गों में विभक्त कर दिया। एक वर्ग में उन्होंने वे व्यक्ति रखे, जो चिंतनशील स्वभाव के थे और अध्ययन एवं अध्यापन, समाजसेवा एवं लोक नेतृत्व में जिनकी रुचि सर्वोपरि थी। इस वर्ग को उन्होंने ब्राह्मण कहा। दूसरे वर्ग में वे लोग लिए गए, जो स्वभाव से दुर्धर्ष और साहसी थे। शरीर से अपेक्षाकृत हृष्ट- पुष्ट और संग्राम कार्य में जिनकी रुचि सर्वोपरि थी। इनको क्षत्रिय कहा गया। तीसरे वर्ग में वे शामिल किए गए, जो स्वभाव से उत्पादक, संगठनकर्ता, मितव्ययी, शांत और सहिष्णु थे। कृषि एवं वाणिज्य व्यवसाय में वैश्य बताया गया। चौथे वर्ग में उन सब लोगों को रखा गया, जो अविशेष स्वभाव, साधारण रुचि और सामान्य शिल्प के थे और जो उपर्युक्त तीनों में से किसी में भी समस्थ न हो सकते थे, इनको शूद्र की संज्ञा दी गई।

यह समग्र विभाजन गुण, कर्म, स्वभाव के अनुरूप हुआ। जन्म से तो सभी शूद्र अर्थात् अनगढ़ होते हैं। बड़े होने पर उनकी भावना एवं निर्धारण के अनुरूप वर्ण एवं आश्रम का निर्धारण होता है। जन्म से किसी भी वर्ण में हो, पर यदि कर्म उस निर्धारण के प्रतिकूल है, तो उस व्यक्ति का कार्य के अनुरूप ही मूल्यांकन होगा। संस्कार ही वर्ण निर्धारण करते हैं।

विडंबना यह है कि आज मात्र वैश्य वर्ण और गृहस्थाश्रम की प्रमुखता है। शेष वर्ण और आश्रम तो विस्मृति के गर्त में चले गए। आवरण धारण कर लिए जाते हैं, पर उनके साथ जुड़े कर्तव्यों की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता। वर्ण के तो वंश साथ जुड़ गए एवं आश्रम धर्म लुप्त हो गया।

जैसा स्पष्ट है, लोकशिक्षण में संलग्न समुदाय को ब्राह्मण कुकर्मों के कुप्रचलनों के विरुद्ध जूझने वालों को क्षत्रिय उपार्जन का दायित्व सँभालने एवं समाज को भौतिक दृष्टि से सुसंपन्न बनाने वालों को वैश्य और श्रमिक समुदाय को शूद्र कहा गया है। इन चारों का ही समान महत्व और समान गौरव- सम्मान है।

जब सौ वर्ष की आयु थी, तब २५ वर्ष ब्रह्मचर्य और २५ वर्ष गृहस्थ में लगते थे। यह पूर्वार्द्ध निजी जीवन था। उत्तरार्द्ध में २५ वर्ष वानप्रस्थ परिब्राजक बनकर और २५ वर्ष स्थान विशेष पर आश्रम संचालन में लगते थे। यह संन्यास था। जो इनकी मर्यादाओं का पालन करे, उसी का
वर्णाश्रम धर्म पालन सच्चा है। वंश के आधार पर, वर्ण और वेष के आधार पर आश्रम की कल्पना सर्वथा अवास्तविक है।

वाल्मीकि नीच कुल में उत्पन्न होने पर भी महान ऋषि कहलाए और रावण कुंभकरण आदि ब्राह्मण परिवार में जन्मने पर भी नीच कहलाए व तिरस्कृत हुए। इन दिनों जन्म से वर्ण बनाने का और विशेषतया एक दूसरे को नीच- ऊँच मानने का प्रचलन सर्वथा अनुपयुक्त है। यह मध्यकालीन सामंतवादी अंधकार युग के प्रचलन हैं, जिसमें समर्थों को सम्मानित और असमर्थों को अपमानित किया जाने लगा ही। स्त्री और शूद्र, प्रतिशोध लेने की क्षमता न होने से नीच माने गए। यह प्रचलन समाज के नाम पर कलंक है एवं संस्कृति के स्वरूप को मलीन करने वाला। समय की माँग है, कि इसे उलटा जाए एवं पुन: उस शाश्वत- जाज्वल्यमान स्वरूप को सामने लाया जाए।
आश्रमोऽस्ति विभाग: स जीवनक्रमगो ध्रुवम्।
अस्य स्वीकरणाद्व्यक्ति : सुखं याति समुन्नतिम्॥ १३॥
समाजश्चापि नो रुद्धो जायते प्रगतिक्रम:।
सदा सन्तुलनं चात्र तिष्ठत्येव निरंतरम् ॥ १४॥
आत्मिक्या: प्रगतेस्तत्र भौतिक्याश्चाप्यपावृतम्।
द्वारं तिष्ठति संभक्ता चतुर्धा जीवनावधि:॥ १५॥
एते चत्वार आख्याता आश्रमा यत्र च क्रमात्।
शक्ति विद्यासु संस्कारोपार्जनं प्रथमं भवेत् ॥ १६॥
ब्रह्मचर्य इति ख्यात: संयमो यत्र पूर्णत:।
मात्रं कामपरित्यागं ब्रह्मचर्यं वदंति न ॥ १७॥

