संस्कृति की सीता की वापसी

यह युग परिवर्तन की वेला है

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`मित्रो! यही समय है, जिसके लिए मैं आपको याद दिलाता था और इसीलिए इस शिविर में आपको बुलाया है। अगर आप समय को परख सकते हों, समय को देख सकते हों, समय को जान सकते हों, तो आप यह देख लें कि यह युग परिवर्तन का समय है। इससे अच्छा, बेहतरीन समय शायद आपके जीवन में दुबारा नहीं आयेगा और मैं तो केवल आपके जीवन की बात नहीं कहता हूँ, हजारों वर्षों तक ऐसा समय नहीं आयेगा, जैसा कि हम और आप जिस समय में बैठे हुए हैं। आपको इस समय में क्या करना चाहिए? बेटे, आपको एक ही काम करना चाहिए कि संस्कृति की सीता को वापस लाने के लिए मेहनत करनी चाहिए और मशक्कत करनी चाहिए।    

अच्छा आप कार्यक्रम बताइये? बेटे, आपके सामने जो कार्यक्रम पेश किया है, आज की परिस्थिति में इससे अच्छा दूसरा नहीं हो सकता। आज की क्या परिस्थिति है? आज की परिस्थिति एक ही है कि आज के युग का जो रावण है, वह क्या है? इस युग की पूतना क्या है? इस युग की ताड़का क्या है? इस युग की सूर्पणखा क्या है? इस युग की राक्षसी क्या है? इस युग की एक ही राक्षसी है, जिसका नाम है- बेअकली। आदमी के अन्दर बेअकली इस कदर हावी हुई है कि जबसे दुनिया बनाई गयी और तब से आज का दिन है, मैं सोचता हूँ कि बेअकली का दौर इतना ज्यादा कभी नहीं हुआ, जितना कि आज है।   

आज आदमी कितना शिक्षित होता हुआ चला जाता है, पर बेअकली की हद है। कहाँ तक पढ़ा है? पढ़ने वाले के ऊपर लानत। जाने कहाँ तक पढ़ते जाते हैं। बी.ए. पास है, एम.ए. पास है। अच्छा तो यह कमाता तो जरूर होगा? लेकिन बेअकली  के मामले में ये वो आदमी हैं, जिनको मैं ‘बेहूदा’ शब्द कहूँ, तो भी कम है। आदमी जीवन की समस्याओं के बारे में इतना ज्यादा गैर जिम्मेदार है कि जिसके दुःखों का ठिकाना नहीं है। जहाँ भी वह रहता है, क्लेश पैदा करता रहता है। दफ्तर में रहता है, तो क्लेश पैदा करता है। जहाँ कहीं भी जाता है, क्लेश पैदा करता है। अपने लिए भी और अन्यों के लिए भी। यह बेअकल आदमी है, जिसको जिन्दगी का मजा, जिन्दगी का सौंदर्य, जिन्दगी का सुख लेना आता ही नहीं। जिन्दगी का सुख और सौन्दर्य कैसे हो सकता है? इसके बारे में हमें क्या विचार करना चाहिए? हमको मालूम ही नहीं है। घर- घर जाकर बेअकली दूर करनी होगी    

मित्रो ! क्या करना पड़ेगा? आज के जमाने में सिर्फ एक काम करना पड़ेगा कि हमको जन- जन के पास जाकर के उनकी बेअकली को दूर करना पड़ेगा। जहाँ- जहाँ तक वह फैली हुई है, उसको दूर करने के लिए हमको वह काम करना पड़ेगा, जो परिव्राजक अभियान के अन्तर्गत हमारे प्राचीनकाल के ऋषि किया करते थे। मध्यकालीन तीर्थयात्री किया करते थे। अन्तिम समय में भगवान् बुद्ध के शिष्यों, परिव्राजकों ने किया था। आपको यही करना पड़ेगा। घर- घर में जाना पड़ेगा। घर- घर को जगाना पड़ेगा। घर- घर में जो अवांछनीयता की और अनैतिकता की बीमारियाँ फैली पड़ी हैं, घर- घर में दवा बाँटनी पड़ेगी। आपको घर- घर में डी.डी.टी. छिड़कनी पड़ेगी। घर- घर में इसके छिड़काव की जरूरत है। क्योंकि मलेरिया बहुत जोर से फैल गया है। मलेरिया के मच्छर बेहिसाब से आ रहे हैं। घर- घर जाइये।

नहीं साहब! मच्छरों को यहीं बुलाकर लाइये और जो घर की सीलन है, सबके यहाँ खबर भेजिए कि लिफाफे में बन्द कर डाकखाने के माध्यम से हमारे पास मच्छरों को भेज दें। मलेरिया के मच्छर जैसे ही हमारे पास आयेंगे, हम सबको पकड़ लेंगे। भाई साहब! मलेरिया के मच्छर आपके यहाँ नहीं आ सकते, आप चाहें तो वहाँ पर जा सकते हैं। मलेरिया आपके यहाँ नहीं आयेगा, आप चाहें तो वहाँ जा सकते हैं। आप डी.डी.टी., लेकर घरों में जा सकते हैं। घर आपकी डी.डी.टी. के पास नहीं आयेंगे।

जन- जागरण हेतु बड़ी सेना की तैयारी    

इसलिए मित्रो ! आज का सबसे बड़ा काम वह है, जो हम आपके सुपुर्द करते हैं। क्या सुपुर्द करते हैं? जन- जागरण का काम करना पड़ेगा। जन- साधारण को जगाना पड़ेगा। फिर आदमी का वह शिक्षण करना पड़ेगा, जिससे उसकी विचारणा और उसके चिन्तन को नये सिरे से दिशा दी जा सके। नये सिरे से उसमें हेरफेर पैदा किया जा सके। अगले दिनों हमको यही करना पड़ेगा। अगले दिनों आपकी वानप्रस्थ योजना, जो बड़ी समर्थ योजना है, बड़ी सशक्त योजना है, बड़ी सांगोपांग योजना है,  इसी को चलायेंगे।     

