मल-मूत्र की समस्या, यदि लोग अपना स्वभाव ठीक कर लें तो कोई बड़ी समस्या नहीं है। जो लोग शहरों में रहते हैं उन्हें पाखानों का नियमित इस्तेमाल करना चाहिए। जहाँ-तहाँ नालियों में, दुकान के नीचे, मोटर स्टैण्ड के अगल-बगल, प्लेटफार्म की बिल्डिंगों के पीछे, शहर के बीच जहाँ रेलवे लाइनें गुजरती हैं पाखाना या पेशाब नहीं करना चाहिए। पेशाब और पाखानों के लिए शहरों में टट्टी और पेशाबघर बने होते हैं। स्टेशनों, बस अड्डों पर भी मुसाफिरों के लिए शौचालय बने रहते हैं, उन्हीं में पेशाब और पाखाना करना चाहिए। प्रायः लोग उन्हें ढूँढने की दिक्कत नहीं उठाना चाहते हैं इसीलिए इधर-उधर टट्टी-पेशाब कर देते हैं। ऐसा न करने की आदत प्रत्येक नागरिक को निभानी चाहिए।
स्त्रियाँ सोचें, समझें और करें
मातायें बच्चों को नालियों के सहारे बैठाकर टट्टी करा देती हैं। वे अनुभव करती हैं कि इस तरह वे टट्टी उठाकर फेंकने की परेशानी से बच जाती हैं पर उन्हें यह भी मालूम होना चाहिए कि यह गन्दगी उन्हीं के बच्चों के लिए हानिकारक होती है। कोमल शरीर के बच्चों पर ही रोग के कीटाणुओं का जल्दी असर होता है। थोड़ा सावधानी के साथ बच्चों को भी पाखानों में टट्टी करा ली जाया करे या बाहर कराकर इसे किसी ऐसे स्थान पर डाल दिया करें जहाँ से मेहतर उसे साफ कर ले जाया करें, तो इसमें कोई बड़ी परेशानी नहीं होती।
सामाजिक कार्यकर्ताओं के कर्तव्य
शहरों की मल-मूत्र समस्या को बहुत शीघ्र नियंत्रण में लिया जा सकता है पर गाँवों की समस्या कुछ अधिक दुरुह है। गाँवों की अधिकांश जनता अनपढ़ होने से वे लोग किसी बात की उपयोगिता उतनी जल्दी नहीं समझते। तो भी युग-निर्माण आन्दोलन के कर्मठ कार्यकर्ता यदि आवश्यक प्रशिक्षण एवं जानकारी देने के लिए कटिबद्ध हो जायें तो वहाँ भी मल-मूत्र की समस्या को शीघ्र ही काबू किया जा सकता है।
पहला कार्य यह है कि लोगों को मल-मूत्र की गन्दगी से पैदा होने वाले रोग और बुराइयों की जानकारी दी जाय। नम्बर दो-उन्हें मल-मूत्र की उपयोगिता समझाई जाय और उसे खाद के रूप में प्रयोग करने को तैयार किया जाय। दो कार्यक्रम सैद्धांतिक हुए। इसके बाद रचनात्मक कार्यक्रमों का आन्दोलन उठाना चाहिए।
पहला तरीका यह है कि लोग खेतों पर पाखाना करें, तालाबों के आसपास की जमीन में या गाँव के किनारे रास्तों में मैला न फैलायें, पाखाना जाते समय लोग अपने साथ खुरपी लेकर जायें और गड्डा खोदकर उसमें पाखाना करें बाद में उसे मट्टी से ढक दें। इससे वह मल कुदरती तौर पर खाद बन जाता है।
जमीनी छप्परों का घेरा डालकर सामूहिक पाखाना तैयार किये जायें। इनकी गहराई इतनी होनी चाहिए जिससे एक पाखाना कम से कम एक वर्ष या छः महीने तक तो काम दे ही जाय। पाखाने के लिए बैठने की लकड़ी को काटकर इस तरह तैयार किया जाय कि दोनों पैरों को रखने के लिए दो मजबूत पट्ठे बने रहें और उनके बीच में मल विसर्जन के लिए काफी चौड़ाई से उसे काट दिया जाये। इस प्रकार एक पाखने को घेर दिया जाय ताकि एक साथ दस-बारह व्यक्ति भी अगर पाखाने को बैठें तो इसमें कोई परेशानी न आये। पाखाने पुरुषों के लिए अलग, स्त्रियों के लिए अलग हों।
बच्चों के लिए बाल्टी की टट्टियाँ बनवा ली जाँय और वे मकान के ऐसे कोने में हों जहाँ से दुर्गन्ध न फैले। बैठने के लिए कुर्सीनुमा लगाना चाहिए और जब एक बार बच्चा पाखाना फिर ले तो उसे मिट्टी या राख से ढक देना चाहिए ताकि बदबू न फैले।