इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण

दैवी सत्ता का सूत्र संचालन

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विश्वास किया जाना चाहिए कि ऐसे बड़े काम महाकाल के तत्त्वावधान में, उसकी ही विनिर्मित योजना के अनुसार सम्पन्न होने हैं। वही राई को पर्वत और पर्वत को राई बनाता है। स्रष्टा निराकार होने के कारण प्रत्यक्षत: कुम्हार की तरह संरचना करते नहीं देखा जाता। महान् कार्य महान् व्यक्तियों के द्वारा सम्पन्न होते रहे हैं। यह महानता सामान्य मनुष्य की नहीं, उसी महान् की योजनानुसार होती है, जो सृजन, परिपोषण और परिपालन के लिए पूरी तरह उत्तरदायी है। वही समय-समय पर धर्म की हानि और अधर्म की बाढ़ को रोकने के लिए अपनी ऊर्जा के अनोखे प्रयोग करता है। मनुष्य जैसा अद्भुत प्राणी जिसने सृजा, जिसके नायकत्व में संसार की सारी व्यवस्था चलती है; वह जो योजना बनाए, वह अधूरी कैसे रहेगी? उसके संकल्प एवं नियोजन में प्रतिरोध कौन खड़ा करेगा?

    महत्त्वपूर्ण कार्य भगवान् करते हैं और उसके श्रेय को शरीरधारी मुफ्त में ही प्राप्त कर लेते हैं। चेतना काम करती है और शरीर को श्रेय मिलता है। तेज तूफान के सहारे पत्ते और तिनके भी आकाश चूमते हैं। नदी के प्रवाह में बहती हुई टहनी, बिना श्रम के समुद्र में जा मिलने का लम्बा सफर पूरा कर लेती है। दैवी सत्ता की सहायता से सुदामा, नरसी मेहता, विभीषण, सुग्रीव, शबरी, गिलहरी, रीछ-वानर आदि ने वह श्रेय उपलब्ध किया था, जिसे वे मात्र अपने बलबूते कदाचित ही कर पाते। वह सत्ता इन दिनों अपनी ओर से उत्सुक और प्रयत्नशील है कि श्रेयाधिकारी आगे आएँ और वह श्रेय प्राप्त करें, जो असंख्यों के लिए प्रेरणाप्रद बने तथा अनन्तकाल तक अनुकरणीय, अभिनन्दनीय समझा जाता रहे।

    दिव्यसत्ता का महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधित्व अपने ही भीतर है। उसे आत्मपरिष्कार और लोकमंगल की साधना द्वारा सहज ही अभीष्ट सहयोग के लिए आमन्त्रित किया जा सकता है। अर्जुन, हनुमान को ऐसा ही दिव्य सहयोग मिला था। असंख्य महामानव इसी आधार पर कृतकत्य हुए हैं। युग निर्माण योजना द्वारा सम्पन्न हुए अगणित लोकोपयोगी कार्य किसी व्यक्ति विशेष के पुरुषार्थ से नहीं, वरन् दैवी प्रेरणा और अनुकम्पा के आधार पर ही आश्चर्यजनक रूप से विकसित, विस्तृत एवं सफल होते रहे हैं।

    शान्तिकुञ्ज से सन् १९८९ से लेकर सन् २००० तक की एक सुविस्तृत योजना और कार्य पद्धति विनिर्मित की है। वातावरण में असाधारण उत्साह और साहस भरने का प्रयत्न किया है। आशा की जानी चाहिए कि इसके पीछे दैवी शक्ति का समर्थन होने के कारण अभीष्ट उद्देश्य पूर्ण होकर रहेगा।

    इस मिशन के संस्थापक, संचालक अपने ८० वर्ष के जीवन में सम्पन्न हुए क्रिया-कलापों के पीछे, प्रधान कारण दैवी शक्ति की अनुकूलता एवं अनुकम्पा ही मानते हैं। वे कहते हैं कि उनकी सामान्य-सी मन:स्थिति और साधनों को देखते हुए जो कुछ बन पड़ा है वह इतना अधिक है, जिसे गोवर्धन पर्वत उठाने के समतुल्य कहा जा सकता है। साहित्य सृजन, संगठन, सृजनात्मक आन्दोलन, प्रज्ञा केन्द्रों का हजारों की संख्या में निर्माण जैसे सर्वविदित कार्य ही ऐसे हैं, जिनका ब्यौरा जानने पर सहज ही यह विश्वास नहीं होता, कि इतना कुछ एक व्यक्ति द्वारा बन पड़ेगा। वे तथ्य तो एक ही बात का संकेत करते हैं, कि किसी कुशल बाजीगर की अँगुलियों के मार्गदर्शन और सहयोग से ही यह सब बन पड़ा है। अगले दिनों जो इस तन्त्र द्वारा किया जाना है, उसकी रूपरेखा समझने पर सहज बुद्धि को यह विश्वास दिलाना कठिन है कि विश्वव्यापी सृजन प्रयोजनों में जितनी प्रतिभाओं और जितने साधनों की आवश्यकता है, उनकी व्यवस्था भी हो सकेगी? किन्तु वे यह सारे काम पूर्ण करने का निश्चय कर चुके हैं। समस्याएँ इतने प्रकार की, इतनी भारी और व्यापक हैं, जिन्हें सुलझाने में स्थूल शरीर की क्षमता कम पड़ती है। उस महान् कार्य को सम्पन्न करने के लिए सूक्ष्म शक्ति को आधार बनाकर ही बड़े क्षेत्र में बड़ा काम किया जा सकता है। प्रतिभाओं का असाधारण संख्या में उत्पादन करने के सम्बन्ध में भी यही बात है। उल्टे को उलटकर सीधा करने का व्यापक कार्यक्रम भी इतना ही कठिन है। इसके लिए स्थूल शरीर सहायक नहीं, बाधक ही होगा। अस्तु; निर्णायक ने वर्तमान स्तर बदल लेने का निश्चय किया है। इसमें अब सीमित समय ही लगने वाला है।