टीका—आश्रम जीवन क्रम का विभाजन है। इसे अपनाने से व्यक्ति सुखी और समाज समुन्नत रहता है। प्रगति क्रम रुकने नहीं पाता। संतुलन बना रहता है। भौतिक और आत्मिक प्रगति के दोनों ही द्वार खुले रहते हैं। जीवन अवधि को, चार भागों में विभाजित किया है। यही चार आश्रम हैं। प्रथम चरण में बलिष्ठता, विद्या और सुसंस्कारिता का उपार्जन होना चाहिए। यही ब्रह्मचर्य है, मात्र कामसेवन न करने को ही ब्रह्मचर्य नहीं कहते॥ १३- १७॥

दूरदर्शी ऋषियों ने चार आश्रमों में जीवन को पूर्वाद्ध- उत्तरार्द्ध में बाँटा है। आयुष्य के पूर्वार्द्ध में समर्थता एवं समृद्धि को बढ़ाने के लिए ब्रह्मचर्य एवं गृहस्थ, इन दो आश्रमों का प्रावधान है। उत्तरार्द्ध में वानप्रस्थ एवं संन्यास ये दो आश्रम आते हैं। इसमें भावना क्षेत्र को अधिक उत्कृष्ट बनाने तथा समय और श्रम को लोकमंगल में नियोजित रखने के लिए परंपरा बनाई गई है। जीवन को सर्वांगपूर्ण बनाने के लिए देव संस्कृति के ये निर्धारण बड़े महत्वपूर्ण मानने चाहिए। लौकिक प्रगति एवं आत्मिक उत्कर्ष दोनों ही प्रयोजन इस विभाजन से पूरे होते हैं। यह विशेषता हमें कहीं देखने को नहीं मिलती।

गृहस्थश्चापरो पादो मात्रमुद्वाह एव न ।।
गृहस्थ: प्रोच्यतेऽप्यत्र संस्था तु परिवारगा॥ १८॥
समर्था सफला चापि क्रियते चेत्तदैव तु।
गृहस्थ: प्रोच्यते यत्र वर्गे निर्वाह आदृत: ॥ १९॥
स एव परिवारश्च सदस्यास्तत्र दुर्बला:।
पोष्यास्तु सबला ये च विधातव्यास्तु ते स्वयम्॥ २०॥
स्वावलंबिन एवं च संस्कारपरिसंस्कृता: ।।
सहकारगताश्चापि, विद्यालय इहोच्यते॥ २१॥
परिवारस्य संस्थाया अस्योद्देश्यतया मता।
समुन्नतिस्तथा चैषा भावना विकसिता भवेत्॥ २२॥
वसुधैव कुटुंबस्य भावनायां निरंतरम्।
समाजरचनायाश्च साऽऽधारत्वेन सम्मता॥ २३॥
पारिवारिकतैवैषा या विकास्या च सर्वत:।
प्रत्येकं मनुजस्तिष्ठेत्सदस्यत्वेन सम्मत: ॥ २४॥
विश्वव्यापिकुटुंबस्य स्वं च मन्येत स स्वत:।
संपूर्णस्य समाजस्याविच्छिन्नं चांगमुत्तमम्॥ २५॥