आप इतनी बड़ी योजना चलायेंगे? हाँ बेटे, इतनी बड़ी योजना चलायेंगे। अब तक हम अकेले काम करते थे। तब हमारे पास क्या था? बस दो, चार- दस आदमी गायत्री तपोभूमि पर रहते थे। पाँच- पचास आदमी और थे, जिन्हें जहाँ- तहाँ भेजते थे। अब क्या करेंगे? अब बेटे, हम क्रमबद्ध रूप से परिव्राजक योजना को चलायेंगे। पहले शिविर में आपके जितने आदमी थे। दोनों शिविरों को मिलाकर तीन सौ के करीब हो जाते हैं। ये सबके सब तो नहीं जायेंगे, लेकिन आप यकीन रखिए, यहाँ शिविर में जो आते हैं, उतने ही आदमी नहीं हैं। हम अपने सारे के सारे गायत्री परिवार के लोगों को जगायेंगे और बुलायेंगे। समयदानियों से ले करके वरिष्ठ वानप्रस्थियों तक की कितनी बड़ी सेना बना लेंगे।    

मित्रो ! हम कोशिश करेंगे कि उसी स्तर की, उसी संख्या में सेना बना दें, जितनी कि भगवान् बुद्ध बनाने में समर्थ हुए थे। एक लाख के करीब उन्होंने शिष्य बनाये थे और ईसाई मिशन के पास भी एक लाख के करीब पादरी हैं। आप भी इतनी हिम्मत करते हैं? बेटे, कोशिश करेंगे। इतने आदमी यहाँ शान्तिकुञ्ज में तो नहीं रह सकते, लेकिन हमारा ऐसा ख्याल है कि हम गाँव- गाँव में और देश- देश में और घर- घर में शान्तिकुञ्ज बनायेंगे और जाग्रत् केन्द्र बनायेंगे। वहाँ से फिर ईसाई मिशन के तरीके से हम नये वानप्रस्थी पैदा कर सकते हैं। बेटे, हमारे ख्वाब बड़े महत्त्वाकाँक्षी हैं। आगे क्या होगा? भगवान् जाने, लेकिन हमारे ख्वाब जरूर ऐसे हैं। नहीं साहब! आज की बात बताइए? आज की बात तो यह है कि छोटे से कार्यक्रम के लिए हम आपको भेजते हैं। बड़ा काम तो हम बाद में सुपुर्द करेंगे।     

जब हम विदेश गये, तो हर जगह हमसे एक ही बात कही गयी कि साहब! प्राचीनकाल में संत और ऋषि थे। अब संत और ऋषि रहे कहाँ? उनने कहा कि यदि रहे होते, तो आप उन्हें क्यों नहीं भेजते? हमारे देश में भारत का धर्म और संस्कृति खत्म होती चली जा रही है। हमें ब्याह कराने तक की विधि मालूम नहीं है। हमको हिन्दुस्तानी तक बोलना नहीं आता। अब अगर आप हमारे यहाँ कोई आदमी भेज दें, तो कम से कम हमारे बच्चों को, हमारी महिलाओं को वे ज्ञान कराते रहेंगे। हमारे यहाँ भी कुछ काम चलता रहेगा, संस्कार होते रहेंगे। हम तो संस्कार भी नहीं कराते और कोर्ट में जाकर के, अदालत में जा करके रजिस्ट्रेशन करा लेते हैं। हमको हवन विधि भी नहीं आती। आप कुछ लोगों को यहाँ भेज दें, तो कुछ काम बने। बेटे, हम भेजने की कोशिश करेंगे।

मित्रो! विदेश जितने आदमी जाते हैं, वे व्याख्यान झाड़ने के लिए जाते हैं। वे समझते हैं कि हमें स्टेज पर बोलना आ गया, तो जाने क्या आ गया? वे व्याख्यान देते हैं और इस तरह की वाणियाँ बोलते हैं और फिर कहते हैं कि हम आश्रम बनायेंगे, मन्दिर बनायेंगे। आश्रम की, मन्दिर की सब योजनाएँ लेकर जाते हैं और वहाँ से पाँच- पच्चीस हजार रुपये इकट्ठे कर लेते हैं। आने- जाने का खर्च अलग से वसूल कर लेते हैं। पन्द्रह हजार हवाई जहाज का किराया खर्च कराया। पच्चीस हजार उसका ले लिया। महीने भर के अन्दर चालीस हजार का बेचारों को चाकू मारकर चले आये। (खर्च के यह अनुमानित आँकड़े सन् १९७७- १९७८ के हैं।) इस तरह लोग विदेश जाते हैं और दस दिन वहाँ, बीस दिन वहाँ लेक्चर झाड़ करके और यहाँ- वहाँ घूम-घाम करके महीने भर की छुट्टी काट करके आ जाते हैं। साहब! मुझे भेज दीजिए। मैं ऐसा लेक्चर झाड़ना जानता हूँ कि बस मजमा बाँध दूँगा। बेटे, अगर तेरे लेक्चर को हम टेप करा करके भेज दें तो? नहीं महाराज जी! टेप कराकर मत भेजिए। मुझे ही भेज दीजिए। चल बदमाश कहीं का। इस तरीके से सारे के सारे जेबकट आदमी लेक्चर झाड़ने के लिए यहाँ से वहाँ मारे- मारे डोलते हैं। हमें सृजेता स्तर के व्यक्ति तैयार करने हैं।
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