संस्कृति की अवज्ञा महँगी पड़ेगी

वापस लाएँ प्यार-मोहब्बत

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मित्रो! संस्कृति हमारे दैनिक जीवन में मुहब्बत भरती थी, प्यार भरती थी और सहकारिता भरती थी। जंगल में रहने वाले आदमी और गरीबी में गुजारा करने वाले आदमी अपने अपने छोटे-छोटे घरौंदों में रहकर खुशहाल रहते थे। स्वर्ग का आनंद लूटा करते थे। मालूम पड़ता है कि वह संस्कृति धीरे धीरे मौत के मुँह में जा रही है। नष्ट होती चली जा रही है। अब क्या करना चाहिए? बेटे! हमको और आपको उसे वापस लाने की कोशिश करनी चाहिए; क्योंकि उसमें हमारा, हमारी संतानों का, हमारे समाज का और हमारी सारी मानवता का भविष्य टिका हुआ है। इस संस्कृति को वापस लाया जाए। कहाँ से वापस लाया जाए? लंका से वापस लाया जाए। हम और आप कोशिश करेंगे तो इसे लंका से वापस लाया जा सकता है। नहीं साहब! रावण बहुत जबरदस्त था। हाँ बेटे! रावण की जबरदस्ती को हम मानते हैं और रास्ते की खाई बहुत बड़ी है, समुद्र जैसी खाई है और इसे पाटना बहुत कठिन काम है। कुम्भकरण से लड़ाई लड़ना भी बहुत कठिन मालूम पड़ता है; लेकिन कठिन काम भी तो बेटे इनसानों ने ही किए हैं। कठिन काम भी इनसान ही कर सकते हैं। हम आखिर इनसान ही तो हैं। आइए अब संस्कृति की सीता को वापस लाने के लिए चलें


मित्रो! संस्कृति की सीता को वापस लाने के लिए अब हम क्या कर सकते हैं? हमारी और आपकी जैसी भी हैसियत होगी, कोशिश करेंगे। अच्छे कामों के लिए जब आदमी कमर बाँधकर खड़े हो जाते हैं तो भगवान की सहायता उन्हें हमेशा मिली है और हमेशा सहायता मिलेगी। पहले भी मिलती रही है और अभी भी मिलेगी। कब मिली थी? अच्छे उद्देश्य के लिए जब आदमी जान हथेली पर रखकर निकलता है तो भगवान भाग करके सहायता करने के लिए आता है। क्यों साहब! यह बात सही है? हाँ बेटे! यदि उद्देश्य ऊँचा हो, तब सही है, अन्यथा उद्देश्य घटिया हो, तब मैं नहीं कह सकता। उद्देश्य ऊँचा हो तो भगवान आपको सहायता देगा। इतिहास पढ़ डालिए। महामानवों के लिए भगवान ने जितनी ज्यादा सहायता दी है, आप पढ़ डालिए। शुरू से पन्ना पढ़िए। किसी भी क्षेत्र के महामानव और महापुरुष का इतिहास पढ़िए फिर देखिए कि ऊँचे उद्देश्य के लिए ईमानदारी से कष्ट उठाने के लिए जो आदमी तैयार हो गए उनको सहायता मिली कि नहीं मिली? आप चाहे जिस क्षेत्र में देख लीजिए लाखों की तादाद में लोगों को भगवान की सहायता, आदर्श सहायता, दैवी सहायता मिलती चली गई।


ऊँचे उद्देश्य के लिए मित्रो! मैं सीता जी की बात कह रहा था। आप देखिए कि उन्हें किस तरह से सहायता मिलती चली गई। क्यों साहब! पानी के ऊपर तैरते हुए पत्थर कहीं होते हैं? कहीं नहीं होते। पानी में डालते ही पत्थर डूब जाता है। पत्थरों के माध्यम से भगवान ने सहायता की थी। ऐसे पुल बनाए गए थे, जिनमें कि खंभे नहीं लगाए गए थे। इनके लिए कोई प्लानिंग नहीं की गई थी। समुद्र के ऊपर पत्थर फेंकते ही वे तैरने लगे और पुल बना दिया गया। अचंभे की बात है न! लोगों की समझ में नहीं आती। बेटे! यह समझ में आएगी भी नहीं। मैं ऐसे लाखों उदाहरण बता सकता हूँ जिनमें कि पत्थर ऊँचे उद्देश्यों के लिए तैरे हैं। जो ऊँचा उद्देश्य लेकर के चले हैं और जान हथेली पर लेकर चले हैं और ईमानदारी से चले हैं, उनके पत्थर तैरे थे और फिर तैरेंगे। नहीं साहब! पत्थर नहीं तैरेगा। हाँ बेटे! पत्थर नहीं तैरेगा। यह अलंकार है। इसका मतलब यह है कि साधन कम हों, सामर्थ्य कम हो, तो भी सफलता मिलेगी। पत्थर तैरने से हमारा मतलब यही है। पानी पर पत्थर तैरता है कि नहीं तैरता, इससे कोई मतलब नहीं है।


महाराज जी! और क्या हो सकता है? और बेटे! समुद्र को छलाँगा जा सकता है। आदमी की छलाँगने की ताकत दस फीट हो सकती है, बारह फीट हो सकती है, पंद्रह फीट हो सकती है। बंदर के छलाँगने को ताकत, लंगूर के छलाँगने की ताकत मान लें कि ज्यादा से ज्यादा पच्चीस फीट हो सकती है, तीस फीट हो सकती है, चालीस फीट हो सकती है और ज्यादा से ज्यादा पचास फीट हो सकती है। नहीं साहब! बंदर इतनी लंबी छलाँग नहीं मार सकता। तो बेटे! बंदरों ने समुद्र छलाँगा था? अच्छा, आदमी कितना वजन उठा सकता है? बीस किलो उठा सकता है। नहीं साहब! चालीस किलो उठा सकता है। नहीं साहब! हमने एक पल्लेदार को अपनी पीठ पर एक क्विंटल की बोरी लादते हुए देखा था। चलिए हम आपकी बात मान लेते हैं कि आदमी एक क्विंटल वजन उठा सकता है। तो क्या वह पहाड़ भी उठा लेगा? नहीं साहब! पहाड़ तो नहीं उठा सकता। पहाड़ नहीं उठा सकता, तो देख हनुमान जी ने ऊँचे उद्देश्य के लिए पहाड़ उठाया था कि नहीं। ऊँचे उद्देश्य के लिए जब आदमी कमर कसकर खड़े हो गए हैं, तो उन्होंने बड़े से बड़ा काम करके दिखाया है। हनुमान जी ने सीता जी को वापस लाकर दिखाया था।
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