टीका—दूसरा चरण गृहस्थ है। गृहस्थ धर्म के पालन का अर्थ केवल विवाह करना नहीं, परिवार संस्था को समर्थ और सफल बनाना है। जिस समुदाय के बीच निर्वाह चलता है, वह परिवार है। परिवार के असमर्थ सदस्यों का भरण- पोषण और समर्थ सदस्यों को स्वावलंबी, सुसंस्कारी एवं सहकारी बनाने की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। परिवार को सुसंस्कारिता की पाठशाला माना गया है। उसका उद्देश्य परिवार संस्था को समुन्नत बनाना है। यह पारिवारिकता वसुधैव कुटुंबकम् की भावना में विकसित होनी चाहिए। समाज सरंचना का आधारभूत उद्देश्य पारिवारिकता ही है। इसे हर क्षेत्र में विकसित होना चाहिए। हर व्यक्ति विश्व- परिवार बन कर रहे। अपने को पूरे समाज का एक अविच्छिन्न अंग माने॥ १८- २५॥

ऋषियों द्वारा निर्धारित विद्या एवं बल संपादन हेतु नियोजित ब्रह्मचर्य की अवधि के पश्चात् व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। यह मात्र दो कायाओं का गठबंधन ही नहीं, सुसंस्कारिता उपार्जन की प्रयोगशाला भी है, जिसमें सभी पारिवारिक जनों के साथ रहते हुए सहकारिता, अध्यवसाय एवं आत्मावलंबन का प्रशिक्षण लिया जाता है। वस्तुत: परिवार समस्त मानव समुदाय के रूप में फैले स्रष्टा के वृहत परिवार की एक छोटी इकाई है। हर मनुष्य मात्र अपने परिवार तक ही सीमित न रहकर चिंतन को वृहत् विस्तार दे एवं विराट् विश्व को अपना कार्यक्षेत्र माने, पारिवारिक भावना का विस्तार कर इस उद्यान को समुन्नत बनाए, ऐसी ऋषिगणों की इच्छा रही है। गुरुकुल से लेकर संयुक्त कुटुंब तक में इसी भावना  के विकास का प्रावधान है। इसी कारण परिवार संस्था को सम्मानित किया गया है। गृहस्थ- धर्म अन्य सभी धर्मों से अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। महर्षि व्यास के शब्दों में गृहस्थ्येव हि धर्माणां सर्वेषां मूलमुच्यते गृहस्थाश्रम ही सर्व धर्मों का आधार है। धन्यो गृहस्थाश्रम: चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम धन्य है। जिस तरह समस्त प्राणी माता का आश्रय पाकर जीवित रहते हैं, उसी तरह सभी आश्रम गृहस्थाश्रम पर आधारित हैं।  श्रीराम को गृहस्थाश्रम की श्रेष्ठता बताते हुए चित्रकूट में भरत जी कहते हैं |

धर्मेण चतुरो वर्णान्पालयन् क्लेशमाप्नुहि।
चतुर्णामाश्रमाणां हि गार्हस्थ्यं श्रेष्ठमाश्रमम्॥

धर्मानुसार ब्राह्मणादि चारों वर्णों के पालन करने का कष्ट आप स्वीकार कीजिए, क्योंकि हे धर्मज्ञ चारों आश्रमों में गृहस्थ आश्रम ही धर्मज्ञशील लोग सर्वोत्तम बतलाते हैं।

यौवने योजनास्याच्च भौतिकोत्पादनस्य सा।
प्रगतेश्चापिस्वस्थाऽस्ति स्वावलंबनसंस्थिते: ॥ २६॥
सार्वभौमसमृद्धेश्च समय: शुभ एष तु ।।
उपयोगिश्रमासकत्तों  समृद्ध्यै भाव्यमेव च ॥ २७॥
प्रयासोऽयं गृहस्थस्य धर्मस्यैवांगतां गत:।
जीवनस्यार्धमस्त्येतद् भौतिकेभ्यस्तु निश्चितम्॥ २८॥
प्रयोजनेभ्य एवापि स्वार्थपारार्थ्यहेतवे ।।
ब्रह्मचर्ये गृहस्थे च परेषामात्मनस्तथा ॥ २९॥
शारीरिक्यास्तथा तस्या मानसिक्या अपि त्विह।
सामाजिक्यास्तथाऽऽर्थिक्या: समृद्धि: क्रियतेऽभित:॥ ३०॥
निश्चितं शेषमर्धं च परमार्थस्य वृद्धये।
भावनायाश्चरित्रस्य सत्प्रवृत्तेश्च वृद्धये॥ ३१॥

