मीरा ने जीवंत मनुष्य होना स्वीकारा और उसकी हर कसौटी पर अपने को खरा साबित किया। यह चित्तौड़ की राजरानी थी। वैभव, पद, अधिकार, सम्मान और भी बहुत कुछ जिसकी आशा-अपेक्षा की जा सकती है, वह सब उसके पास था। नहीं थी सिर्फ एक चीज, मानव हितों के लिए कुछ कर गुजरने की छूट। झूठी मर्यादाओं , लोक प्रचलनों की दुहाई देकर देवर, ननद, समूचा राज-परिवार सभी आत्मा का गला घोंटने को तत्पर थे। उन्हें सब कुछ स्वीकार था, सिवाय इसके कि मीरा जनक्रांति का बीज बोए, नारी चेतना को झकझोरने के लिए प्रकाश-दीप बनने के लिए आगे आए।
प्रेतों और मनुष्यों की सारी बातें ही उलटी हैं, एक को अंधेरा अच्छा लगता है दूसरे को उजाला; एक को दूसरों को परेशान करना भाता है, दूसरे को सहयोग करना। पहले के झुंड में दूसरों का रहना बड़ी दु:खद स्थिति है। एक तरफ अवरोध, दूसरी ओर अंदर की तड़प, बेचैनी, आकुलता। मीरा के मन पर मनों भार था, उसे कोई अनुभवी ही समझ सकता था। वह महलों में पड़ी बिलखा करती-घायल की गति घायल जाने की जिण घायल होय । सूली ऊपर सेज हमारी किस विधि सोवण होय।’’
मीरा की बेचैनी प्रथा-प्रचलनों के जाल-जंजाल में जकड़े समाज के लिए थी। उनका दु:ख-दर्द समूची नारी-जाति का था। करुणा उभरी, इसकी एक ही पहचान है, अपनी आवश्यकताएँ बिसरीं और दूसरों की जरूरतें याद आईं। इसके बिना किसी पेड़ की सूखी डाल को चीरना-फाड़ना और किसी भोले-भाले आदमी की बोटी-बोटी नोंच लेना एक जैसा लगता है, पर उनका अंतर तो करुणा से भरा था। बंधन तोड़े और महलों को ठुकरा दिया; कूद पड़ी-भावों की संजीवनी लेकर अनेकों में प्राण-संचार हेतु।
उन दिनों वह घर से बाहर थी, द्वार-द्वार जाकर बता रही थी कि नारी-पुरुष प्रत्येक क्षेत्र में समान हैं। महिलाएँ उन्हें आश्चर्यचकित गर्व से देखतीं। एक दिन राजस्थान की एक महिला-केसर बाई ने उनसे पूछ ही लिया-बहन यह पुरुषों का काम क्यों कर रही हैं?’’
‘‘यह पुरुषों का काम है?’’
‘‘और नहीं तो क्या........?’’
‘‘सही कहा जाए तो, यह महिलाओं का काम है।’’
‘‘कैसे.............?
भाव-श्रद्धा की सघनता नारी की विशेषताएँ हैं। उसमें देने की प्रवृत्ति है। स्वार्थों को परहित में ठुकरा देना सिर्फ उसी के लिए स्वाभाविक है। इसी कारण वह प्राणों को देकर बालक को तैयार करती है। कष्ट सहकर परिवार को संगठित बनाए रहती है। आवश्यकता उसे और अधिक व्यापक बनाने की है।’’
‘‘सही है।’’ केसर बाई को तथ्य समझ में आ चुका था। षड्यंत्रकारियों के प्रयास चलते रहे, साँप पिटारी, जरह का प्याला, सभी तरह के शिगूफे रचे गए। पर दैवी चेतना का संरक्षण इन सभी से शक्तिशाली है। उन्होंने लिख भेजा-थारी मारी न मरूँ, मेरो राख्या हारा और।’’
प्रश्न यह नहीं है कि मीरा को सफलता कितनी मिली? अंदर पीड़ा-पतन के बंधनों को तोड़ने के लिए बेचैनी उठे, पग क्रियाशीलता की ओर बढ़े-यह इतनी बड़ी सफलता है, जिस पर हजारों हजार सफलताएँ न्योछावर हैं।
संवत् १६३० वि. तक वह जीवित रहीं। जीवित रहने का मतलब श्वाँस-प्रश्वाँस की गति से नहीं, वरन् उस दीप के समान है, जो अनेकों बुझे जीवनों में नवज्योति का संचार करता है। घर-घर जाकर अपना दर्द बाँटती रहीं, प्रत्येक अंतस् में एक कसक पैदा करने की कोशिश करती रहीं।