विराट् ब्रह्म की कल्पना में- विश्वपुरुष के शरीर में जहाँ- तहाँ विभिन्न
देवताओं की उपस्थिति बताई गई है। गौ माता के शरीर में विभिन्न देवताओं के
निवास का चित्र देखने को मिलता है। मनुष्य- शरीर भी एक ऐसी आत्मसत्ता का
दिव्य मन्दिर है, जिसमें विभिन्न स्थानों पर विभिन्न देवताओं की स्थिति
मानी गई है। धार्मिक कर्मकाण्डों में स्थापना भावभक्ति के आधार पर की जाती
है। न्यासविधान इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए है। सामान्यतः: ये सभी देवता
प्रसुप्त स्थिति में रहते हैं, अनायास ही नहीं जाग पड़ते। अनेक साधनाएँ,
तपश्चर्याएँ इसी जागरण के हेतु की जाती हैं, सोते सिंह या सोते सर्प
निर्जीव की तरह पड़े रहते हैं, पर जब वे जाग्रत होते हैं, तो अपना पूरा
पराक्रम दिखाने लगते हैं। यही प्रक्रिया मंत्र- साधना द्वारा भी पूरी की
जाती है। इस तथ्य को इस रूप में समझा जा सकता है कि मंत्र- साधना विशेषतः:
गायत्री- उपासना से एक प्रकार का लुंज- पुंज व्यक्ति जाग्रत्, सजीव एवं
सशक्त हो उठता है। उसी उभरी विशेषता को मंत्र की प्रतिक्रिया या फलित हुई
सिद्धि कह सकते हैं।
गायत्री मंत्र के चौबीस अक्षरों में
सम्बद्ध विभूतियों के जागरण की क्षमता है, साथ ही हर अक्षर एक ऐसे सद्गुण
की ओर इंगित करता है, जो अपने आप में इतना सशक्त है कि व्यक्ति के
व्यक्तित्व का हर पक्ष ऊँचाई की ओर उभारते हैं और उसकी सत्ता अपने आप ही
अपना काम करने लगती है। फिर उन सफलताओं को उपलब्ध कर सकना संभव हो जाता है,
जिनकी कि किसी देवी- देवता अथवा मंत्राराधन से आशा की जाती है। ओजस्,
तेजस्, वर्चस्, इन्हीं को कहते हैं। प्रथम चरण में सूर्य जैसी तेजस्विता,
ऊर्जा और गतिशीलता मनुष्य में उभरे तो समझना चाहिए कि उसने वह बलिष्ठता
प्राप्त कर ली, जिसकी सहायता से ऊँची छलांग लगाना और कठिनाइयों से लड़ना
संभव होता है। इसी प्रकार दूसरे चरण में देवत्व के वरण की बात है। मनुष्यों
में ही पशु, पिशाच और देवता होते हैं। शालीनता, सज्जनता, विशिष्टता,
भलमनसाहत देवत्व की विशेषताओं का ही प्रतिनिधित्व करती है। तीसरे चरण में
सामुदायिक सद्बुद्धि के अभिवर्द्धन का निर्देशन है। अकेला चना भाड़ नहीं
फोड़ता, एक तिनका रस्सा नहीं बनता, एक सींक की बुहारी क्या काम करेगी?
इसलिए कहा जाता है कि एकाकी स्तर के चिंतन तक सीमित न रहा जाए, सामूहिकता,
सामाजिकता को भी उतना ही महत्त्व दिया जाए- सद्बुद्धि से अपने समेत सबको
सुसज्जित किया जाए। यह भूल न जाया जाए कि दुर्बुद्धि ही दुष्टता और
भ्रष्टता की दिशा, उत्तेजना देती है और यही दुर्गति का निमित्त कारण बनती
है।
दर्शन और प्रक्रिया मिलकर ही अधूरापन दूर करते हैं। गायत्री
मंत्र का उपासनात्मक कर्मकाण्ड भी फलप्रद है, क्योंकि शब्द- गुम्फन अन्त:
की सभी रहस्यमयी शक्तियों को उत्तेजित करता है, पर यह भी भूला न जाए कि
स्वच्छ, शुद्ध, परिष्कृत व्यक्तित्व जब गुण- कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता से
परिष्कृत- अनुप्राणित होता है, तभी वह समग्र परिस्थिति बनती है, जिसमें
साधना से सिद्धि की आशा की जा सकती है। घिनौने, पिछड़े, अनगढ़ और कुकर्मी
व्यक्ति यदि पूजा- पाठ करते भी रहें, तो उसका कोई उपयुक्त प्रतिफल नहीं
देखा जाता। ऐसे ही एकांगी प्रयोग जब निष्फल रहते हैं तो लोग समूची उपासना
तथा आध्यात्मिकता को व्यर्थ बताते हुए देखे जाते हैं। बिजली के दोनों तार
मिलने पर ही करेंट चालू होता है अन्यथा वे सभी उपकरण बेकार हो जाते हैं, जो
विभिन्न प्रयोजनों से लाभान्वित करने के लिए बनाए गए हैं। इसीलिए उपासना
के साथ जीवनसाधना और लोकमंगल की आराधना को भी संयुक्त रखने का निर्देश है।
पूजा उन्हीं की सफल होती है, जो व्यक्तित्व और प्रतिभा को परिष्कृत करने
में तत्पर रहते हैं, साथ ही सेवा- साधना एवं पुण्य- परमार्थ को सींचने, खाद
लगाने में भी उपेक्षा नहीं करते। त्रिपदा गायत्री में जहाँ शब्द- गठन की
दृष्टि से तीन चरण हैं, वहीं साथ में यह भी अनुशासन है कि धर्म- धारणा और
सेवा- साधना का खाद- पानी भी उस वट- वृक्ष को फलित होने की स्थिति तक
पहुँचाने के लिए ठीक तरह सँजोया जाता रहे।