दुनिया नष्ट नहीं होगी, श्रेष्ठतर बनेगी

सत्ता लोलुप, धन लोलुप समय पर चेत जायें

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    अदृश्ष्य के संकेत समझे --

     आँखों की दृश्य शक्ति पर कौन अविश्वास करेगा? और जो दीख पड़ता है उसे असत्य कैसे कहा जाय? किन्तु बात यह भी नहीं है कि जो आँखों से दीख पड़ता है सब कुछ उतने तक ही सीमित है। यदि ऐसा ही रहा होता तो माइक्रोस्कोप से दीख पड़ने वाले छोटे घटकों- और टेलिस्कोप से दृष्टिगोचर होने वाले दूरस्थ दृश्यों को मान्यता कैसे मिलती।

मनुष्य समझदार प्राणी है। वह वर्तमान के समीकरणों के अनुरूप जो कुछ भी है उसी के आधार पर अनुमान लगाता है और भविष्य को तद्नुरूप घटित होने की आशा लगाता है। इस बौद्धिक परिपाटी को अनुपयुक्त भी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि संसार के प्रायः समस्त कार्य इसी आधार पर सम्पन्न होते हैं। फिर भी एक तथ्य अपनी जगह पर बना ही रहता है कि कोई अदृश्य शक्ति अपनी मर्जी भी कम नहीं चलाती और मनुष्य के परिश्रम के निष्कर्ष को झुठलाने से भी रुकती नहीं।

        कई बार प्रवीण किसानों की फसल भी पाला, सूखा, टिड्डी आदि कारणों से चौपट होते और कई बार अन्धे के हाथ बटेर लगते भी देखी गई है। कइयों को उत्तराधिकार में अनायास ही प्रचुर सम्पदा हाथ लग जाती है और कई बिना परिश्रम किये लाटरी खुलने जैसे लाभ उठाते देखे गये हैं। यह अदृश्य के अनुदान हैं। इस सम्भावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। यह भवितव्यता है, जिसे कई बार प्रत्यक्षवादी निष्कर्षों को उलट जाते भी देखा गया है। नावें डूब जाती हैं और आत्महत्या के लिए पानी में डूबने वाले भी किनारे पर जा लगते हैं और ईश्वर की इच्छा के अनुरूप इस आचरण के उपरान्त भी लम्बे समय तक जीते हैं। इन बुद्धि क्षेत्र को चुनौती देने वाली घटनाओं के अस्तित्व से सदा इनकार नहीं ही किया जा सकता।

      इन पंक्तियों में आज की परिस्थितियों के सन्दर्भ में चर्चा की जा रही है और जो कार्य करने की संगति मिलाते हुए प्रतिफल प्रतीत होता है उसके सही गलत होने के सम्बन्ध में प्रकाश डाला जा रहा है। ऐसा प्रकाश जिसके पीछे महत्वपूर्ण अनुभूतियाँ काम करती हैं और जिन्हें किसी सशक्त संकेतों पर अवलम्बित कहा जा सकता है।

इन पंक्तियों का लेखक जिन महत्वपूर्ण प्रकाश को प्रस्तुत कर रहा है उसे उसका व्यक्तिगत अनुमान आग्रह न माना जाय तो अधिक उपयुक्त है। यह प्रतिपादन ऐसा भी है जिस पर विश्वास करने वाला समय आने पर यह अनुभव न करेगा कि हमें व्यर्थ ही फुसलाया और डराया गया। हमें अदृश्य के साथ सम्बन्ध जोड़कर काम करते हुए प्रायः पूरा जीवन बीत गया। इतने समय में जो संकेत मिलते रहे हैं वे हमारे व्यक्तिगत जीवन में अक्षरशः सही घटते रहे हैं। दूसरों के या सार्वजनिक प्रसंगों के सम्बन्ध में भी सम्भावनाएँ विदित होती रही हैं, पर उन्हें प्रकट करने पर प्रतिबन्ध रहने के कारण भविष्य कथन जैसा कभी कुछ किया नहीं गया। यह प्रथम अवसर है जिनका व्यक्ति विशेष से नहीं जन- साधारण से सीधा सम्बन्ध है। यह कथन स्वेच्छापूर्वक प्रकट करने का कोई मन भी नहीं था पर सार्वजनिक हित में इसे प्रकट करने के लिए उकसाये जाने पर ही ऐसा कुछ करने का साहस सँजोया गया है जिसका निकटवर्ती भवितव्यता और समूचे विश्व के लिए विचारणीय प्रसंग है।

