भाव संवेदनाओं की गंगोत्री

संकल्प जागा तो निष्ठुर भी बदला

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
श्रद्धांजलि उसी को अर्पित की जाती है, जिसने अपने अंदर की इस दिव्य संपदा को जीवन की सतह पर उभारा हो। जिसके जीवन को देखकर औरों के मन में कभी करुणा का प्रवाह उमगने लगे। हर किसी के जीवन में वैसे अवसर आते हैं, यहाँ तक कि नीरस-निष्करुण-निष्ठुर कहे जाने वाले पाषाण के भी; जिस क्षण से वह अपने समूचे क्रम को उलटने के लिए तैयार हो जाता है। अद्भुत होता है वह क्षण, जब अभी तक जो चोट पहुँचाने, सिर फोड़ने का काम करता था, वह संकल्प लेता है कि अब से वह घनीभूत भावपुँज बनेगा, दूसरों की दिव्यता को उमगाने-छलकाने में सहायक बनेगा। संकल्पित होते ही हथौड़ी की चोट से धारदार छैनी के हर घात के साथ निकाल- फेंकता है, अपनी क्रूरता को, निष्ठुरता को ,उत्पीड़न की वृत्ति को। लगातार की यह अनोखी तपश्चर्या उसे भावों की प्रतिमा का रूप देती है। जन-जन को दिखाई देता है, यह अनोखा परिवर्तन। हर कोई आश्चर्य व हर्ष से विभोर हो कहता है ‘‘अरे उत्पीड़क अब घावों में मरहम लगाने वाला हो गया। चलकर हम भी सीखें, यह अनोखी कला।’’ आकर फूल चढ़ाते हैं, माथा नवाते हैं और आशीर्वाद माँगते हैं। बदले में वह एक ही बात कहता है, मेरी ओर देखो। हर क्षण हो सकता है ,परिवर्तन का पर्व। इसी पल से अपने को बदलना शुरू कर दो।

    ऐसा ही एक चमत्कारी क्षण आया, अशोक के जीवन में। उन दिनों वह अशोक महान् न होकर चंड-अशोक था। कलिंग के युद्ध का शिविर । आज हुई विजय के पश्चात् उल्लास का पर्व मनाया जा रहा था। अहंकार व सत्ता के मद में चूर सैनिक अधिकारी घूम रहे थे। इसी बीच सम्राट् ने महा सेनापति को बुलाया। कुछ ही क्षणों के बाद वह सम्राट् के शिविर में थे।

    सेनापति! युद्धबंदी कितने हैं?

    -‘‘सिर्फ एक।’’

    ‘‘एक! ’’ अशोक के आश्चर्य का ठिकाना न रहा।

    ‘‘बाकी कलिंग के.....किशोर और वृद्ध, उन्होंने भी तलवार उठा ली थी सम्राट्।’’

    ‘‘उन्होंने भी! ’’

    ‘‘हाँ। ’’

    ‘‘तब तो अब कलिंग में महिलाएँ भर रह गई?’’

    ‘‘वह भी नहीं रहीं।’’

     ‘‘क्यों?’’

    ‘‘अंतिम लड़ाई हमें उन्हीं से लड़नी पड़ी ।’’

    ओह-कहकर वह किसी चिंतन में डूब गया।

     ‘‘अच्छा, युद्धबंदी को हाजिर करो।’’

    ‘‘जो आज्ञा।’’

    ‘‘थोड़ी ही देर बाद एक लंगड़ा, झुर्रीदार चेहरे वाला बूढ़ा सामने         था-तो तुम हो!’’

     ‘‘हाँ मैं ही हूँ-आपकी विजय का उपहार।’’ बूढ़े के स्वरों में रोष था। ‘‘विजय का उपहार और तुम ’’ -‘‘कहकर सम्राट् हँस पड़ा ‘‘तो मेरी वीरता का सामना कलिंग निवासी नहीं कर सके। क्यों सेनापति ? ’’ कहकर उसने पास खड़े सेनापति की ओर देखा।

    वह चुप था।

    ‘‘वीरता नहीं, क्रूरता कहिए-बूढ़ा बोल पड़ा।

     ‘‘क्रूरता?’’

