भाव संवेदनाओं की गंगोत्री

संवेदना की दिव्य दृष्टि

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धरती का स्वर्गीकरण महाकाल का निश्चय है, जो अचल और अटल है; जिसे होना है, होकर रहेगा। इन दिनों हमारा एक ही कर्तव्य है, अपनी दिव्य-संवेदनाओं का जागरण। यही वह तरीका है, जिसे अपनाकर हम भावी परिस्थितियों में रहने लायक हो सकते हैं। करना उसी तरह होगा, जैसे ठक्कर बापा ने किया।

    उन दिनों बढ़वाण में मुख्य इंजीनियर थे। रहन-सहन भी पढ़ाई के अनुरूप था। एक बार सफाई करने वाला हरिजन उनके मकान मेें मैला साफ करने आया। उसका सूखा शरीर, मरियल चेहरा, फटे कपड़े, उसकी दीनता की कहानी रो-रोकर सुना रहे थे। इंजीनियर अमृत लाल ठक्कर ने उसे सलाह दी-भाई साफ-सफाई से रहा करो, कपड़े थोड़ा ठीक पहनो।’’ हरिजन व्यक्ति ने कहा-‘‘ बाबू, मैं इंजीनियर नहीं हूँ, जो कोट-पैंट पहन सकूँ।’’

    ‘‘क्या कठिनाइयाँ हैं-ठक्कर ने पूछा।

    ‘‘ वैभव की दीवारों और शान-शौकत की पहरेदारी में, गरीबों की बिलखती आवाजें नहीं घुसा करती हैं। शायद आप हमारी स्थिति में रहते, तो समझ पाते।’’ बूढ़े के वाक्यों ने तीर की तरह उनके मर्म को भेद दिया। गहरी तिलमिलाहट हुई। ठीक ही तो कह रहा है, यह व्यक्ति। कोरी वाणी ने कब किसका कल्याण किया है? संवेदनशील की एक ही पहचान है, वह जो भी कहता है, आचरण से। यदि ऐसा नहीं है, तो समझना चाहिए कि बुद्धि ने पुष्पित वाणी का नया जामा पहन लिया है। जो हमेशा से अप्रमाणित रहा है और रहेगा। उपदेष्टा को सीखने वाले के साथ अपनी अनुभूति को एक करना पड़ता है। अपनत्व के अनुपान के बिना भला महत्त्वपूर्ण जीवन विद्या कब गले उतरी है?

    बस फिर क्या था-आ पहुँची परिवर्तन की घड़ियाँ। नौकरी छोड़ दी, कोट -पैंट को तिलांजलि दे डाली, आलीशान फ्लैट को लात मार दी और सचेतन संवेदनाओं से पोषित प्रबल प्राण लेकर आ पहुँचे हरिजनों की बस्ती में। एक टूटी-सी झोपड़ी में रहने लगे। सबके यहाँ सफाई करने वाले हरिजनों के यहाँ वे खुद सफाई करते। अब वे हरिजनों के हरिजन हो गए। उन्हें सिखाते, देखो इस स्थिति में भी किस तरह स्वच्छ रहा जा सकता है? सुसंस्कृत बना जा सकता है।

    अतिरिक्त समय में उनके बच्चों को पढ़ाते। प्रौढ़ों को पुस्तकों से पढ़कर जीवनोपयोगी बातें सुनाते, सही ढंग से रहने के तरीके बताते। आरंभ में अंशकालिक, बाद में पूर्णरूपेण सेवा में निरत अमृतलाल ठक्कर अब सभी के ठक्कर बापा हो गए थे। दु:खियों एवं पीड़ितों की पीड़ा को नीलकंठ बन पीने वाले बापा की संवेदनाओं का यह अद्भुत स्वरूप देखकर, महात्मा गाँधी ने उनके बारे में कहा-काश मैं भी बापा जैसे संवेदनाओं की पूँजी जुटा पाता, तो अपने को धन्य मानता ।’’

    देश के किसी कोने में पीड़ित मानवता की पुकार उठी हो, बापा के मन में बसे भगवान विष्णु के लिए यह गज की पीड़ा की तरह होती और वे गरुड़ वाहन छोड़कर दौड़ पड़ते। जन-करुणा की सरिता उनके पीछे-पीछे चल पड़ती।

    संवेदनशील को ही सही दृष्टि मिलती है। बाकी तो आँखों के रहते भी दृष्टि-विहीन बने रहते हैं। उन्हें मानवता की तड़फड़ाहट दिखाई नहीं पड़ती है। बापा के पास यही दिव्यदृष्टि थी। वह उस समय जयपुर में थे। जयपुर जिसे भारत का पेरिस कहा जाता है। लोग जिसके वैभव को बखान करते नहीं अघाते थे। बापा ने जयपुर देखा, विलास नहीं रुचा। उन्हें दिखी वहाँ के भंगियों की नारकीय दशा, जिसे अब तक किसी ने नहीं देखा था। उनकी रग-रग इन दीन-हीनों की पीड़ा से कराह उठी। वे जुट पड़े, जन सहयोग भी उमड़ पड़ा। वहाँ के हरिजनों की दशा सुधारी।

    किशोर लाल मश्रूवाला के शब्दों में-‘‘ बापा की संवेदनाओं के आकर्षण में बँधे-लिपटे हरि उनके पास डोलते थे।’’ बापा के शब्दों में-मेरा हरि दीन-दलितों की कुटियों में रहता है, जिससे मैं तद्रूप हो गया हूँ। एक दिन बापा दिल्ली में हरिजन निवास में बैठे गुजराती का भजन गा रहे थे-

        हरिना जन तो मुक्ति न माँगे

        माँगे जनभोजनम् अवतार रे।

        नित सेवा नित कीर्तन ओच्छाव,

        निरखवा नंद कुमार रे।।

वहाँ उपस्थित वियोगी हरि ने पूछा, ‘‘ आपने देखा है नंद कुमार को?’’ वह भाव-विह्वल हो बोल पड़े, ‘‘ क्यों नहीं? नंदकुमार का दर्शन तो मैंने कितने रूपों में किया है, आदिवासियों एवं हरिजनों के गोकुल में।’’

    नंद कुमार का दिव्य लोक पुन: धरा पर अवतरित होने की जल्दी में है। हम भी इसी शीघ्रता से संवेदनाओं को जाग्रत कर दिव्य दृष्टि युक्त हों। ऐसा न कर पाने पर शायद हमें उसी तरह भटकना पड़े जैसे अंधे भटकते हैं। भटकन से बचने के लिए स्वयं को भाव-संवेदनाओं के राज्य में रहने के योग्य बनाएँ। यही क्षण हमारी आत्मजाग्रति का क्षण सिद्ध हो।

 


    प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।


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