अपनी- अपनी भूलें सुधारें --

      यहाँ सर्वप्रथम राजनैतिक परिस्थितियों के सम्बन्ध में चर्चा की जा रही है। देशों के भीतर होती रहने वाली उथल- पुथल के सम्बन्ध में नहीं वरन् समूचे विश्व को समान रूप से प्रभावित करने वाली परिस्थितियों के सम्बन्ध में कुछ ऐसा कहा जा रहा है, जिस पर मात्र विचार ही नहीं किया जाना चाहिए वरन् यह भी मान कर चलना चाहिए कि प्रस्तुत कथन सही निकला तो किसे अपना क्या कर्त्तव्य निर्धारित करना चाहिए।

    इन दिनों राजनीति के प्रसंग में सबसे प्रमुख चर्चा तृतीय विश्व युद्ध की है। प्रमाणों से प्रत्यक्ष है उसमें तीर तलवारों का नहीं, अणु आयुधों का- विषैली गैसों का और मारक किरणों का प्रयोग होगा। यदि ऐसा हुआ तो पक्ष और विपक्ष तो समान रूप से हारेंगे ही, साथ ही यह पृथ्वी भी प्राणियों के जीवित रहने योग्य नहीं रहेगी। ऐसे सर्वनाश के उपरान्त किसका क्या प्रयोजन सिद्ध होगा। ऐसे कदम तो उन्मादी ही उठा सकते हैं। हमें सोचना होगा कि मनुष्य विज्ञान और कूटनीति में कितना ही आगे क्यों न बढ़ गया हो, ऐसे आत्मघाती कदम उठाने से पूर्व हजार बार सोचेगा और ऐसा न करेगा कि जिसमें विपक्ष के साथ- साथ अपना अस्तित्व भी सदा सर्वदा के लिए समाप्त हो जाय।

        एक कूटनीतिक अनुमान यह है कि जापान की तरह अणु शक्ति का सीमित प्रहार करके विपक्ष को घुटने टेकने के लिए विवश किया जाय और अपनी वरिष्ठता की छाप छोड़कर उससे मनमाना लाभ उठाया जाय? समझा जाना चाहिए कि जापान वाली घटना की अब पुनरावृत्ति हो सकना कठिन है। तब एक ही आक्रमणकारी शक्ति थी, जो अस्त्र थे वे एक के ही हाथ में थे। अब वे इतने अधिक देशों के पास इतनी, अधिक मात्रा में हैं कि सिलसिला आरम्भ होते ही उसकी शृंखला चल पड़ेगी और फिर मूँछ नीची करने की अपेक्षा मिट जाने या मिटा देने की अधीरता अहन्ता पूरे जोश खरोश भरे प्रतिशोध के साथ चल पड़ेगी।

अब सीमित युद्ध नाम की कोई सम्भावना नहीं रही। अब सर्वनाश या सहजीवन इन दो के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है। अब आकाश- पाताल में यकायक झपट्टा मारने और शिकार को पंजों में दबाकर उड़ने की सम्भावना भी नहीं रही और न समुद्र के गर्भ में अग्नि बाण छोंड़े जा सकते हैं। अस्त्र भण्डारों से भी बढ़कर अब गुप्तचरों के जाल बिछे हुए हैं। किसी योजना को आकस्मिक कार्यान्वित कर बैठने और सामने बाले को पता न चलने देने अथवा सभी गुप्त प्रकट प्रहार क्षेत्रों को काबू में कर लेने की बात भी नहीं बनने वाली।