    ‘‘हाँ, लाशों के लोभी वीर नहीं हुआ करते। कुत्ते, गिद्ध, स्यारों के चेहरे पर भी लाशों को देखकर प्रसन्नता नाच उठती है, पर उन्हें वीर नहीं कहा जा सकता ।’’

    ‘‘चुप रहो.......सम्राट् जैसे चीख पड़ा।

    ‘‘कौन चुप रहे? नृशंस अथवा वह, जिसका रोम-रोम पीड़ा से चीत्कार कर रहा है?’’ बूढ़े ने विषैली हँसी हँसते हुए कहा-अपनी क्रूरता को जाकर युद्ध-भूमि में देखना, वहाँ हम जैसे कुछ और मिलेंगे।’’

    ‘‘इस बूढ़े को यहाँ से हटाओ-सम्राट् ने झल्लाकर कहा। सम्राट के कथन का बूढ़े पर कोई असर न था। उसने जाते-जाते कहा-सताए हुओं के कष्ट हरने, उत्पीड़ितों के उत्पीड़न को दूर करने का नाम वीरता है। वीरों के लिए कहा गया है- क्षत्रिया: त्यक्तजीविता:’’ अर्थात् जो दूसरे के लिए स्वयं के जीवन का मोह भी त्याग दे। जो हँसती-खेलती जिंदगियाँ बरबाद करें, वह क्रूर है, उन्मादी है।’’ शिविर से बाहर ले जा रहे बूढ़े के ये स्वर अशोक के कानों में हथौड़ी की तरह बजने लगे।

    रात बेचैनी में कटी, वीरता और क्रूरता की व्याख्या उसके अंतर को कचोटती रही तो क्या वह वीर नहीं है? फिर वीरता के लिए किया गया यह सब कुछ ?’’-प्रश्न शून्य में विलीन हो गया कोई उत्तर नहीं था।

    सुबह उठते ही उसने कहा-उस बूढ़े को बुलाओ।’’ सैनिक दौड़ पड़े। थोड़ी देर बाद वे फिर हाजिर थे, पर खाली हाथ, सिर झुकाए।

     ‘‘क्या? ’’

     ‘‘वह मर गया सम्राट्!’’

    ‘‘अरे! ’’

    थोड़ी ही देर बाद सेनापति हाजिर हुए, उन्होंने बताया राजवैद्य ने परीक्षा करके घोषित किया है कि असह्य मानसिक पीड़ा का आघात उसे सहन नहीं हुआ उसने दम तोड़ दिया।

    ‘‘वह भी गया’’- अशोक बुदबुदाया।

    अपराह्न में सम्राट् अपने मंत्रियों, सैनिकों, अधिकारियों के साथ युद्ध भूमि में थे। वहाँ थी सिर्फ लाशे, हाथी, घोड़े, आदमी, औरतों की कटे-बिखरे छितराए अंग। जिन्हें कुत्ते, स्यार, गिद्ध इधर-उधर घसीट रहे थे और खुश हो रहे थे।

    उसे रह-रहकर बूढ़े की बातें याद आने लगीं। किले के अंदर घुसने पर मिला राख का ढेर तो उसने विजय किया है-श्मशान को । अब वह किन पर शासन करेगा लाशों के ढेर पर? उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। सम्राट् के अंतराल में सोई आत्म-चेतना अगड़ाइयाँ ले रही थी।

    वह शिविर में लौट आया। अब उसके मन में आज से सात साल पहले के दृश्य घूम रहे थे-भाइयों के साथ लड़े गए भीषण युद्ध-नर संहार। विनाश-ध्वंस हँसते को रुलाना, जिंदे को मारना , मरे को कुचलना-यही था अब तक। यही था अब तक का उसका कर्तृत्व, जिसके बलबूते वह वीर कहलाने की डींग हाँकता आया था। पर अब.........?

    शिविर उखड़ रहे थे, वह मगध की ओर जा रहा था, पर मन में था, परिवर्तन का संकल्प; क्रूरता को वीरता में बदलने का। न उसे बूढ़ा भूल रहा था और न कलिंग के लाखों लोगों का सर्वनाश। वह रक्त की प्रबल धारा, हताहतों का आर्तनाद। अंदर की बेचैनी की प्रबलता बढ़ती जा रही थी।

    मगध पहुँचकर उसने आचार्य उपगुप्त को बुलवाया।

    आचार्य आए।

    उसका पहला प्रश्न था-वीरता और क्रूरता क्या है?’’

