स्वच्छता मनुष्यता का गौरव

इसे बर्बाद न करें तो

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भारतवर्ष में खाद देने वाले जानवरों की अपेक्षा मनुष्यों की संख्या दुगुनी मानी जाती है। इससे मनुष्यों के मल-मूत्र का खाद के रूप में उपयोग किया जा सके तो उससे खाद और खाद्य दोनों ही समस्याओं को हल करने में आशातीत सफलता मिल सकती है। इस बात की ओर सन् १९३५ के लगभग बोएलकर तथा लेधर नामक भारतीय कृषि विभाग के दो बड़े अधिकारियों ने सरकार का भी ध्यान आकर्षित किया था। उनका कहना था कि खाने की फसलें उगाने के लिए जमीन को जितने द्रव्य की आवश्यकता होती है उसका आधा भाग मुनष्य के मल-मूत्र से बड़ी आसानी से पूरा हो सकता है।
    इन्होंने यह भी सिद्ध किया था कि यदि मल-मूत्र की खाद को इस्तेमाल किया जाय तो उससे सालभर में प्रतिव्यक्ति ६०० रुपये की अधिक फसल उगाई जा सकती है। यदि एक गाँव की आबादी ५०० की औसत से मानी जाय तो प्रत्येक गाँव में ३ लाख रुपये की अधिक फसल उगाई जा सकती है। भारतवर्ष में गाँवो की कुल संख्या ५६७१६९ है। इस हिसाब से कुल अधिक उपज की कीमत निकालें तो वह १ अरब ७० करोड़ १५ लाख ७ हजार के बराबर बैठती है। इतना धन हमारी कितनी भी बड़ी से बड़ी खाद्य समस्याओं को आसानी से पूरा कर सकता है।
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