    किसी को यह आशंका नहीं करनी चाहिए कि इंजन के बिना रेल कैसे चलेगी। इंजन को समझना हो तो सूत्र संचालक की, अदृश्य सत्ता की सामर्थ्य का आकलन करना चाहिए। जहाँ तक आचार्य जी का सम्बन्ध है, वहाँ तक वे बताते हैं कि सन् २००० तक सम्पन्न किए जाने वाले विशाल योजना क्रम को पूरा करने के लिए उन्होंने प्रतिभाशाली व्यक्तित्व, आवश्यक साधन और स्व-संचालित तेज के गतिशील रहने की व्यवस्था बना दी है। साथ ही विश्वास किया है कि वह सब कुछ उनके न रहने पर भी सुनिश्चित ढंग से चलता रहेगा। अश्रद्धालु इसमें सन्देह कर सकते हैं; किन्तु महाकाल की क्षमता पर जिन्हें विश्वास है, वे अनुभव करते रह सकते हैं कि जो प्रक्रिया ८० वर्ष से हर कदम को सफलता प्रदान करती रही है, वह अपने समर्पित अकिंचन को सौंपी हुई जिम्मेदारियों को भी स्वयं सँभाल लेगी और जो अभीष्ट हैं, उसे सम्पन्न करके रहेगी। संचालक ने तो सन् २००० तक की पत्रिकाओं का सम्पादन और अगले दिनों छपने वाले साहित्य का सृजन भी कर दिया है। पीछे के लिए ऐसे उत्तराधिकारी छोड़े हैं, जो लक्ष्य को पूरा करने के लिए बड़े से बड़ा कदम उठाने में चुकेंगे नहीं।

    पृथ्वी की विकट आवश्यकताओं को देखते हुए, दैवी विधान ने गंगा को स्वर्ग से धरती पर भेजने का पूर्व निश्चय कर रखा था। निमित्त बनने के लिए चूँकि माध्यम की जरूरत पड़ी, तो भगीरथ के रूप में वह सहज ही चला आया। इन दिनों ज्ञान गंगा समस्त विश्व का सिंचन करने और समस्त मानव जाति का कल्याण करने के लिए उतर रही है। स्वेच्छा पूर्वक अथवा नियंता की विधि-व्यवस्था के अनुशासन में जैसे भी हो, उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना वाली ज्ञान गंगा का अवतरण निश्चित है। उसका स्वागत-अर्चन करने की आवश्यकता की पूर्ति के लिए, क्या असंख्यों भावनाशील पंक्तिबद्ध होकर विशाल सेना की तरह खड़े मिलेंगे? क्या वे इतने स्वल्प समय में जुट सकेंगे? जिन्हें महाकाल की इच्छा और योजना के सफल होने का विश्वास है, वे इस प्रतिपादन पर श्रद्धा कर सकते हैं कि राई से पर्वत बनाने वाली शक्ति का नियोजन स्वल्प साधनों और स्वल्प व्यक्तियों के माध्यम से भी सम्भव है।

    सन् २००० में अभी लगभग २ वर्ष शेष हैं। इतने समय में मिशन के सूत्र संचालक अपने स्थूल कलेवर और शक्ति भण्डार को व्यापक बनाने के लिए सूक्ष्म शक्ति के माध्यम से इक्कीसवीं सदी का गंगावतरण यथा समय सम्पन्न करके रहेंगे। उस अनुग्रह का समय पर सदुपयोग करने के लिए, श्रेयार्थियों को समय रहते कटिबद्ध होने भर की आवश्यकता है।

    युग देवता ने हर प्राणवान् को इन दिनों लिप्सा और कुत्साओं के बन्धन ढीले करके,नव सृजन के दैवी प्रयास में भागीदारी के लिए पुकारा है। वे सफल तो हर हालत में होने वाले हैं। प्रश्न उस सुयोग सौभाग्य का है, जिसे समय पर जागने जागने वाले, आवश्यक साहस दिखाने वाले ही उपलब्ध किया करते हैं।

    इक्कीसवीं सदी अपने ढंग की समग्र क्रान्ति साथ लेकर दौड़ी आ रही है। उसमें संसार का आनन्द और उल्लास से भरा नवसृजन होने वाला है। अवाँछनीयताओं का दुर्ग ढहने ही वाला है। इस भवितव्यता में सहयोगी बनकर समस्त संसार का तो भला किया ही जा सकता है साथ ही अपने लिए भी उस स्तर का सौभाग्य उपलब्ध किया जा सकता है, जिसके प्रभाव से आने वाली अगली पीढिय़ाँ भी कृतकृत्य हो सकती हैं।

      प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।

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