संस्कृति की अवज्ञा महँगी पड़ेगी

नास्तिकों का आज का युग

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लेकिन मित्रो! आज हम लंका के जमाने में रह रहे हैं, जहाँ कि धर्म को अफीम की गोली कहा जा रहा है। पढ़े-लिखे लोगों में जाइए और उनसे जानिए कि धर्म क्या है? तो वे यही कहेंगे कि धर्म याने अफीम की गोली, जिसको खाकर के आदमी मदहोश हो जाता है। कर्तव्यों को भूल जाता है। समझदार लोगों में, बुद्धिजीवी वर्ग में संस्कृति के लिए यही शब्द इस्तेमाल होता है-अफीम की गोली और भगवान के बारे में दार्शनिक नीत्से का एक वचन मुझे बार-बार याद आ जाता है और खटकता भी रहता है। नीत्से यों कहते थे कि खुदा मर गया और मरे हुए खुदा को हमने इतने नीचे दफन कर दिया है कि अब उसके दोबारा जिंदा होने की कोई उम्मीद नहीं है। वह अब दोबारा नहीं जी सकेगा। खुदा को अब हमने मार दिया। नास्तिक नीत्से कहता था कि खुदा नाम की कोई चीज दुनिया में नहीं है जो कुछ खुदा के नाम पर दुनिया में पाया जाता है, वह केवल वहम है और हम इस वहम को दुनिया से मिटाकर छोड़ेंगे।


साथियो! नीत्से तो अब नहीं रहा, लेकिन उसका काम-फिलॉसफी का काम, साइंस ने अपने कंधे पर उठा लिया। साइंस ने कहा कि परमात्मा की अब कोई आवश्यकता नहीं है और धर्म की कोई जरूरत नहीं है। डार्विन ने कहा कि अगर आप धर्म के मामले में दखल देंगे तो आदमी को मानसिक बीमारियाँ हो जाएँगी। मनोविज्ञानी फ्रॉयड ने कहा कि ये बहन है, ये बेटी है और इसके साथ-साथ में ब्रह्मचर्य है और यह आपका पतिव्रत धर्म है-अगर इस तरह की बेकार की बातें फैला देंगे तो आदमी के दिमाग में कॉम्प्लेक्स पैदा हो जाएँगे और' आदमी को मानसिक बीमारी हो जाएगी। आदमी को उच्छृंखल रहने दीजिए स्वेच्छाचार करने दीजिए। जैसे कि जानवरों में स्वेच्छाचार होता है, वैसे ही आदमी को भी स्वेच्छाचार का मौका मिलना चाहिए। ये कौन कहता था। डार्विन से लेकर फ्रॉयड तक ने यही बातें कहीं।
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