    ‘‘त्रास से घिरे लोगों को बचाने, उनको सुख पहुँचाने हेतु अपने जीवन तक के मोह को तिलांजलि देकर जुट पड़ने का नाम वीरता है और क्रूरता........।’’ उसने सम्राट के चेहरे की ओर देखा। कुछ रुक कर कहना शुरू किया-बसी हुई बस्तियों को उजाड़ देना, खड़ी फसल में आग लगा देना, शोषण, उत्पीड़न का चक्र चलाना, इसी का नाम क्रूरता है।’’

    ‘‘कैसा साम्य है, उस बूढ़े के और इन आचार्य के कथन में, अशोक ने मन ही मन सोचा।

    ‘‘आचार्य! मैं वीर बन सकता हूँ?’’ सम्राट् के स्वरों में पश्चात्ताप का पुट था।

    ‘‘हाँ क्यों नहीं?’’ आचार्य की वाणी में मृदुलता थी।

     ‘‘पर किस तरह?’’ अब वाणी में उल्लास था।

     ‘‘अंदर के दिव्यभावों को जगाकर । उन्हें जीवन के सक्रिय क्षेत्र अर्थात् आचरण व व्यवहार में उतार कर।’’

     ‘‘क्या पहचान है, इन भावों के जगने की?’’

    ‘‘उदार आत्मीयता , अपनत्व का विस्तार, फिर कोई पराया नहीं रह जाता। दूसरों की तकलीफें स्वयं को निष्क्रिय, निठल्ला बने रहने नहीं देंगी। पैर उस ओर स्वयं बढ़ते, हाथ सेवा में जुटे बिना नहीं रहते......एक और चिह्न है-’’

    ‘‘वह क्या?’’ अब स्वरों में उत्सुकता थी।’’

    ‘‘स्वयं के जीवन का स्तर समाज के सामान्य नागरिक जैसा हुआ कि नहीं? यदि मन के किसी कोने में अभी वैभव को पाने का लालच, सुविधा-संवर्द्धन की आतुरता है; बड़प्पन जताने, रौब गाँठने की ललक है, तो समझना चाहिए कि भावों का स्रोत अभी खुला नहीं है।’’

    ‘‘ भावों का स्त्रोत खुले और अविरल बहता रहे, क्या इसके लिए कोई उपाय नहीं है?’’

    ‘‘है क्यों नहीं।’’

    ‘‘क्या ?’’

        ‘‘स्वाध्याय और सत्संग। युगावतार भगवान् तथागत के चिंतन को पियो। जिन्होंने उनके चिंतन के अनुरूप जीना शुरू किया है, उनका सत्संग करो। रोज न सही तो साप्ताहिक ही सही। ऐसे परिव्राजकों को आज बड़ी संख्या में तैयार किया जा रहा है, जो घूूम-घूमकर जनमानस को युग की भावधारा से अनुप्राणित करें। उनके मर्म को स्पर्श कर संवेदनाओं को उभारें ।’’

    बात समझ में आ गई। उसके उत्साह का पारावार न था। चंड-अशोक के कदम अब महान् की ओर बढ़ने लगे। उसने भली-भाँति जान लिया था कि करुणा की दिव्यता और महत्त्वाकांक्षाओं की मलीनता, दोनों परस्पर विरोधी हैं। जहाँ एक रहेगी, वहाँ दूसरे का ठहरना-टिकना बिलकुल असंभव है। एक ही प्रेरणा है कि अपनी सामर्थ्य के कण-कण को जनहित में लगाओ, जबकि दूसरी यही सिखाती रहती है कि किस चालाकी से दूसरों की आवश्यकताओं को भी हड़पकर अपने और लड़के-नातियों के लिए जमा किया जाए?