टीका—युवावस्था में भौतिक उत्पादन और प्रगति की योजना सामने रहनी चाहिए। अपने स्वावलंबन और सार्वजनिक समृद्धि के संवर्द्धन का ठीक यही समय है। उपयोगी श्रम में संलग्न रहकर व्यापक समृद्धि के लिए प्रयत्नरत होना चाहिए। यह प्रयास गृहस्थ धर्म का ही अंग है। आधा जीवन भौतिक प्रयोजनों के लिए और स्वार्थ- परमार्थ प्रयोजनों के लिए निर्धारित है। ब्रह्मचर्य और गृहस्थ में अपनों तथा अन्यान्यों को शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा आर्थिक समृद्धि का सर्वतोन्मुखी संवर्द्धन किया जाता है। शेष आधे जीवन को पारमार्थिक, भावनात्मक, चारित्रिक एवं सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन के लिए नियोजित रखा जाता है॥ २६- ३१॥

जहाँ गृहस्थाश्रम में व्यक्ति युवा व बल संपन्न होने के कारण स्वयं परिवार एवं समस्त समुदाय की समृद्धि बढ़ाने का प्रयास करता है, वहाँ अंतिम दो आश्रमों, वानप्रस्थ व संन्यास में सारी क्षमताएँ दूसरों को ऊँचा उठाने, उनका भावनात्मक उत्कर्ष करने हेतु नियोजित कर दी जाती है। आयुष्य के पूर्वार्द्ध को मूलत: बहिरंग के विकास हेतु, बल- सामर्थ्य, वैभव उपार्जन की पाठशाला माना जा सकता है, तो उत्तरार्द्ध को समुदाय के गुण, कर्म स्वभाव की परिष्कृत हेतु समाज में सत्प्रवृत्तियों के विस्तार हेतु नियोजित एक कर्मशाला कहा जा सकता है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य- गृहस्थ एवं वानप्रस्थ संन्यास का सुविभाजित कार्यक्षेत्र है। कहीं किसी भी प्रकार व्यक्ति के समग्र- विकास जीवन व्यवस्था की उपेक्षा- अवहेलना इससे नहीं होती और न सुव्यवस्थित निर्धारण के कारण कर्तव्य संपादन में कोई कठिनाई ही आती।

वस्तुत: आश्रम व्यवस्था समाज सेवा का उत्कृष्ट आदर्श है। ब्रह्मचर्य द्वारा शारीरिक शक्ति यों का जागरण करना और उसे समाज को समर्पित कर देना। गृहस्थ में परिवार का पालन- पोषण भी उसी का एक रूप है। वानप्रस्थ उस क्षेत्र से भी आगे बढ़कर विश्व परिवार में आत्माहुति है। यह त्याग शनै: शनै: बढ़ता हुआ आत्म कल्याण की अंतिम भूमिका संन्यास तक पहुँचता है।

देवसंस्कृतिरेतस्मै वानप्रस्थाश्रमस्य च।
संन्यासस्य व्यधात्पूर्णा व्यवस्थां सुदृढामिह॥ ३२॥
जनसंपर्कमाकर्तुमन्यान् वा रचनात्मकान्।
कार्यक्रमांश्च जागृत्यै सामर्थ्ये तु शरीरगे॥ ३३॥
वानप्रस्थक्रम: सोऽयं निर्वोढुं शक्यते जनै:।
क्षीणायां वपुष: शक्तो संन्यासी तु कुटीचर:॥ ३४॥
एकदेशस्थितो दद्यात् साधनाया अथापि च।
प्रेरणां शिक्षणस्यात्र पुण्यां हितहितां सदा॥ ३५॥

टीका—देव संस्कृति ने इसके लिए वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों की सुदृढ़ अपने में पूर्ण व्यवस्था बनाई है। जन- जागरण के लिए जन संपर्क एवं रचनात्मक कार्यक्रम संचालन योग्य शारीरिक सामर्थ्य रहते वानप्रस्थ क्रम निभाया जाना चाहिए। शारीरिक शक्ति क्षीण होने पर कुटीचर संन्यासी के रूप में एक स्थान पर रहकर पुण्यदायी, लोकहितैणी साधना, शिक्षण एवं प्रेरणा संचार का काम सँभालना चाहिए॥ ३२- ३५॥

