सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति

विचारशक्ति सदा अमोघ

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       विचारों की व्यक्ति निर्माण में बड़ी शक्ति होती है। विचारों का प्रभाव कभी व्यर्थ नहीं जाता। विचार परिवर्तन के बल पर असाध्य रोगियों को स्वस्थ तथा मरणासन्न व्यक्तियों को नया जीवन दिया जा सकता है। यदि आपके विचार अपने प्रति ओछे, तुच्छ तथा अवज्ञापूर्ण हैं तो उन्हें तुरन्त ही बदल दो और उनके स्थान पर ऊँचे, उदात्त, यथार्थ विचारों का सृजन कर लीजिए। वह विचार- कृषि आपको चिन्ता, निराशा अथवा पराधीनता के अन्धकार से भरे जीवन को हरा- भरा बना देगी। थोड़ा सा अभ्यास करने से यह विचार परिवर्तन सहज में ही लाया जा सकता है। इस प्रकार आत्म- चिंतन करिए और देखिये कि कुछ ही दिन में आप क्रांतिकारी परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगेगा।
     विचार कीजिए— ‘‘मैं सच्चिदानंद परमात्मा का अंश हूँ। मेरा उससे अविच्छिन्न संबंध है। मैं उससे कभी दूर नहीं होता और न वह मुझसे ही दूर रहता है। मैं शुद्ध- बुद्ध और पवित्र आत्मा हूँ। मेरे कर्तव्य भी पवित्र तथा कल्याणकारी हैं। उन्हें मैं अपने बल पर आत्म- निर्भर रह कर पूरा करूँगा। मुझे किसी दूसरे का सहारा नहीं चाहिये, मैं आत्म- निर्भर, आत्म- विश्वासी और प्रबल माना जाता हूँ। असद् तथा अनुचित विचार अथवा कार्यों से मेरा कोई संबंध नहीं है और न किसी रोग- दोष से ही मैं आक्रान्त हूँ। संसार की सारी विषमताएँ क्षणिक हैं जो मनुष्य की दृढ़ता देखने के लिए आती हैं। उनसे विचलित होना कायरता है। धैर्य हमारा धन और साहस हमारा सम्बल है। इन दो के बल पर बढ़ता हुआ मैं बहुत से ऐसे कार्य कर सकता हूँ जिससे लोकमंगल का प्रयोजन बन सके। आदि- आदि।’’
      इस प्रकार के उत्साही तथा सदाशयतापूर्ण चिंतन करते रहने से एक दिन आपका अवचेतन प्रबुद्ध हो उठेगा, आपकी खोई शक्तियाँ जाग उठेंगी, आप के गुण, कर्म, स्वभाव का परिष्कार हो जायेगा और आप परमार्थ पथ पर उन्नति के मार्ग पर अनायास ही चल पड़ेंगे और तब न आपको चिन्ता, न निराशा और न असफलता का भय रहेगा न लोक- परलोक की कोई शंका। उसी प्रकार शुद्ध- बुद्ध तथा पवित्र बन जायेंगे जिस प्रकार के आपके विचार होंगे और जिनके चिन्तन को आप प्रमुखता दिए होंगे।
          सभी का प्रयत्न रहता है कि उनका जीवन सुखी और समृद्ध बने। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए लोग पुरुषार्थ करते हैं, धन- सम्पत्ति कमाते, परिवार बसाते और आध्यात्मिक साधना करते हैं। किन्तु क्या पुरुषार्थ करने, धन- दौलत कमाने, परिवार बसाने और धर्म- कर्म करने मात्र से लोग सुख- शान्ति के अपने उद्देश्य में सफल हो जाते हैं। सम्भव है इस प्रकार प्रयत्न करने से कई लोग सुख- शान्ति की उपलब्धि कर लेते हों, किन्तु बहुतायत में तो यही दीखता है कि धन- सम्पत्ति और परिवार परिजन के होते हुए भी लोग दुःखी और त्रस्त दीखते हैं। धर्म- कर्म करते हुए भी असन्तुष्ट और अशान्त हैं।
         सुख- शान्ति की प्राप्ति के लिए धन- दौलत अथवा परिवार परिजन की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी आवश्यकता सद्विचारों की होती है। वास्तविक सुख- शान्ति पाने के लिए विचार साधना की ओर उन्मुख होना होगा। सुख- शान्ति न तो संसार की किसी वस्तु में है और न व्यक्ति में। उसका निवास मनुष्य के अन्तःकरण में है। जो कि विचार रूप से उसमें स्थित रहता है। सुख- शान्ति और कुछ नहीं, वस्तुतः मनुष्य के अपने विचारों की एक स्थिति है। जो व्यक्ति साधना द्वारा विचारों को उस स्थिति में रख सकता है, वही वास्तविक सुख- शान्ति का अधिकारी बन सकता है। अन्यथा, विचार साधना से रहित धन- दौलत से सिर मारते और मेरा- तेरा, इसका- उसका करते हुए एक झूठे सुख, मिथ्या शान्ति के मायाजाल में लोग यों ही भटकते हुए जीवन बिता रहे हैं और आगे भी बिताते रहेंगे।
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