    आतंक का सबसे बड़ा कारण है भय और अविश्वास। सामने वाले को आक्रमणकारी मानकर अपनी सुरक्षा की दुहाई देते हुए अस्त्र भण्डार बढ़ाने और युद्ध के लिए उपयुक्त क्षेत्र ढूँढ़ने के कुचक्र में आज के राजनेता उलझकर रह गये हैं। किन्तु इस कल्पना में अत्युक्ति की भरमार है। हर कोई अपनी सुरक्षा चाहता है, किन्तु आज की स्थिति में वह आशंकाओं का निवारण करने वाले उपाय अपनाकर ही कार्यान्वित किये जा सकते हैं। वास्तविकता यह है कि सामने वाले को डराने के लिए ही धमकी के रूप में यह आतंक गढ़ा जा रहा है। किसी के मन में भी मिटने या मिटाने का निश्चय नहीं है। यह तब होता जब स्वयं सुरक्षित रह सकने की कोई गुंजायश रही होती। जो ऐसी कल्पना करता है वह वस्तुस्थिति से अपरिचित रह रहा है।

      यथार्थता यह है कि ऐसे वीभत्स रचने का कलंक कोई अपने सिर पर लेना नहीं चाहता। दूसरे की ओर से आक्रमण दिखाकर स्वयं चढ़ बैठने जैसा भी छद्म नहीं चल सकता है। ऐसी कल्पनाएँ सभी के मस्तिष्क में उठती और बबूले की तरह फूटती रहती हैं कोई इस निश्चय पर नहीं पहुँच पाता कि ऐसी किसी अनीति को अपनाकर विजय प्राप्त की जा सकी है।

सचाई यह है कि दोनों पक्ष ही डर रहे हैं और दोनों ही शान्ति चाहते हैं। इस वास्तविकता पर दैवी तत्वों की साक्षी स्वीकार की जा सकती है। हमारा पूरे साहस के साथ कथन है कि एक अधिक ईमानदार और साहसी पक्ष को अपनी ओर से एक पक्षीय पहल करनी चाहिए। दोनों की सहमति की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह तब तक सम्भव नहीं जब तक कि कोई एक बिना शर्त की पहल करने को तैयार न हो। ऐसा हो तो दूसरे पक्ष को झक मारकर झुकना पड़ेगा। विश्व शान्ति को जो अकारण नष्ट करने का साहस करेगा वह अपने मित्रों को भी शत्रु बना लेगा और छद्म के सहारे देर तक जीवित न रह सकेगा।

      जापान पर एकपक्षीय अणु प्रहार होने का परिणाम यह हुआ कि संसार भर की सहानुभूति उस पीड़ित के साथ हो गई। न्याय बचाने के लिए उसे स्वतन्त्र भी करना पड़ा और ऐसा समझौता जो सस्ते में नहीं हो गया। जिस दिन आइन्स्टीन ने जापान पर अणु बम गिरने का समाचार सुना उसी दिन से वे अत्यन्त दुःखी और गम्भीर देखे गये। विज्ञान क्षेत्र को नमस्कार कर दिया। वायलिन बजाया और नाव में घूमकर दिल बहलाया करते थे। अधिक बीमार पड़ने पर डाक्टरों की एक छोटा आपरेशन करने की बात को भी अस्वीकार कर दिया और जल्दी शरीर छूटने की कामना की। मरते समय उनने कड़ी हिदायत की कि उनका कोई स्मारक न बनाया जाय। यह प्रकारान्तर से विजेता पक्ष की हार है।

     आगे भी लोकमत जीवित रहेगा। स्रष्टा का लम्बा हाथ कार्यरत रहेगा। जो शान्ति के साथ- विश्व के मानव समुदाय के साथ खिलवाड़ करेगा वह चैन से न बैठ सकेगा और न विजय के लाभ से लाभान्वित हो सकेगा। जीत उसकी होगी, सराहनीय भी वही होगा जो अपनी ओर से कदम बढ़ाकर- सुरक्षा की चिन्ता किये बिना इस विभीषिका को निरस्त करेगा और शान्ति का पक्षधर होने की बात कथनी से नहीं करनी में सिद्ध करेगा। जो भी बहादुर हो- जो भी विवेकशील हो उसे सामने वाले की प्रतीक्षा किये बिना एकाकी पहल का शुभारम्भ करना चाहिए। जो करेगा वह घाटे में न रहने पाये इसकी जिम्मेदारी महाकाल ने ली है।