गृहस्थस्य विरक्तस्य वानप्रस्थस्य मध्यग:।
वानप्रस्थसुसंस्कारान् स्वीकुर्वन्निवसेत्क्वचित्॥ ३६॥
आरण्यके यथाकालं कर्तव्यानि निजानि च।
निर्वोढुमनुगन्त्रीं च शिक्षामासादयेन्नर: ॥ ३७॥
साऽधुनाऽपि तथा कार्या कार्यं यच्च महत्त्वगम्।
कर्तुं हस्तगतं तच्च पूर्वमावश्यकं तत:॥ ३८॥
अनुभवं शुभमभ्यासं कुर्यादिदमुच्यते।
वानप्रस्थस्य दीक्षाया: शुभारंभस्वरूपकम्॥ ३९॥
वानप्रस्थाश्च स्वस्यास्य क्षेत्रस्य परिधेर्बहि:।
दूरक्षेत्रेषु गत्वा ते सेवन्ते जनतां सदा॥ ४०॥

टीका—गृहस्थ और विरक्त -वानप्रस्थ के मध्यांतर में वानप्रस्थ संस्कार संपन्न करते हुए कुछ समय किसी उपयुक्त आरण्यक में रहकर अपने नए कर्तव्य- उत्तरदायित्व के निर्वाह में सहायक हो सकने वाली शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए तथा साधना करनी चाहिए। हर महत्वपूर्ण कार्य को हाथ में लेने से पूर्व उसके लिए आवश्यक अनुभव एवं अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है। यही वानप्रस्थ की दीक्षा का शुभारंभ स्वरूप है। वानप्रस्थ अपने परिचित क्षेत्र की परिधि से बाहर निकलकर दूर क्षेत्रों में सेवारत रहते हैं॥ ३६- ४०॥

परमार्थ प्रयोजन के निमित्त, जनमानस का भावनात्मक परिष्कार करने के लिए देव संस्कृति की बड़ी ही सुंदर वानप्रस्थ एवं संन्यास के रूप में आश्रम व्यवस्था है, जो आयुष्य के उत्तर काल में संपन्न होती है। पूर्वार्द्ध में अर्जित विद्या, संचित अनुभवों की संपदा से विभूषित व्यक्ति का यथाशक्ति ,, सर्वश्रेष्ठ लाभ समाज को मिले, इस व्यवस्था के मूल में यही तत्व दर्शन है। जब तक शरीर साथ दे, तब तक निरंतर समाज परिकर में भ्रमण करते हुए जनजागृति का अलख जगाया जाए, श्रेष्ठता का पक्षधर वातावरण बनाया जाए। जब शरीर बल क्षीण हो जाता है, वार्द्धक्य के कारण शक्ति उतनी नहीं रहती, तब संन्यास आश्रम ग्रहण कर किसी स्थान विशेष, आरण्यक, संस्कारित तीर्थ पर स्थिर हो आत्म परिष्कार, उन्नयन की साधना, जनमानस के परिष्कार हेतु लोकशिक्षण एवं धर्मधारणा के प्रसार- विस्तार का पुण्य कार्य संपन्न किया जाए। यही ऋषिगणों द्वारा निर्धारित व्यवस्था है, जो आदिकाल से चली आ रही है।

वानप्रस्थ हेतु ऋषि आदेश देते हैं कि गृहस्थाश्रम के दायित्वों से निवृत्ति के तुरंत बाद स्वयं को इस पुण्य- प्रयोजन हेतु दीक्षित करना चाहिए। यह कार्य तीर्थ क्षेत्र, श्रेष्ठ संतों अथवा आरण्यकों में रहकर उनके मार्गदर्शन में संपन्न हो सकता है। हर कार्य के लिए समुचित शिक्षण अनिवार्य है। बिना शिक्षण के न तो कोई चिकित्सक बन सकता है, न ही अध्यापक। जब समाज रूपी विराट् तंत्र का लोकशिक्षण करना हो, तो इस विधा में प्रशिक्षित होना जरूरी है। तदुपरांत कार्यक्षेत्र में निकला जाए, यह अपने परिचित संपर्क के क्षेत्र से अलग हो। इससे नयों के संपर्क में आने का अवसर मिलता है, झिझक खुलती है एवं पुराना परिकर न होने के कारण किसी प्रकार का पूर्वाग्रह नहीं रहता।