    अशोक की जाग्रत आत्मचेतना ने महत्त्वाकांक्षा को ठोकर मारकर स्वयं के व्यक्तित्व से बाहर निकाल फेंका था। क्रूरता को तोड़-मरोड़ कर कूड़े के ढेर में डाल दिया और जुट गया शांति और सद्भाव की भावधारा बहाने में। समूचे साम्राज्य को प्रेम के शीतल जल से सींचना शुरू किया। साम्राज्य का संचालन ही नहीं, व्यक्तिगत जीवन भी अब अपने परिवर्तित स्वरूप में था। सभी के कहने-सुनने मना करने के बाद भी उसने अपनी आवश्यकताओं को कम कर लिया। समाज का सबसे गरीब अधिकतर जिस तरह जीता है, सम्राट् उसी तरह जीने लगा। ऐतिहासिक विवरण के अनुसार उसकी कुल संपत्ति थी, एक चीवर और एक सुई। केशों के लिए एक छुरा, जल छानने के लिए एक छलनी और एक तूंबा जो उसका अभिन्न संगी बना। उसने एक शिलालेख में कहा है-मैं सभी जनों के मंगल के लिए कार्य करूँगा। सभी के हित में मेरा हित है, इससे मैं कभी विमुख न रहूँगा। जीवन की सफलता के यही सूत्र हैं।’’

    इतना सब करने के बाद उसे हमेशा एक ही टीस बनी रहती, सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन के निमित्त अधिकतम मैं क्या करुँ? एक दिन वह स्वयं आचार्य उपगुप्त के पास गया। पूछा-मैं और अधिक क्या करुँ?’’

    ‘‘संघ के संचालन के लिए अपनी संपत्ति का एक अंश और समाज के जन-जन तक सद्विचारों का सरिता-प्रवाह फैलाने के लिए समय। सद्विचारों का यह प्रवाह अंतस्थल के कलुषों-कल्मषों को धोता और आत्मसत्ता को झकझोर कर जगाता है।’’

    ‘‘संपत्ति की बात तो ठीक है, पर मैं स्वयं बूढ़ा हो चला हूँ, यदि अपने पुत्र को जन-चेतना को जगाने हेतु समर्पित कर दूँ तो?’’

    ‘‘अत्युत्तम विचार है!’’

    पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा ने पिता का बदला हुआ स्वरूप देखा था। देवानांप्रिय अशोक की वह सात्त्विकता जनकल्याण की उसी टीस को अनुभव किया था, जिसकी ऊर्जा दिन-रात उन्हें क्रियाशील बनाए रखती थी।

    पिता के आदर्शों पर पुत्र को चलने का अवसर मिल रहा है, उतना ही नहीं, उससे अधिक। इससे अधिक सौभाग्य क्या? पुत्र और पुत्री में क्या भेद? भाई कर सकता है, तो बहन क्यों नहीं ?

    भाई और बहन दोनों तैयार हुए। उन्हें समाज-देवता की अर्चना हेतु समर्पित करते हुए उनकी आँखों में आँसू थे। दु:ख के नहीं प्रसन्नता के। सम्राट ने इस अवसर पर उपस्थित जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा-पिता संतान को विरासत में कुछ देता है, सारी जिंदगी की जोड़ी हुई कमाई उसे सौंपता है। मैं भी अपने बेटे-बेटी को जिंदगी की कमाई के रूप में अपने कलेजे की कसक दे रहा हूँ। वह बेचैनी दे रहा हूँ, जिसकी प्रचंड ऊर्जा मुझे अनवरत सक्रिय बनाए रखती है।’’

    महेंद्र और संघमित्रा दोनों के मुख से एक साथ निकला-हम धन्य हुए ऐसी विरासत पाकर।’’

        संतान और पिता एक-दूसरे से अलग हुए। पर अलग कहाँ? भावों के सदृश्य सेतु से वह सघनता से जुड़े थे। ईसा पूर्व २३२ वें साल तक वह जीवित रहे। परवर्ती जीवन में उन्होंने स्वयं परिव्रज्या की। अपने कर्तृत्व के माध्यम से बताया कि यथार्थ में वीरता, वह संवेदनशील जीवन है, जो दूसरों की तकलीफों को दूर करने के लिए तत्पर होता है और वैसा ही करने की प्रेरणा देता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118