मात्र राजनीति को ही नहीं इस निर्णय में उन्हें भी शामिल होना चाहिए जो युद्ध के उपकरण बनाते हैं और उसी व्यवसाय में धन कुबेर बनना चाहते हैं भले ही असंख्यों के प्राण जाँय और असंख्यों अनाथ बिलखें। यह व्यवसाय बड़ा घिनौना है और उससे भी बुरी बात यह है कि युद्ध का वातावरण बनाने के लिए आये दिन कहीं न कहीं कुछ न कुछ मार- काट मचाते रहा जाय। ऐसी स्थिति में ही दोनों पक्ष हथियार खरीदते हैं और चन्द व्यापारी मौत के सौदागर बनकर धनी बनते हैं।

      इस वर्ग को भी हमारा निवेदन है कि समय रहते अपनी गतिविधियाँ बदल दें। अपने साधनों को एक ओर से समेट कर दूसरे कार्यों में लगायें। सृजन के अनेकानेक काम बाकी पड़े हैं। गरीबी, बेकारी, बीमारी, अशिक्षा से निपटने के लिए उपयोगी व्यापार हजारों हो सकते हैं। पशु पालन, सिंचाई, सफाई, बिजली, गृह उद्योग जैसे अगणित छोटे- बड़े काम मौजूद हैं जिनमें वह पूँजी लगाई जा सकती है जो विनाश के साधन विनिर्मित करने में लगी हुई है। अभी तो यही समझा जाता है कि यह धन कुबेर ही राजनेताओं पर दबाव डालकर- जहाँ तहाँ छोटी- बड़ी लड़ाइयाँ खड़ी कराने के निमित्त कारण हैं।
      जो हो समझदारी हर किसी को अपनानी चाहिए। विशेषतया जिनका अनाचार समूची मानवता के प्रति अपराध करता है। ऐसे लोगों के लिए ही यह कहा गया है कि- ‘‘जो सताता है वह सताया जायेगा जो मिटाता है वह मिटाया जायेगा।’’

   हमारी हार्दिक इच्छा यह है कि यह पंक्तियाँ उन शासनाध्यक्षों और उद्योगपतियों को पढ़ने को मिलें जो युद्ध के- विनाश के निमित्त अपने कौशल और साधन को नियोजित किये हुए हैं। काश, वे समय रहते इस सलाह को नहीं, चेतावनी को ध्यान में रख सकें तो उनकी दिशाधारा बदलेगी। रीति- नीति में आमूलचूल परिवर्तन होगा। वह परिवर्तन समूची मानव- जाति के भाग्य भविष्य का कायाकल्प कर सकने में समर्थ होगा। जिन्हें आज धरती पर रहने वाले शैतान समझा जाता है उन्हें बदली हुई परिस्थितियों में भगवान् कहा जायगा।

    एक मार्ग पर चलने वाला प्रवाह रोककर यदि दूसरी दिशा में मुड़ेगा, तो उसका परिणाम चमत्कारी होगा। करोड़ों को जिस चक्की में परोक्ष रूप से पिस रहे हैं या पिसने जा रहे हैं उनके चेहरों की उद्विग्नता को यदि आशा, प्रगति और प्रसन्नता में बदला जा सके, तो जिनके शिर पर आज विनाश के नियोजन का कलंक है उन्हें सृजन का श्रेय भी मिलेगा। क्योंकि शक्तियाँ स्थिर तो रहेंगी नहीं। समुद्र में डुबोई भी नहीं जा सकेंगी उन्हें विनाश से विरत किया जाएगा तो सृजन में निरत हुआ आयगा। विज्ञान वैभव कौशल की क्षमताएँ यदि मानव जाति के अभिनव सृजन में- उत्कर्ष के उपयुक्त साधनों में नियोजित की जायेंगी, तो वातावरण कुछ से कुछ हो जायेगा। नरक को स्वर्ग बनाना इसी को कहते हैं।

      कहना चाहिए, तो शिष्टाचार वश कहा जा रहा है। वास्तविकता यह है कि यही करना होगा। इच्छा से भी और अनिच्छा से भी। स्रष्टा का व्यवस्थाक्रम और प्रकृति का सन्तुलन ऐसा है जिसमें समय- समय पर दुर्बुद्धिग्रस्त को सीधी राह पर खड़ा किया है। इस बार भी वे अपना काम करने और उलटों को उलटकर सीधा बनाने में लग पड़ी हैं। अच्छा हो प्रताड़ना और विवशता से बदलने की अपेक्षा दूरदर्शिता अपनाते हुए ही- सोचने का तरीका और काम करने का ढंग बदल लिया जाय।

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