आध्यात्मिक और पारमार्थिक गतिविधियाँ अपनाकर जीवन के उत्तरार्द्ध को इतना मृदुल और सरस बनाया जा सकता है, मानो नवीन जन्म ग्रहण किया गया है। जिस प्रयोजन के लिए यह शरीर मिला है मानव जन्म का जो परम लक्ष्य है, वह पूर्वार्द्ध में यत्किञ्चित् ही पूरा हो पाता है। अधिक उत्तम सुअवसर तो उत्तरार्द्ध में ही मिलता है। मानसिक उभार उतर जाने और परिवार का भार हलका हो जाने से मन भी अच्छी तरह लगता है और चित्त के डाँवाडोल होने की लुढ़कने फिसलने की आशंका भी कम रहती है। मरण का दिन समीप आता देखकर परमार्थ की पुण्य पूँजी संग्रह करने के लिए अगले जन्म में ऊँची स्थिति पाने के लिए उत्कंठा जाग्रत होती है और अधिक गंभीरतापूर्वक दिव्य जीवन की उन गतिविधियों को अपनाया जा सकता है, जो चढ़ती उम्र में प्राय: अरुचिकर और कठिन लगती थीं।

ब्रह्मविद्या की तत्वदर्शन ज्ञान- साधना की तप- साधना की सेवा- साधना, यह तीनों अमृतमयी देवसरिताएँ मिलकर गंगा- यमुना के मिलन, संगम का प्रयोजन पूरा करती है और तीर्थराज प्रयाग जैसी त्रिवेणी इस जीवन में प्रादुर्भूत होती है। यह अभिनव आनंद अपने ढंग का अनोखा है और ऐसा है, जिससे बालकपन, किशोरावस्था और यौवन में जो अर्जित किया गया था, उससे कम नहीं, वरन् अधिक ही आनंदमयी विभूतियाँ उपलब्ध हो सकती हैं होती हैं। होती हैं। संपदाओं से विभूतियों का स्तर हल्का नहीं, भारी ही है। इसलिए पूर्वार्द्ध में जो उपार्जित किया गया था, उसकी तुलना में उत्तरार्द्ध की कमाई का मूल्य भी अधिक ही आता है। ऐसी दशा में परमार्थ परायण उत्तरार्द्ध में प्रवेश करने वाले को बाल्यकाल और यौवन के चले जाने का पश्चाताप नहीं करना पड़ता, वरन् यही अनुभव होता है कि वह अल्हड़पन चला गया सो, अच्छा ही हुआ, यह ढलती आयु ऐसे अनुदान- वरदान लेकर आई है, जिनका इस गधा पच्चीसी के दिनों मिल ही सकना कठिन है। ऐसे चिंतन के रहते किसी को पूर्वार्द्ध के बीत जाने से दु:खी होने, पछताने की जरूरत नहीं पड़ती, वरन् यह अधिक महत्त्वपूर्ण्सा अवसर हाथ लगने का संतोष ही होता है। जीवन उतना ही सार्थक है, जितना कि सदुद्देश्यों के लिए जिया जाता है।

कुर्वते वानप्रस्थास्ते समाजे सर्वदैव तु।
सद्भावस्यज्ञानस्य वृद्धिमत्र निरंतरम् ॥ ४१॥
रचनात्मक वृत्तीनामपि लोकहितात्मनाम्।
मूढानां मान्यतानां च वारणं तु कुरीतिभि:॥ ४२॥
विद्यते युगधर्मोऽयं शाश्वती च परंपरा।
प्रत्येकस्मिन् युगे ग्राह्या जनैरेषा परंपरा॥ ४३॥

टीका—वानप्रस्थ समाज में निरंतर सद्ज्ञान, सद्भाव एवं लोकोपकारी रचनात्मक सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ाने तथा कुप्रचलनों, मूढ़मान्यताओं आदि के निवारण का कार्य करते हैं। यह शाश्वत परंपरा भी है और युग धर्म भी। अत: प्रत्येक युग में इस परंपरा का अनुसरण व्यक्ति यों को करना चाहिए॥ ४१- ४३॥

