‘‘समाधान है।’’
क्या-स्वर उल्लासपूर्ण था, जैसे सृष्टि का वैभव एक साथ आ जुड़ा हो।
भाव-संवेदनाओं का जागरण इसे दूसरे शब्दों में सोई हुई आत्मा का जागरण भी कह सकते हैं।’’
‘‘और अधिक स्पष्ट करें? ’’
‘‘आपने मानव जीवन की विकृति को पहचाना, अब प्रकृति को और गहराई से पहचानिए, निदान मिल जाएगा। ’’
‘‘क्या है प्रकृति?’’
‘‘मनुष्य के सारे क्रियाकलाप अहं-जन्य हैं और बुद्धि-मन-इंद्रियाँ सब बेचारे इसी के गुलाम हैं। मानवीय सत्ता का केंद्र आत्मा है, यह परमात्म सत्ता, अर्थात् सरसता, सक्रियता और उन्नत भावों के समुच्चय का अंश है। आत्मा का जागरण अर्थात् उन्नत भावों, दिव्य संवेदनाओं का जागरण। न केवल जागृति वरन् सक्रियता, श्रेष्ठ कार्यों के लिए ,दिव्य जीवन के लिए। ’’
‘‘पर भाव तो बहुत कोमल होते हैं-महर्षि के स्वरों में हिचकिचाहट थी।
‘‘नहीं, ये एक साथ कोमल और कठोर दोनों हैं। सत्प्रवृत्तियों के लिए पुष्प जैसे कोमल, उनमें सुगंध भरने वाले और दुष्प्रवृत्तियों के लिए वज्र की तरह, एक ही आघात में उन्हें छितरा देने वाले।......भावों के जागते ही उनका पहला प्रहार अहंकार पर होता है। उसके टूटते-बिखरते ही ,मन और बुद्धि आत्मा के अनुगामी बन जाते हैं। मन तब उन्नत कल्पनाएँ करता है, बुद्धि हितकारक समाधान सोचती है। भाव संवेदनाओं का जागरण एकमेव समाधान है, व्यक्ति विशेष का ही नहीं........समूचे मानव-समूह का। मन और बुद्धि दोनों को कुमार्ग के भटकाव से निकालकर, सन्मार्ग पर लगा देने की क्षमता भावसंवेदनाओं में ही है। ’’
‘‘पर मानवीय बुद्धि बड़ी विचित्र है। कहीं भावों की जगह कुत्सा न भड़का लें? ’’
‘‘आपकी आशंका निराधार नहीं है महर्षि, किंतु इस कारण भयभीत होकर पीछे हटना आवश्यक नहीं है। आवश्यक है सावधानी - जागरूकता। भाव कर्मोन्मुख होंगे, लोक हितकारी लक्ष्यों के लिए ही भाव-संवेदना का आह्वान किया जाएगा । भावों के अमृत को सद्विचारों के पात्रों में ही सँजोया जाएगा, विवेक की छन्नी से उन्हें छाना जाएगा, तो परिणाम सुखकारक ही होंगे। लेखनी से प्राण फूँकिए, जन-मानस के मर्म को इस तरह स्पर्श करिए कि हर किसी की संवेदना-सदाशयता फड़फड़ा उठे। आत्म-चेतना अकुलाकर कह उठे-नत्वहं कामये राज्यम् न सौख्यं नापुनर्भवम्। कामये दु:ख तप्तानां प्राणिनां आर्त नाशनम्।’’
‘‘जनसमूह की आत्मा अभी मरी नहीं है-मूर्छित भर है। इस मूर्छित लक्ष्मण को सचेतन, सत्कर्म में तत्पर और राम-काज में निरत करने के लिए संजीवनी चाहिए। यह संजीवनी है, भावसंवेदना। दे सकेंगे आप? यदि दे सकें तो विश्वास करें, स्थिति कितनी ही जटिल क्यों न हो? अँधेरा कितना ही सघन क्यों न हो? आत्मा के दिव्य भावों का तेज व प्रकाश उसे तहस-नहस करने में समर्थ हो सकेगा।
‘‘भाव चेतना का जागरण होते ही मनुष्य एक बार पुन: सिद्ध कर सकेगा, कि वह ईश्वर पुत्र है। दिव्यजीवन जीने में सक्षम हैं। वह धरती का देवता है और धरती को ‘स्वर्गादपि गरीयसी बना सकता है। किन्तु.....कहकर देवर्षि ने महर्षि की ओर देखा।
‘‘किन्तु क्या? ‘‘ व्यास के चेहरे पर दृढ़ता थी।
‘‘वेद व्यास के साथ उनके शिष्य परिकर को जुटना पड़ेगा। उनके द्वारा विनिर्मित संजीवनी को जन-जन तक पहुँचाने में।’’ आपके द्वारा सृजित भाव-मेघों को आपके शिष्य वायु की तरह धारण करके हर दिशा और हर क्षेत्र में पहुचाएँ। आपके द्वारा उत्पन्न इस सुगंधि को जन-जन के हृदयों तक पहुँचाएँ; इस कार्य को युगधर्म , युगयज्ञ मानकर चलें, तभी सफलता संभव होगी। ‘‘
शिष्य-परिकर अपना सर्वस्व होम कर भी युगपरिवर्तन का यह यज्ञ पूरा करेगा-महर्षि के शब्दों में विश्वास था।
‘‘तो मानव जीवन को दिव्य बनने ,आज की परिस्थितियाँ कल उलटने में देर नहीं। ‘‘-देवर्षि मुस्कराए।
‘‘मिल गया समाधान’’ -वेदव्यास ने भावविह्वल स्वरों में देवर्षि को माथा नवाया। वह जुट गए युग की भागवत रचने और शिष्यों द्वारा उसे जन-जन तक पहुँचाने में ।
और नारद? वे चल दिए, फिर किसी की संवेदनाओं को उमगाने और उसे समाधान सुझाने हेतु।