आश्रमेषु चतुर्ष्वेव वानप्रस्थो महत्त्वग: ।।
लोकमंगलसिद्धिश्च जायते तत्र संभवा॥ ४४॥
अस्मादेवाश्रमाद् योग्यसमर्थनां चमूरिव।
लोकसेविनृणांवर्ग उदेत्यनुभवाऽधिक: ॥ ४५॥
सर्वेषां विदितं चैतल्लोकमंगलकार्मुक:।
उदारहृदयो यश्च मनुजोऽनुभवी भवेत्॥ ४६॥
आत्मकल्याणवद् विश्वकल्याणं कर्तुमुत्सहेत्।
स एव निश्चितं नात्र विचिकित्सा मनागपि॥ ४७॥
धनव्ययो न येषु स्याद् योग्यता- भावना।
मूर्द्धन्या ये विनिर्मान्ति ते नरा लोकसेविन:॥ ४८॥
देशं समाजमप्यत्र सम्पन्नं शक्ति संयुतम्।
तेषां यदा भवेदत्र न्यूनता तर्हि वर्धते॥ ४९॥
अविकासस्थितिर्नूनं सर्वत्रैव महीतले।
विश्वव्यवस्थितौ येषां दायित्वं विद्यते नृणाम्॥ ५०॥
पुरोधसां न शालीन्यन्यूनता स्याद् भुवीति तत्।
वानप्रस्थे समुत्पन्नं परिपक्वं च जायते॥ ५१॥

टीका—चारों आश्रमों में वानप्रस्थ सबसे महत्त्वपूर्ण है। उसी से लोकमंगल की साधना बन पड़ती है। लोकसेवियों की सुयोग्य और समर्थ सेना इसी आश्रम के भाण्डागार से निकलती है। सर्वविदित है कि अनुभवी उदारचेता और लोकमंगल की भावनाओं से ओत- प्रोत व्यक्ति ही आत्मकल्याण और विश्व कल्याण का उभयपक्षीय प्रयोजन पूरा कर पाते हैं, इसमें संदेह नहीं। जिन पर धन न खरच करना पड़े, जो योग्यता और भावना की दृष्टि से मूर्द्धन्य हों, ऐसे लोकसेवी ही किसी देश या समाज को समर्थ- संपन्न बना पाते हैं। उनकी कमी पड़ने से सर्वत्र पिछड़ापन बढ़ता है। विश्वव्यवस्था में शालीनता की मात्रा कम न होने देने की जिम्मेदारी जिस पुरोहित वर्ग की है, वह वानप्रस्थ आश्रम में ही प्रकट और परिपक्व होता है॥ ४४- ५१॥

देवसंस्कृति द्वारा निर्धारित आश्रम व्यवस्था में वानप्रस्थों के लिए चाहे वह किसी भी आयु में लिया गया हो, प्रमुख दायित्व है जनमानस के परिष्कार का। उसे धर्मतंत्र के माध्यम से लोकशिक्षण करना होता है। यह कार्य इतना महत्त्वपूर्ण है कि वानप्रस्थ को संस्कृति का मेरुदंड कहा गया है। समाज में अनगढ़ व्यक्ति यों का बाहुल्य है। परंपराएँ, कुप्रचलन, अंधविश्वास समाज की प्रगति के मार्ग में अवरोध बन गए हैं। जिस प्रकार समय- समय पर हर स्थान आमूलचूल सफाई की अपेक्षा रखता है, उसी प्रकार समाज रूपी परिकर के परिशोधन हेतु, दुष्प्रवृत्तियों के निवारण एवं सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन हेतु लोकमंगल हेतु समर्पित व्यक्तित्वों की आवश्यकता निरंतर पड़ती रहती है।

वानप्रस्थ उस भावनाशील लोकसेवी की भूमिका निभाते हैं, जो स्वेच्छा से समर्पित हों, समाज निर्माण को, नैतिक- बौद्धिक क्रांति को अपना कर्त्तव्य मानकर चलते हैं, थोपी गई जिम्मेदारी नहीं। इसके लिए वे समाज पर भी भार नहीं बनते। वेद में कहा गया है वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता:॥ यहाँ पुरोहित शब्द से आशय वानप्रस्थ के रूप में कार्यरत पूर्ण समर्पित लोकसेवी से है। हम पुरोहित राष्ट्र को जाग्रत और जीवंत बनाए रखेंगे। जैसी उद्घोषणा करने वाला देव संस्कृति का यह प्रतिनिधि घर- घर अलख जगाने धर्म चेतना के व्यापक विस्तार के अपने संकल्प को बारंबार दुहराता है।

आज के युग में जहाँ अनास्था का बाहुल्य है एवं चारों ओर दुष्प्रवृत्तियाँ ही संव्याप्त नजर आती हैं, वानप्रस्थों के ऊपर महती जिम्मेदारी आती है। अनीति, अभाव व अज्ञान के असुरों से जूझने हेतु समर्पित व्यक्ति त्व चाहिए, जो गृहस्थ की जिम्मेदारी से मुक्त हों एवं श्रम, समय, मनोयोग लगाकर लोककल्याण हेतु तत्पर हो सकें।
इस आश्रम व्यवस्था के संबंध में शास्त्रकारों के स्पष्ट निर्देश हैं ,
शास्त्र सम्मति एवं वनाश्रमेतिष्ठन्
पातयश्चैव किल्विषम्।
चतुर्थमाश्रमं गच्छेत् संन्यासविधिना द्विज:॥
-हारीत स्मृति ६।२
 

गृहस्थ के बाद वानप्रस्थ ग्रहण करना चाहिए। इससे समस्त मनोविकार दूर होते हैं और वह निर्मलता आती है, जो संन्यास के लिए आवश्यक है।

महर्षिपितृदेवानां गत्वाऽऽनृण्यं यथाविधि।
पुत्रे सर्वं समासज्य वसेन्माध्यस्थ्यमास्थित:॥
-मनु ४। २५७

ढलती आयु में पुत्र को गृहस्थी का उत्तरदायित्व सौंप दें। वानप्रस्थ ग्रहण करें और देव, पितर तथा ऋषियों का ऋण चुकावें।

उपासना च सर्वत्राऽनिवार्या सा श्रमेषु तु।
आश्रमेषु चतुर्ष्वेव स्थानं तस्या: कृते ध्रुवम्॥ ५२॥
महत्त्वपूर्णं स्यादेव युगेऽस्मिन् सुलभा तथा।
  उपयुक्ता ऽस्ति च प्रज्ञायोगस्यैषा तु साधना॥ ५३॥
केवलेन  न कार्यं तूपासनाविधिना भवेत्।
स्वाध्यायसाधनासेवासंयमानां चतुर्विधा ॥ ५४॥
कार्यपद्धतिरुक्ता या तदा विश्वस्य चात्मन:।
कल्याणरूपं यल्लक्ष्यं द्विष्ठं तत्पूर्णतां व्रजेत्॥ ५५॥

टीका—उपासना हर क्षेत्र में आवश्यक है। उसे चारों आश्रमों में समान स्थान और महत्व मिलना चाहिए। इसके लिए वर्तमान युग में प्रज्ञा योग की साधना सर्वसुलभ और सभी आश्रमों के लिए उपयुक्त है। उपासना अकेली से काम नहीं चलता। साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा की चतुर्विध कार्यपद्धति अपनाने से ही आत्म- कल्याण और विश्व- कल्याण का उभयपक्षीय जीवन लक्ष्य पूरा होता है॥ ५२- ५५॥

उपासना अंत:करण की चिकित्सा है। नित्य प्रतिदिन छाए रहने वाले कुसंस्कार- कषाय की महाव्याधि से छुटकारा पाने हेतु यह एक अमोध ओषधि है। हर स्थिति में, चाहे व्यक्ति किसी भी आश्रम में हो उपासना का अवलंबन उसके लिए अनिवार्य है। इससे श्रेष्ठता के प्रति उच्चस्तरीय श्रद्धा का जागरण होता है, जो कि हर वरिष्ठ देवमानव के लिए जो सत्प्रवृत्ति विस्तार का भागीरथी पुरुषार्थ करने को उद्यत है, अनिवार्य है।

उपासना अकेली ही पर्याप्त नहीं। आत्म पर्यवेक्षण एवं सुधार द्वारा अंत:करण के परिमार्जन की साधना, चिंतन- चरित्र एवं व्यवहार में श्रेष्ठता के समावेश हेतु महामानवों की चरित्र गाथाओं का स्वाध्याय, समय- विचार एवं इंद्रिय निग्रह की संयम प्रक्रिया एवं समाज परिकर में फैले विराट ब्रह्म की आराधना- सेवा के रूप में चार गतिविधियों का समावेश भी साधना में होना चाहिए। यह मात्र व्यक्ति की आत्मिक प्रगति का प्रयोजन ही पूरा नहीं करते, अपितु इससे समष्टिगत परमार्थ का वह हित भी सधता है, जिसके लिए मनुष्य ने जन्म लिया है।

लकड़ी और अग्नि की समीपता का प्रतिफल प्रत्यक्ष है। गीली लकड़ी आग के समीप पहुँचते- पहुँचते अपनी नमी गँवाती और उस ऊर्जा से अनुप्राणित होती चली जाती है। जब वह अति निकट पहुँचती है, तो फिर आग और लकड़ी एक स्वरूप जैसे हो जाते �

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